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शिव के पुत्रों के जन्म की कथा जानिए

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आपने भगवान विष्णु के पुत्रों के नाम पढ़े होंगे। नहीं पढ़ें तो अब पढ़ लें- आनंद, कर्दम, श्रीद और चिक्लीत। विष्णु ने ब्रह्मा के पुत्र भृगु की पुत्र लक्ष्मी से विवाह किया था। शिव ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की कन्या सती से विवाह किया था, लेकिन सती तो दक्ष के यज्ञ की आग में कूदकर भस्म हो गई थी। यह माना जाता है कि शिव के लिए कोई भी महिला बच्चा पैदा नहीं कर सकी। तब कैसे जन्मे शिव के पुत्र?

नोट : शिवपुराण के अनुसार यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि सदाशिव अलग हैं, शिव अलग हैं, रुद्र अलग हैं और महेश्वर अलग हैं। सदाशिव और प्रकृति से पहले ‍विष्णु फिर ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई।‍ फिर उन सदाशिव ने ही शिव, रुद्र और महेश्वर रूप धरा। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र को गुण वाला माना गया है जबकि शिव को गुणातीत माना गया है। रुद्र और महेश्वर को ‍सदाशिव कालरूप का वि‍भूतिस्वरूप माना गया है। यहां हम बात करेंगे उन महेश की, जो पार्वती के पति हैं, जिन्हें 'शिव' भी कहा जाता है।

पुराणों में देवता, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गण, किन्नर, गंधर्व, वानर, नाग, भल्ल, वसु आदि का उल्लेख मिलता है। भगवान शिव इनमें से क्या थे? उन्हें 'देवों का देव महादेव' भी कहा जाता है इसलिए माना जा सकता है ‍कि वे भी देवता थे। लेकिन पुराणों के अनुसार देवता सिर्फ उन्हें कहा गया है, जो अदिति के पुत्र हैं और दैत्य उन्हें कहा गया है, जो दिति के पुत्र हैं। शिवसूत्र में शिव को यक्षस्वरूपी कहा गया है। 'यक्ष' उनको कहते हैं, जो कभी मनुष्य योनि में नहीं रहते हैं।

यक्षों को धरती का नहीं माना जाता है। कुबेर भी तो यक्षराज थे। दरअसल, प्राचीनकाल में पृथ्वी या धरती उसे कहा जाता था, जहां जंगल और मैदानी इलाके थे। हिमालय को स्वर्ग का क्षेत्र माना जाता था और रेगिस्तानी इलाकों को पाताल क्षेत्र। लेकिन इसके अलावा भी पुराणों में एक और स्वर्ग की स्थिति बताई गई है और वह है कैलाश पर्वत के हजारों योजन ऊपर। देवता और यक्ष जब धरती पर उतरते थे तो सबसे पहले वे हिमालय क्षेत्र में ही उतरते थे। उसमें भी वे तिब्बत और मंगोलिया के बीच के क्षेत्र में उतरते थे इसलिए इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को भी धरती का प्राणी नहीं माना जाता था।

भगवान शिव भी हिमालय स्थित कैलाश क्षेत्र में रहते थे। शिवजी स्वयंभू थे। पुराणों में उनकी उत्पत्ति को लेकर भिन्न-भिन्न मत हैं लेकिन सभी एक बात पर एकमत हैं ‍‍कि उनकी उत्पत्ति कहीं और से मानी जाती है और वह है सदाशिव।

उनके मित्रगणों को हमेशा पिशाच और भूत-प्रेत माना गया, जो पागल हैं और विक्षिप्त से हैं। इंसानों ने उनकी पूजा की, लेकिन उनके सबसे नजदीकी लोग इंसान नहीं थे। शिव से और उनके गणों से हिमालय में रहने वाले अन्य जातियों के लोग दूर रहते थे। उनमें से एक थे राजा दक्ष। दक्ष और उनके समुदाय के लोग उन्हें अच्छा नहीं मानते थे। वे किस तरह हिमालय में रहने लगे और कैसे उन्होंने अपने गणों को इकट्ठा किया, यह अध्ययन का विषय है।

