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महाभारत से मिलते हैं ये 18 सबक

हमें फॉलो करें महाभारत से मिलते हैं ये 18 सबक

अनिरुद्ध जोशी

वेद ही हैं हिन्दुओं के धर्मग्रंथ। वेदों के 4 भाग हैं- ऋग्व, यजु, साम और अथर्व। महाभारत को पांचवां वेद माना जाता है। प्रत्येक भारतीयों को इसे पढ़ना चाहिए। इसमें वह सब कुछ है, जो मानव जीवन में घटित होता है या हो सकता है। इसमें वह सब कुछ है, जो धर्म और राजनीति में होता है। इसमें वह भी है, जो आध्यात्मिक मार्ग में घटित होता है।
एक ओर इसमें रिश्तों को लेकर अपनत्व है तो दूसरी ओर खून के रिश्तों को भी तार-तार कर देने वाली असंवेदनशील घटनाएं हैं। दरअसल, महाभारत में जीवन, धर्म, राजनीति, समाज, देश, ज्ञान, विज्ञान आदि सभी विषयों से जुड़ा पाठ है। महाभारत एक ऐसा पाठ है, जो हमें जीवन जीने का श्रेष्ठ मार्ग बताता है। महाभारत की शिक्षा हर काल में प्रासंगिक रही है। महाभारत को पढ़ने के बाद इससे हमें जो शिक्षा या सबक मिलता है, उसे याद रखना भी जरूरी है। तो आओ हम जानते हैं ऐसी ही 18 तरह की शिक्षाएं, जो हमें महाभारत से मिलती हैं।
 
अगले पन्ने पर पहला सबक हमेशा याद रखें...
 
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जीवन हो योजनाओं से भरा : भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन का बेहतर प्रबंधन करना जरूरी है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में बेहतर रणनीति आपके जीवन को सफल बना सकती है और यदि कोई योजना या रणनीति नहीं है तो समझो जीवन एक अराजक भविष्य में चला जाएगा जिसके सफल होने की कोई गारंटी नहीं।
 
भगवान श्रीकृष्ण के पास पांडवों को बचाने का कोई मास्टर प्लान नहीं होता तो पांडवों की कोई औकात नहीं थी कि वे कौरवों से किसी भी मामले में जीत जाते। उनकी जीत के पीछे श्रीकृष्ण की रणनीति का बहुत बड़ा योगदान रहा। यदि आपको जीवन के किसी भी क्षे‍त्र में जीत हासिल करना हो और यदि आपकी रणनीति और उद्देश्य सही है तो आपको जीतने से कोई रोक नहीं सकता।
 
अगले पन्ने पर दूसरा सबक सबको बताएं...
 
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संगत और पंगत हो अच्‍छी : कहते हैं कि जैसी संगत वैसी पंगत और जैसी पंगत वैसा जीवन। आप लाख अच्छे हैं लेकिन यदि आपकी संगत बुरी है तो आप बर्बाद हो जाएंगे। लेकिन यदि आप लाख बुरे हैं और आपकी संगत अच्छे लोगों से है और आप उनकी सुनते भी हैं तो निश्‍चित ही आप आबाद हो जाएंगे।
 
महाभारत में दुर्योधन उतना बुरा नहीं था जितना कि उसको बुरे मार्ग पर ले जाने के लिए मामा शकुनि दोषी थे। शकुनि मामा जैसी आपने संगत पाल रखी है तो आपका दिमाग चलना बंद ही समझो। जीवन में नकारात्मक लोगों की संगति में रहने से आपके मन और मस्तिष्क पर नकारात्मक विचारों का ही प्रभाव बलवान रहेगा। ऐसे में सकारात्मक या अच्छे भविष्य की कामना व्यर्थ है।
 
अगले पन्ने पर तीसरा सबक बहुत जरूरी...
 

