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गुरु व्यक्तित्व की समग्रता का आधार...

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सुशील कुमार शर्मा

(गुरु पूर्णिमा के अवसर पर विशेष)


 

 
व्यासजी धर्म प्रवचनकर्ताओं में सबसे अग्रणी माने जाते हैं। सच्चे मार्गदर्शक ही गुरु कहलाने के  अधिकारी हैं इसलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। 
 
स्कंदपुराण-गुरुगीता प्रकरण में 'गुरु' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है।
 
गुकारस्त्वन्धकारः स्याद् रुकारस्तेत उच्यते। अज्ञान ग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः॥
 
अर्थात 'गु' शब्द का अर्थ है- अंधकार और 'र' का अर्थ है- तेज अज्ञान का नाश करने वाला तेज  रूप ब्रह्म गुरु ही है, इसमें संशय नहीं। उपनिषद आदि ग्रंथों में धर्मशास्त्रों में गुरु गरिमा का  वर्णन करते हुए गुरु को अज्ञान से छुड़ाने वाला, मुक्ति प्रदाता, सन्मार्ग एवं श्रेय पथ की ओर ले  जाने वाला पथ-प्रदर्शक बताया गया है। गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर है। वही परब्रह्म है।  गुरुकृपा के अभाव में साधना की सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।
 
मानवी सत्त असीम सामर्थ्यों से युक्त है। संभावनाएं अनंत हैं, पर जब तक यह आत्मबोध न  हो जाए, अंत:शक्ति संपन्नता का लाभ मनुष्य को नहीं मिल पाता। आत्मबल संपन्न गुरु का  वरण इसीलिए किया जाता है। अपने आत्मबल द्वारा वे शिष्य में ऐसी प्रेरणाएं भरते हैं जिससे  कि वह सद्मार्ग पर चल सके। 
 
साधना मार्ग के अवरोधों एवं विक्षोभों के निवारण में गुरु का असाधारण योगदान होता है। वे  शिष्य को अंत:शक्ति से परिचित ही नहीं कराते, वरन उसे जाग्रत एवं विकसित करने के  हरसंभव उपाय बताते और प्रयास करते हैं। उनका यह अनुदान शिष्य अपनी आंतरिक श्रद्धा के  रूप में उठाता है। जिस शिष्य में आदर्शों एवं सिद्धांतों के प्रति जितनी अधिक निष्ठा होगी, वह  गुरु के अनुदानों से उतना ही अधिक लाभान्वित होगा।
 
भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा, मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन  के रूप में थी। यह व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि धर्म के लिए थी। भारत की शैक्षिक एवं  सांस्कृतिक परंपरा विश्व इतिहास में प्राचीनतम है। 
 
'सीखो अथवा नष्ट हो जाओ' प्रख्यात शिक्षाविद एजे टोयनबी का यह कथन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में  और अधिक प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि द्रुतगामी विकास और प्रतिस्पर्धा के युग में यदि  नागरिक वर्तमान चुनौतियों और मांग के संदर्भ में स्वयं को सूचनायुक्त, सजग और दक्ष नहीं  बनाते हैं तो वे विकास की मुख्य धारा से वंचित हो जाते हैं।
 
यदि किसी राष्ट्र में यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है तो संपूर्ण सभ्यता ही नष्ट हो  जाती है। इन चुनौतियों से निपटने में सिर्फ गुरु ही सक्षम है। वही शिष्य में निरंतर सीखते रहने  की जिज्ञासा और प्रवृत्ति को जगाता है, जो मानव की प्रगति और अस्तित्व के लिए अपरिहार्य  माना गया है। निरंतर सीखने और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए गुरु आवश्यक है। गुरु  मनुष्य को स्वतंत्र रूप से चिंतन करने और निर्णय लेने के योग्य बनाता है। 
 
इसीलिए कहा गया है 'सा विद्या या विमुक्तये।' गुरु द्वारा दी गई शिक्षा मनुष्य के ज्ञान,  अभिवृत्ति और व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन करती है और उसको समाजोपयोगी अंतरदृष्टि  प्रदान कर लक्ष्य के प्रति क्रियाशील बनाए रखती है।
 
 

महर्षि अरविंद का कहना है कि सच्चे सद्गुरु भगवान की प्रतिमूर्ति हैं। जब भगवान को पथ-  प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया जाता है, तब उन्हें गुरु रूप में स्वीकार किया जाता है।  श्रद्धा-विश्वास की प्रगाढ़ता ही मनुष्य का सही पथ-प्रदर्शन करती और पूर्णता के लक्ष्य तक  पहुंचाती है। यह गुरु ही है, जो शिष्यों में सुसंस्कार डालता और आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर  करता है। उनके चरित्र और समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करता है। 

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चेतना का स्तर ऊंचा उठाने और प्रतिभा, प्रखरता को आगे बढ़ाने की आवश्यकता गुरुवरण से ही  पूरी होती है। गुरु केवल मार्गदर्शन ही नहीं करते, वरन अपनी तपश्चर्या, पुण्य संपदा एवं प्राण  ऊर्जा का एक अंश देकर शिष्य की पात्रता और क्षमता बढ़ाने में योगदान करते हैं। 
 