शिवजी के बुढ़ापे और उनकी मृत्यु के बारे में भी कुछ सुनने या पढ़ने को नहीं मिलता। त्रिपुरासुर के वध के हजारों वर्षों बाद भी शिव का उल्लेख रामायण काल में मिलता है, जबकि वे राम से युद्ध करते हैं और राम उनके लिए रामेश्वरम में एक शिवलिंग बनाते हैं। रावण शिव का परम भक्त रहता है लेकिन वह शिव की सत्ता को ही ‍चुनौती दे देता है जिसकी उसे सजा भी मिलती है। रामायण काल के बाद महाभारत काल में भी शिव का वर्णन मिलता है। शिव इस काल में भगवान कृष्ण से युद्ध करते हैं। रामायण और महाभारत काल के बीच लगभग 3 हजार वर्षों का फासला है।

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गणेश : भगवान शिव की पहली पत्नी सती थीं, जो आग में जलकर भस्म हो गई थी। उन्हीं सती ने जब दूसरा जन्म पार्वती के रूप में लिया तब उन्होंने भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उनकी मनोकामना पूर्ण की और उनसे विवाह किया। पुराणों में गणेशजी की उत्पत्ति की विरोधाभासी कथाएं मिलती हैं। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय गणेशजी का जन्म हुआ था।

पहली कथा : एक कथा के अनुसार शनि की दृष्टि पड़ने से शिशु गणेश का सिर जलकर भस्म हो गया। इस पर दुःखी पार्वती (सती नहीं) से ब्रह्मा ने कहा- 'जिसका सिर सर्वप्रथम मिले उसे गणेश के सिर पर लगा दो।' पहला सिर हाथी के बच्चे का ही मिला। इस प्रकार गणेश ‘गजानन’ बन गए।

दूसरी कथा के अनुसार गणेश को द्वार पर बिठाकर पार्वतीजी स्नान करने लगीं। इतने में शिव आए और पार्वती के भवन में प्रवेश करने लगे। गणेश ने जब उन्हें रोका तो क्रुद्ध शिव ने उसका सिर काट दिया। इन गणेश की उत्पत्ति पार्वतीजी ने चंदन के मिश्रण से की थी। जब पार्वतीजी ने देखा कि उनके बेटे का सिर काट दिया गया तो वे क्रोधित हो उठीं। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर गणेशजी के सिर पर लगा दिया और वह जी उठा।

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कार्तिकेय : शिव के दूसरे पुत्र कार्तिकेय को सुब्रमण्यम, मुरुगन और स्कंद भी कहा जाता है। उनके जन्म की कथा भी विचित्र है। कार्तिकेय की पूजा मुख्यत: दक्षिण भारत में होती है। अरब में यजीदी जाति के लोग भी इन्हें पूजते हैं, ये उनके प्रमुख देवता हैं। उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेश उत्तर कुरु के क्षे‍त्र विशेष में ही इन्होंने स्कंद नाम से शासन किया था। इनके नाम पर ही स्कंद पुराण है।

पहली कथा : जब पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव की पत्नी 'सती' कूदकर भस्म हो गईं, तब शिवजी विलाप करते हुए गहरी तपस्या में लीन हो गए। उनके ऐसा करने से सृष्टि शक्तिहीन हो जाती है। इस मौके का फायदा दैत्य उठाते हैं और धरती पर तारक नामक दैत्य का चारों ओर आतंक फैल जाता है। देवताओं को पराजय का सामना करना पड़ता है। चारों तरफ हाहाकार मच जाता है तब सभी देवता ब्रह्माजी से प्रार्थना करते हैं। तब ब्रह्माजी कहते हैं कि तारक का अंत शिव पुत्र करेगा।

इंद्र और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शंकर 'पार्वती' के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिवजी और पार्वती का विवाह हो जाता है। इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता है। कार्तिकेय तारकासुर का वध करके देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं। पुराणों के अनुसार षष्ठी तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विशेष महत्व है।

दूसरी कथा : लेकिन एक दूसरी कथा अनुसार कार्तिकेय का जन्म 6 अप्सराओं के 6 अलग-अलग गर्भों से हुआ था और फिर वे 6 अलग-अलग शरीर एक में ही मिल गए थे।

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