थोथा चना बाजे घना : मालवा में एक कहावत है कि 'थोथा चना बाजे घना' अर्थात जो अधूरे ज्ञान हासिल किए हुए लोग रहते हैं, वे बहुत वाचाल होते हैं। हर बात में अपनी टांग अड़ाते हैं और हर विषय पर अपना ज्ञान बघारने लगते हैं, लेकिन कभी-कभी यह अधूरा ज्ञान भारी भी पड़ जाता है। पहली बात तो यह कि इससे समाज में भ्रम की स्थिति निर्मित होती है और दूसरी बात यह कि ऐसा व्यक्ति जिंदगीभर कन्फ्यूज ही रहता है।
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कहते हैं कि अधूरा ज्ञान सबसे खतरनाक होता है। इस बात का उदाहरण है अभिमन्यु। अभिमन्यु बहुत ही वीर और बहादुर योद्धा था लेकिन उसकी मृत्यु जिस परिस्थिति में हुई उसके बारे में सभी जानते हैं। मुसीबत के समय यह अधूरा ज्ञान किसी भी काम का नहीं रहता है। आप अपने ज्ञान में पारंगत बनें। किसी एक विषय में तो दक्षता हासिल होना ही चाहिए।
 
अगले पन्ने पर जानिए चौथा सबक...
 
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दोस्त और दुश्मन की पहचान करना सीखें : महाभारत में कौन किसका दोस्त और कौन किसका दुश्मन था, यह कहना बहुत ज्यादा मुश्किल तो नहीं लेकिन ऐसे कई मित्र थे जिन्होंने अपनी ही सेना के साथ विश्वासघात किया। ऐसे भी कई लोग थे, जो ऐनवक्त पर पाला बदलकर कौरवों या पांडवों के साथ चले गए। शल्य और युयुत्सु इसके उदाहरण हैं। 

 
इसीलिए कहते हैं कि कई बार दोस्त के भेष में दुश्मन हमारे साथ आ जाते हैं और हमसे कई तरह के राज लेते रहते हैं। कुछ ऐसे भी दोस्त होते हैं, जो दोनों तरफ होते हैं। ऐसे दोस्तों पर भी कतई भरोसा नहीं किया जा सकता इसलिए किसी पर भी आंख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए। अब आप ही सोचिए कि कौरवों का साथ दे रहे भीष्म, द्रोण और विदुर ने अंतत: युद्ध में पांडवों का ही साथ दिया। ये लोग लड़ाई तो कौरवों की तरफ से लड़ रहे थे लेकिन प्रशंसा पांडवों की करते थे और युद्ध जीतने के उपाय भी पांडवों को ही बताते थे।
 
अगले पन्ने पर पांचवां सबक जानिए...
 

हथियार से ज्यादा घातक बोल वचन : यह बात तो सभी जानते होंगे कि किसी के द्वारा दिया गया बयान परिवार, समाज, राष्ट्र या धर्म को नुकसान पहुंचा सकता है। हमारे नेता, अभिनेता और तमाम तरह के सिंहासन पर विराजमान तथाकथित लोगों ने इस देश को अपने बोल वचन से बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।
 
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महाभारत का युद्ध नहीं होता यदि कुछ लोग अपने वचनों पर संयम रख लेते। आपने द्रौपदी का नाम तो सुना ही है। इंद्रप्रस्थ में एक बार जब महल के अंदर दुर्योधन एक जल से भरे कुंड को फर्शी समझकर उसमें गिर पड़े थे तो ऊपर से हंसते हुए द्रौपदी ने कहा था- 'अंधे का पुत्र भी अंधा'। बस यही बात दुर्योधन को चुभ गई थी जिसका परिणाम द्रौपदी चीरहरण के रूप में हुआ था। शिशुपाल के बारे में भी आप जानते ही होंगे। भगवान कृष्ण ने उसके 10 अपमान भरे वाक्य माफ कर दिए थे। शकुनी की तो हर बात पांडवों को चुभ जाती थी।
 
सबक यह कि कुछ भी बोलने से पहले हमें सोच लेना चाहिए कि इसका आपके जीवन, परिवार या राष्ट्र पर क्या असर होगा और इससे कितना नुकसान हो सकता है। इसीलिए कभी किसी का अपमान मत करो। अपमान की आग बड़े-बड़े साम्राज्य नष्ट कर देती है। कभी किसी मनुष्य के व्यवसाय या नौकरी को छोटा मत समझो, उसे छोटा मत कहो।
 
अगले पन्ने पर छठा सबक जानिए...
 
