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नरबलि का एक और रूप...

काली माँ को संतुष्ट करती ‘अड़वी’ प्रथा...

हमें फॉलो करें नरबलि का एक और रूप...
- प्रताप
क्या आपने इस आधुनिक युग में नर बलि के बारे में सोचा है? नहीं सोचा तो जरा द्रविड़ियन संस्कृति की पूजा-पद्धति पर गौर कीजिए, जहाँ भक्त अपने इष्ट देव को प्रसन्न करने के लिए नर बलि तक का सहारा लेता है। मगर अधिकतर हम ऐसी बातों को सुनकर या पढ़कर चकित ही होते हैं। आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको एक ऐसी ही अजीबोगरीब परंपरा के विषय में बता रहे हैं, जिसमें नर कटीली झाड़ियों को लपेटकर जमीन पर लोटता है और काली माँ को खून चढ़ाते हैं।
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अड़वी नामक यह प्रथा केरल के ‘कुरमपला देवी मंदिर’ में संपन्न की जाती है। यह मंदिर तिरुवनंतपुरम से करीब सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। काली माँ की आराधना के लिए की जाने वाली यह प्रथा हर पाँच साल में करीब एक बार आयोजित की जाती है।

मान्यता के अनुसार अड़वी वेलन नामक एक पुजारी की पूज्यनीय देवी थीं। एक बार वेलन पूजा-अर्चना करके मंदिर के पास से गुजर रहे थे। मंदिर के पास देवी माँ ने वेलन के पास निहित अड़वी देवी को अपनी शक्तियाँ प्रदान कीं। तत्पश्चात देवा माँ की शक्तियों की आराधना हेतु भक्त नरबलि देने लगे और इस परंपरा का नाम ही अड़वी पड़ गया।

इस प्रथा के दौरान श्रद्धालु बाँस की कटीली झाड़ियों को लपेटकर, जमीन पर लोटते हैं और अपना खून देवी माँ को अर्पित करते हैं। यह प्रथा मानव बलि से काफी हद तक मिलती-जुलती है।

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पणयानी के नौंवे दिन गाँववासी मंदिर पहुँचते हैं और कँटीले बाँस, नारियल के ताड़ आदि कटीली झाड़ियों को लपेटकर जमीन पर लोटते हैं। पणयानी शाम सात बजे से शुरू होती है। आधी रात को मंदिर के मुख्य पुजारी श्रद्धालुओं को भभूत का प्रसाद बाँटते हैं।

श्रद्धालु भभूत प्राप्त करने के पश्चात विभिन्न स्थानों से कँटीले झाड़ एकत्रित करते हैं। इसके बाद उन झाड़ियों को अपने शरीर पर लपेटकर मंदिर की परिक्रमा करते हैं। इसमें उन्हें केवल उत्तर दिशा में ही परिक्रमा करनी होती है।
  शरीर पर लगे हुए घाव से बहते हुए खून को एकत्रित किया जाता है और काली माँ को चढ़ाया जाता है।      

अंत में इन काँटों को शरीर से हटाया जाता है। शरीर पर लगे हुए घाव से बहते हुए खून को एकत्रित किया जाता है और काली माँ को चढ़ाया जाता है। यह प्रथा मूल रूप से नरबलि का ही एक उदाहरण है। श्रद्धालुओं का दावा है कि वह इस दौरान किसी प्रकार का भी दर्द महसूस नहीं करते हैं। इस प्रक्रिया के पश्चात मंदिर परिसर पूरे दिन खाली रखा जाता है और इसे भूतों व प्रेत-आत्माओं का अड्डा माना जाता है। आप इस विषय पर क्या सोचते हैं, हमें जरूर बताइएगा? (वीडियो व चित्र - पणयानी.कॉम)

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