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सफलतम जीवन की सच्ची सीख

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आचार्य बहुश्रुति के आश्रम में तीन शिष्य शिक्षा पूर्ण कर घर जाना चाहते थे। आचार्य ने उनसे परीक्षा के लिए एक सप्ताह का समय मांगा। सातवें दिन तीनों फिर आचार्य की ओर चले। कुटिया के द्वार पर कांटे बिखरे हुए थे। बचते-बचाते हुए भी तीनों के पैरों में कांटे चुभ गए।

पहले शिष्य ने अपने हाथ से कांटे निकाले और कुटिया में पहुंच गया। दूसरा सोच-विचार में एक ओर बैठ गया। तीसरे ने आव देखा न ताव, झट से झाडू लेकर कुटिया के द्वार पर बिखरे सभी कांटों की सफाई कर दी।

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आचार्य ने पहले और दूसरे को आश्रम में रखकर तीसरे को बिदा करते हुए कहा कि तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। साथ ही कहा कि जब तक शिक्षण आचरण में नहीं उतर जाता, तब तक वह अधूरा है।

आज के शिक्षक-शिक्षार्थी के लिए इस प्रसंग में बहुत बड़ी सीख छिपी हुई है। प्रायः शाला में आधा-अधूरा पाठ्यक्रम समाप्त कर शिक्षार्थी को परीक्षा का सुपात्र मान लेते हैं।

अधकचरे ज्ञान के बल पर अनुत्तरदायी परीक्षकों के सौजन्य से बहुत-से विद्यार्थी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लेते हैं, पर वे जीवन की परीक्षा में असफल ही होते हैं। चुनौतियों के आगे धराशायी हो जाते हैं


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