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जुए-सट्टे से दूर रहो : शकुनि ने पांडवों को फंसाने के लिए जुए का आयोजन किया था जिसके चलते पांडवों ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। अंत में उन्होंने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया था। यह बात सभी जानते हैं कि फिर क्या हुआ?
 
अत: जुए, सट्टे, षड्यंत्र से हमेशा दूर रहो। ये चीजें मनुष्य का जीवन अंधकारमय बना देती हैं। किसी भी रूप में ये कार्य निंदनीय और वर्जित माने गए हैं। जुए या सट्टे के आजकल कई तरह के रूप प्रचलित हैं। पहले तो पांसे का जुआ होता था, लेकिन आजकल रमी, फ्लश आदि हैं। 
 
अगले पन्ने पर सातवां सबक जानिए...
 

सदा सत्य के साथ रहो : कौरवों की सेना पांडवों की सेना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी। एक से एक योद्धा और ज्ञानीजन कौरवों का साथ दे रहे थे। पांडवों की सेना में ऐसे वीर योद्धा नहीं थे।
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जब श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से कहा कि तुम मुझे या मेरी नारायणी सेना में से किसी एक को चुन लो तो दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को छोड़कर उनकी सेना को चुना। अंत: पांडवों का साथ देने के लिए श्रीकृष्ण अकेले रह गए।
 
कहते हैं कि विजय उसकी नहीं होती जहां लोग ज्यादा हैं, ज्यादा धनवान हैं या बड़े पदाधिकारी हैं। विजय हमेशा उसकी होती है, जहां ईश्वर है और ईश्वर हमेशा वहीं है, जहां सत्य है इसलिए सत्य का साथ कभी न छोड़ें। अंतत: सत्य की ही जीत होती है।
 
आप सत्य की राह पर हैं और कष्टों का सामना कर रहे हैं लेकिन आपका कोई परिचित अनीति, अधर्म और खोटे कर्म करने के बावजूद संपन्न है, सुविधाओं से मालामाल है तो उसे देखकर अपना मार्ग न छोड़ें। आपकी आंखें सिर्फ वर्तमान को देख सकती हैं, भविष्य को नहीं।
 
अगले पन्ने पर आठवां सबक, जानिए...
 

लड़ाई से डरने वाले मिट जाते हैं : जिंदगी एक उत्सव है, संघर्ष नहीं। लेकिन जीवन के कुछ मोर्चों पर व्यक्ति को लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। जो व्यक्ति लड़ना नहीं जानता, युद्ध उसी पर थोपा जाएगा या उसको सबसे पहले मारा जाएगा।
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महाभारत में पांडवों को यह बात श्रीकृष्ण ने अच्‍छे से सिखाई थी। पांडव अपने बंधु-बांधवों से लड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने समझाया कि जब किसी मसले का हल शांतिपूर्ण किसी भी तरीके से नहीं होता तो फिर युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है। कायर लोग युद्ध से पीछे हटते हैं।
 
इसीलिए अपनी चीज को हासिल करने के लिए कई बार युद्ध करना पड़ता है। अपने अधिकारों के लिए कई बार लड़ना पड़ता है। जो व्यक्ति हमेशा लड़ाई के लिए तैयार रहता है, लड़ाई उस पर कभी भी थोपी नहीं जाती है।
 
अगले पन्ने पर नौवां सबक, जानिए...
 