डॉ. एस. राधाकृष्णन ने कहा है कि- 'शिक्षा को मनुष्य और समाज का कल्याण करना चाहिए।  इस कार्य को किए बिना शिक्षा अनुर्वर और अपूर्ण है। शिक्षा जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है  एवं इस प्रक्रिया का मूलाधार गुरु है। किसी भी राष्ट्र का विकास शिक्षा एवं शिक्षक के अभाव में  असंभव है, चाहे वह राष्ट्र कितने ही प्राकृतिक संसाधनों से आच्छादित क्यों न हो। 
 
आज के बदलते परिवेश में परिवर्तन की धारा ने शिक्षा को विशेष रूप से प्रभावित किया है।  जहां एक ओर मानवीय संबंधों में बदलाव आया है, वहीं विज्ञान के बढ़ते चरण ने शिक्षा की  दशा व दिशा दोनों ही परिवर्तित किए हैं। वैज्ञानिक आविष्कारों से प्रत्येक क्षेत्र में युगांतकारी  परिवर्तन हुए हैं।
 
मनुष्य ने तकनीकी उन्नति के माध्यम से स्वयं का जीवन उन्नत किया है। यह सभी गुरु के  कारण संभव हुआ है, क्योंकि गुरु एवं शिक्षकों ने राष्ट्र के नागरिकों को समुचित शिक्षा प्रदान  की है जिससे तात्कालिक समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए मानवीय उद्देश्यों के प्रति सरकार  एवं नागरिक प्रतिबद्ध हैं।
 
चरित्र की उत्कृष्टता एवं व्यक्तित्व की समग्रता ही गुरु अनुग्रह की वास्तविक उपलब्धि है। यह  जिस भी साधक में जितनी अधिक मात्रा में दिख पड़े, समझा जाना चाहिए गुरु की उतनी ही  अधिक कृपा बरसी, अनुदान-वरदान मिला। स्पष्ट है कि मानव जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु  गुरु तत्व कितना जरूरी है।
 
कैसी विचित्र बिडंबना है कि एक ही व्यक्ति एक ही दिशा में प्रखर बुद्धि और दूसरे क्षेत्र में सर्वथा  मूढ़ मति सिद्ध होता है। प्रचलित गुरुडम या गुरुवाद की परंपरा पर यह बात आश्चर्यजनक रूप  से लागू होती है। कोई विरला व्यक्ति ही ऐसा होगा, जो इस क्षेत्र में उपयोगिता, आवश्यकता एवं  यथार्थता की कसौटी को लेकर आगे बढ़ता हो। अन्यथा अधिकांश तो अनुकरण, अनिशयोक्ति,  मूढ़ मान्यताओं एवं अंध-परंपराओं के वशीभूत होकर इस क्षेत्र में दिग्भ्रांत होकर भटकते हैं। 
 
गुरु-शिष्य परंपरा का वर्तमान रूप जैसा बन गया है, उसे न तो वांछनीय कहा जा सकता है  और न ही उचित। इस रूढ़िगत परंपरा के कारण आत्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही हुआ है।  शास्त्रकारों ने जिस गुरु तत्व की महिमा का वर्णन किया है, उसका प्रचलित बिडंबना के साथ  कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता।
 
आध्यात्मिक समर्पण तभी संभव हो पाता है, जब गुरु को सब भावों परात्पर, निर्व्यक्तिक,  सव्यक्तिक में स्वीकार किया जाए। गुरु-शिष्य का गठबंधन वह श्रेष्ठतम गठबंधन है जिसके  द्वारा मनुष्य भगवान से जुड़ता और संबंध स्थापित करता है। गुरु या भगवत्कृपा दोनों एक ही  हैं और ये तभी चिरस्थायी बनती हैं, जब शिष्य कृपा-प्राप्ति की स्थिति में हो। श्रद्धासिक्त  समर्पण ही इसका मूल है।
 
स्वाध्याय एवं सत्संग से मनुष्य ऋषि ऋण से गुरु ऋण से मुक्त हो सकता है। साहित्य के  कुछ पृष्ठ नित्य पढ़ने का संकल्प लेकर गुरु चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती  है। अब समय आ गया है कि पुष्प, फल, भोजन दक्षिण आदि से ही गुरु पूजन पर्याप्त न माना  जाए, वरन जन-जन को अपना जीवन निर्माण करने के लिए गुरु के उपयोगी वचनों को  हृदयंगम करने और उन्हें कार्यरूप में परिणित करने का प्रयत्न किया जाए। 
 
हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर यदि एक बुराई छोड़ने और एक अच्छाई ग्रहण करने की  परंपरा पुन: आरंभ की जाए तो जीवन के अंत तक इस क्रम पर चलने वाला मनुष्य पूर्णता और  पवित्रता का अधिकारी बनकर मानव जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। 
 
गुरुचेतना में विलय ही शिष्य की पहचान, 
सीस दीयो जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।


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