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पटेलों को साधना भाजपा के लिए आसान नहीं

हमें फॉलो करें पटेलों को साधना भाजपा के लिए आसान नहीं
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अनिल जैन

अहमदाबाद। गुजरात में आर्थिक और राजनीतिक तौर पर बेहद ताकतवर माने जाने वाले पटेल समुदाय का आरक्षण आंदोलन राज्य में पटेलों के वर्चस्व वाली भाजपा और उसकी सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन गया है।
 
राज्य सरकार न तो पटेल समुदाय की यह मांग स्वीकार करने के लिए तैयार है और न ही वह स्वीकार करने की स्थिति में है, क्योंकि उसमें कई कानूनी पेंच हैं। एक तो सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 फीसदी की हदबंदी तय कर रखी है जिसे तोड़ पाना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। दूसरा, अगर पिछड़े वर्ग के मौजूदा आरक्षण में पटेलों के लिए गुंजाइश निकाली जाए तो अन्य पिछ़ड़ी जातियां नाराज हो सकती हैं, ऐसा अन्य राज्यों में हो चुका है। फिर अन्य पिछड़ी जातियों के नेता इस बारे में गुजरात सरकार को आगाह भी कर चुके हैं।
 
यह बड़ी अजीब और दिलचस्प स्थिति है कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को दिए जाने वाले आरक्षण के खिलाफ गुजरात में कई बार उग्र आंदोलन कर चुका पटेल समुदाय अब खुद अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। पटेल समुदाय आर्थिक और राजनीतिक रूप से गुजरात का सबसे प्रभावशाली समुदाय है।
 
गुजरात की राजनीति में भाजपा का वर्चस्व भी काफी हद तक इसी समुदाय के समर्थन पर आधारित है। आरक्षण मांग रहे लेउवा और कड़वा पटेलों की आबादी राज्य में करीब 16 फीसदी है, लेकिन राज्य विधानसभा में भाजपा के 120 में से एक-तिहाई से ज्यादा यानी 44 विधायक पटेल हैं। मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के अलावा राज्य मंत्रिपरिषद में 7 अन्य मंत्री इसी समुदाय से हैं। राज्य के 26 में से 7 लोकसभा सदस्य तथा राज्यसभा के 2 सदस्य भी पटेल हैं। 
 
परंपरागत रूप से खेती के अलावा राज्य के हीरा, टेक्सटाइल, रियल एस्टेट और मूंगफली तेल के कारोबार के अलावा शैक्षणिक ट्रस्टों में भी पटेलों का वर्चस्व है। भारत से लेकर अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका तक में तमाम व्यवसायों पर पटेल काबिज हैं।
 
आंकड़े गवाही देते हैं कि राजकोट और उसके आसपास की 12 हजार औद्योगिक इकाइयों में से 40 फीसदी इकाइयों, सूरत के हीरा कारोबार की 70 फीसदी इकाइयों, मोरवी के आसपास के सिरामिक्स उद्योग के 90 फीसदी से ज्यादा हिस्से और अमेरिका के राजमार्गों के मोटल व्यवसाय के 70 फीसदी हिस्से पर पटेलों का कब्जा है।
 
अमेरिका के करीब 2.25 करोड़ अनिवासी भारतीयों में से करीब 35 फीसदी पटेल हैं। इन्हीं सब वजहों से यह माना जाता है कि अन्य जाति-समुदायों की तुलना में पटेल समुदाय बेहद समृद्घ और प्रभावशाली है। कुल मिलाकर पहली नजर में उनके असंतुष्ट होने का कोई कारण नजर नहीं आता।
 
सवाल है कि इतना सब होने के बावजूद पटेलों में असंतोष क्यों है और वे क्यों आरक्षण मांग रहे हैं? 70 के दशक में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से जुड़े रहे सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु भाई ठक्कर इसकी वजह बताते हुए कहते हैं कि इस असंतोष के पीछे बहुप्रचारित गुजरात मॉडल का वह अंधेरा पक्ष है जिसे नरेन्द्र मोदी ने राज्य का मुख्यमंत्री रहते हुए 'वाइब्रेंट गुजरात' के नारे के भीतर छिपाए रखा और अब भी 'अच्छे दिन' के जुमले के भीतर छिपाए रखने की कोशिश की जा रही है। गुजरात में 2.61 लाख लघु और मध्यम पंजीकृत औद्योगिक इकाइयों में से लगभग 50 हजार बीमार हैं। इनमें काम करने वाले 21 लाख कर्मचारियों में पटेलों का काफी बड़ा हिस्सा है। 
 
गुजरात व्यापार संगठन के अध्यक्ष जयेन्द्र तन्ना का मानना है कि पिछले कुछ सालों में गुजरात में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े उद्योगों के आने से छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इसके अलावा पटेलों के वर्चस्व वाले सूरत का हीरा कारोबार भी पिछले कुछ वर्षों से मंदी के दौर से गुजर रहा है। हीरा तराशने वाली लगभग 150 इकाइयां बंद पड़ी हैं। इन सब कारणों से पटेलों में आर्थिक असुरक्षा बढ़ी है।
 
परंपरागत रूप से उद्यमी और कारोबारी समुदाय होने के कारण पटेलों की शिक्षा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रही, लेकिन अब उन्हें लग रहा है कि बच्चों के डॉक्टर, इंजीनियर बनने में उनका भविष्य सुरक्षित हो सकता है और उनके लिए विदेश जाना भी आसान हो सकता है।
 
जो भारतीय व्यापारी अफ्रीका, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और यूरोप के अन्य देशों में हैं, उनमें बड़ी तादाद पटेलों की है। शायद उन्हें अब शिक्षा में आगे बढ़ने का रास्ता दिखाई दे रहा है इसलिए वे शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मांग रहे हैं।
 
हालांकि कानूनी तौर पर भी और व्यावहारिक रूप से भी पटेलों को आरक्षण देना राज्य सरकार के लिए संभव नहीं है। अगर सरकार ने कोई गली निकालकर ऐसा करने की कोशिश की भी तो आशंका है कि उसकी इस कोशिश के विरोध में दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियां, जिनकी आबादी लगभग 70 फीसदी है, गोलबंद होकर भाजपा के विरोध में खड़ी हो जाएं। 
 
राज्य में भाजपा और उसकी सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह पटेलों को यह समझाए कि जिस समुदाय की भूख बाजार शांत नहीं कर सका, उसे चंद सरकारी नौकरियां कैसे शांत कर सकेंगी। जितना कठिन भाजपा के लिए यह समझा पाना है, उतना ही कठिन पटेलों के लिए समझना भी है।

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