खुद नहीं बदलोगे तो समाज तुम्हें बदल देगा : जीवन में हमेशा दानी, उदार और दयालु होने से काम नहीं चलता। महाभारत में जिस तरह से कर्ण की जिंदगी में उतार-चढ़ाव आए, उससे यही सीख मिलती है कि इस क्रूर दुनिया में अपना अस्तित्व बनाए रखना कितना मुश्किल होता है। इसलिए समय के हिसाब से बदलना जरूरी होता है, लेकिन वह बदलाव ही उचित है जिसमें सभी का हित हो।
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कर्ण ने खुद को बदलकर अपने जीवन के लक्ष्य तो हासिल कर लिए, लेकिन वे फिर भी महान नहीं बन सकें, क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग समाज से बदला लेने की भावना से किया। बदले की भावना से किया गया कोई भी कार्य आपके समाज का हित नहीं कर सकता।
 
अगले पन्ने पर दसवां सबक जानिए...
 

शिक्षा का सदुपयोग जरूरी : समाज ने एक महान योद्धा कर्ण को तिरस्कृत किया था, जो समाज को बहुत कुछ दे सकता था लेकिन समाज ने उसकी कद्र नहीं की, क्योंकि उसमें समाज को मिटाने की भावना थी।
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कर्ण के लिए शिक्षा का उद्देश्य समाज की सेवा करना नहीं था अपितु वो अपने सामर्थ्य को आधार बनाकर समाज से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। समाज और कर्ण दोनों को ही अपने-अपने द्वारा किए गए अपराध के लिए दंड मिला है और आज भी मिल रहा है।
 
कर्ण यदि यह समझता कि समाज व्यक्तियों का एक जोड़ मात्र है जिसे हम लोगों ने ही बनाया है, तो संभवत: वह समाज को बदलने का प्रयास करता न कि समाज के प्रति घृणा करता।
 
अगले पन्ने पर ग्यारहवां सबक जानिए...
 

अच्छे दोस्तों की कद्र करो : ईमानदार और बिना शर्त समर्थन देने वाले दोस्त भी आपका जीवन बदल सकते हैं। पांडवों के पास भगवान श्रीकृष्ण थे तो कौरवों के पास महान योद्धा कर्ण थे। इन दोनों ने ही दोनों पक्षों को बिना शर्त अपना पूरा साथ और सहयोग दिया था। यदि कर्ण को छल से नहीं मारा जाता तो कौरवों की जीत तय थी।
 
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पांडवों ने हमेशा श्रीकृष्ण की बातों को ध्यान से सुना और उस पर अमल भी किया लेकिन दुर्योधन ने कर्ण को सिर्फ एक योद्धा समझकर उसका पांडवों की सेना के खिलाफ इस्तेमाल किया। यदि दुर्योधन कर्ण की बात मानकर कर्ण को घटोत्कच को मारने के लिए दबाव नहीं डालता, तो जो अमोघ अस्त्र कर्ण के पास था उससे अर्जुन मारा जाता।
 
अगर मित्रता करो तो उसे जरूर निभाओ, लेकिन मित्र होने का यह मतलब नहीं कि गलत काम में भी मित्र का साथ दो। अगर आपका मित्र कोई ऐसा कार्य करे जो नैतिक, संवैधानिक या किसी भी नजरिए से सही नहीं है तो उसे गलत राह छोड़ने के लिए कहना चाहिए।
 
जिस व्यक्ति को हितैषी, सच बोलने वाला, विपत्ति में साथ निभाने वाला, गलत कदम से रोकने वाला मित्र मिल जाता है उसका जीवन सुखी है। जो उसकी नेक राय पर अमल करता है, उसका जीवन सफल होता है।
 
अगले पन्ने पर बारहवां सबक जानिए...
 

भावुकता कमजोरी है : धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को लेकर जरूरत से ज्यादा ही भावुक और आसक्त थे। यही कारण रहा कि उनका एक भी पुत्र उनके वश में नहीं रहा। वे पुत्रमोह में भी अंधे थे।
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जरूरत से ज्यादा भावुकता कई बार इंसान को कमजोर बना देती है और वो सही-गलत का फर्क नहीं पहचान पाता। कुछ ऐसा ही हुआ महाभारत में धृतराष्ट्र के साथ, जो अपने पुत्रमोह में आकर सही-गलत का फर्क भूल गए।
 
 
 
प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि-
दुद्योगमन्विच्दति चाप्रमत्त:।
दु:खं च काले सहते महात्मा
धुरन्धरस्तस्य जिता: सपत्ना:।। -महाभारत
 
सरल भावार्थ : बुरे हालात या मुसीबतों के वक्त जो इंसान दु:खी होने की जगह पर संयम और सावधानी के साथ पुरुषार्थ, मेहनत या परिश्रम को अपनाए और सहनशीलता के साथ कष्टों का सामना करे, तो उससे शत्रु या विरोधी भी हार जाते हैं।
 
आपकी और हमारी जिंदगी में भी ऐसे तमाम मौके आते हैं जबकि हमें मुश्‍किलों का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग इस दौरान घबरा जाते हैं, कुछ दुखी हो जाते हैं और कुछ शुतुरमुर्ग बन जाते हैं और कुछ लोग अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। 
 
मानसिक रूप से दृढ़ व्यक्ति ही ऐसे हालात में शांतचित्त रहकर धैर्य और संयम से काम लेकर सभी को ढांढस बंधाने का कार्य करता है और इन मुश्किल हालात से सभी को बाहर निकाल लाता है। परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में आपसी टकराव, संघर्ष और कलह होते रहते हैं लेकिन इन सभी में संयम जरूरी है।
 
अगले पन्ने पर तेरहवां सबक...
 

शिक्षा और योग्यता के लिए जुनूनी बनो : व्यक्ति के जीवन में उसके द्वारा हासिल शिक्षा और उसकी कार्य योग्यता ही काम आती है। दोनों के प्रति एकलव्य जैसा जुनून होना चाहिए तभी वह हासिल होती है।
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अगर आप अपने काम के प्रति जुनूनी हैं तो कोई भी बाधा आपका रास्ता नहीं रोक सकती। एकलव्य इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जिन्होंने छिपकर वह सब कुछ सीखा, जो गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को सिखाते थे। एकलव्य की लगन और मेहनत का ही नतीजा था, जो वे अर्जुन से भी बेहतर धनुर्धर बन गए थे।
 
अगले पन्ने पर चौदहवां सबक जानिए...
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कर्मवान बनो : इंसान की जिंदगी जन्म और मौत के बीच की कड़ी-भर है। यह जिंदगी बहुत छोटी है। कब दिन गुजर जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा इसलिए प्रत्येक दिन का भरपूर उपयोग करना चा‍हिए। कुछ ऐसे भी कर्म करना चाहिए, जो आपके अगले जीवन की तैयारी के हों।
 
अत: इस जीवन में जितना हो सके, उतने अच्छे कर्म कीजिए। एक बार यह जीवन बीत गया, तो फिर आपकी प्रतिभा, पहचान, धन और रुतबा किसी काम नहीं आएंगे।
 
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अहंकार और घमंड होता है पतन का कारण : अपनी अच्छी स्थिति, बैंक-बैलेंस, संपदा, सुंदर रूप और विद्वता का कभी अहंकार मत कीजिए। अगर आप में ये खूबियां हैं तो ईश्वर का आभार मानिए। समय बड़ा बलवान है। धनी, ज्ञानी, शक्तिशाली पांडवों ने वनवास भोगा और अतिसुंदर द्रौपदी भी उनके साथ वनों में भटकती रही।
 
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कोई भी संपत्ति किसी की भी नहीं है : अत्यधिक लालच इंसान की जिंदगी को नर्क बना देता है। जो आपका नहीं है उसे अनीतिपूर्वक लेने, हड़पने का प्रयास न करें। आज नहीं तो कल, ईश्वर उसका दंड अवश्य ही देता है।
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आज जो तेरा है कल (बीता हुआ कल) किसी और का था और कल (आने वाला कल) किसी और का हो जाएगा। अत: तू संपत्ति और वस्तुओं से आसक्ति मत पाल। यह तेरी मृत्यु के बाद यहीं रखे रह जाएंगे। अर्जित करना है तो किसी का प्रेम अर्जित कर, जो हमेशा तेरे साथ रहेगा।
 
अगले पन्ने पर सत्रहवां सबक जानिए...
 

ज्ञान का हो सही क्रियान्वयन : शिष्य या पुत्र को ज्ञान देना माता-पिता व गुरु का कर्तव्य है, लेकिन सिर्फ ज्ञान से कुछ भी हासिल नहीं होता। बिना विवेक और सद्बुद्धि के ज्ञान अकर्म या विनाश का कारण ही बनता है इसलिए ज्ञान के साथ विवेक और अच्छे संस्कार देने भी जरूरी हैं।
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इसके अलावा वह ज्ञान भी निष्प्रयोजन सिद्ध होता है जिसे हासिल करने वाला व्यक्ति योग्य नहीं है अर्थात जिसका कोई व्यक्तित्व और कार्य करने की क्षमता नहीं है।
 
अगले पन्ने पर अठारहवां सबक जानिए...
 

दंड का डर जरूरी : न्याय व्यवस्था वही कायम रख सकता है, जो दंड का सही रूप में लागू करने की क्षमता रखता हो। यह चिंतन घातक है कि ‘अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं।’
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दुनियाभर की जेलों से इसके उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं कि जिन अपराधियों को सुधारने की दृष्टि से पुनर्वास कार्यक्रम चलाए गए, उन्होंने समाज में जाकर फिर से अपराध को अंजाम दिया है। अपराधी को हर हाल में दंड मिलना ही चाहिए। यदि उसे दंड नहीं मिलेगा, तो समाज में और भी अपराधी पैदा होंगे और फिर इस तरह संपूर्ण समाज ही अपराधियों का समाज बन जाएगा।
 
महाभारत में युधिष्ठिर दंड की बजाय क्षमा में विश्वास करते थे, लेकिन वे भी तब निराश हो गए जब दुर्योधन ने अपने वादे का पालन न करके राज्य में उनका हिस्सा नहीं लौटाया। 
 
युधिष्ठिर के अहिंसा में उनके विश्वास को देखते हुए युद्ध के बाद भीष्म को उन्हें उपदेश देना पड़ा कि राजधर्म में हमेशा दंड की जरूरत होती है, क्योंकि प्रत्येक समाज में अपराधी तो होंगे ही। दंड न देना सबसे बड़ा अपराध होता है।
 
महाभारत में अश्वत्थामा की कहानी में अपराध और सजा ही केंद्रीय तत्व है। आत्मविश्वास, शालीनता और निष्पक्षता- हर तरह से अश्वत्थामा बहुत अच्छा युवक था। द्रोण ऋषि के यहां जन्म लेने के कारण वह राजकुमारों के बीच पला-बढ़ा था। युद्ध की घोषणा होने के बाद उसने खुद को गलत पक्ष में पाया। वह पूरी निष्ठा से लड़ता है और कौरवों की पराजय को स्वीकार भी करता है।
 
हालांकि, पिता की धोखे से हुई हत्या पर वह बदले का संकल्प ले लेता है। वह पांडवों की विजेता सेना के सोने के बाद उनके शिविरों में आग लगा देता है। यह इतना जघन्य हत्याकांड है कि पांडवों के विजय के स्वर सुखांत से बदलकर विषाद और वैराग्य में बदल गए थे।
 
जब द्रौपदी को इस हत्याकांड में अपने पुत्रों की मौत का पता चलता है तो वह बदला लेने पर जोर देती है। अश्वत्थामा के पकड़े जाने पर उसके जघन्य अपराध की उचित सजा पर बहस होती है। वे सभी मानते हैं कि मौत की सजा तो दया दिखाने जैसा होगा। अंत में श्रीकृष्ण सजा सुनाते हैं:- ‘तुम इस धरती पर 3,000 साल तक अकेले, अदृश्य, रक्त और पीप की बदबू लिए भटकोगे।’

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