हिन्दू धर्मानुसार मरने के बाद आत्मा की मुख्यतौर पर तीन तरह की गतियां होती हैं- 1.उर्ध्व गति, 2.स्थिर गति और 3.अधोगति। इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है।
पहली बात तो यह कि आत्महत्या शब्द ही गलत है, लेकिन यह अब प्रचलन में है। आत्मा की किसी भी रीति से हत्या नहीं की जा सकती। हत्या होती है शरीर की। इसे स्वघात या देहहत्या कह सकते हैं। दूसरों की हत्या से ब्रह्म दोष लगता है लेकिन खुद की ही देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है। जिस देह ने आपको कितने भी वर्ष तक इस संसार में रहने की जगह दी। संसार को देखने, सुनने और समझने की शक्ति दी। जिस देह के माध्यम से आपने अपनी प्रत्येक इच्छाओं की पूर्ति की उस देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है। जरा सोचिए इस बारे में। आपका कोई सबसे खास, सगा या अपना कोई है तो वह है आपकी देह।
वैदिक ग्रंथों में आत्मघाती दुष्ट मनुष्यों के बारे में कहा गया है:-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।
तास्ते प्रेत्यानिभगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:।।
अर्थात: आत्मघाती मनुष्य मृत्यु के बाद अज्ञान और अंधकार से परिपूर्ण, सूर्य के प्रकाश से हीन, असूर्य नामक लोक को गमन कहते हैं।
अधर में लटक जाती आत्मा :
गरूड़ पुराण में जीवन और मृत्यु के हर रूप का वर्णन किया गया है। आत्महत्या को निंदनीय माना जाता है, क्योंकि धर्म के अनुसार कई योनियों के बाद मानव जीवन मिलता है ऐसे में उसे व्यर्थ गंवा देना मूर्खता और अपराध है।
कहते हैं कि जो व्यक्ति आत्महत्या करता है उसकी आत्मा हमारे बीच ही भटकती रहती है, न ही उसे स्वर्ग/नर्क में जाने को मिलता है न ही वह जीवन में पुन: आ पाती है। ऐसे में आत्मा अधर में लटक जाती है। ऐसे आत्मा को तब तक ठिकाना नहीं मिलता जब तक उनका समय चक्र पूर्ण नहीं हो जाता है। इसीलिए आत्महत्या करने के बाद जो जीवन होता है वो ज्यादा कष्टकारी होता है।
जीवन के चक्र को समझना जरूरी है : जैसे पूर्ण पका फल ही खाने योग्य होता है। जब फल पक जाता है तभी वह वृक्ष को त्याग कर खुद ही वृक्ष बनने की राह पर निकल पड़ता है। इसी तरह पूर्ण आयु जीकर मरा मनुष्य अच्छे जीवन के लिए निकल पड़ता है। कहते हैं कि मानव जीवन के 7 चरण होते हैं और प्राकृतिक प्रक्रिया के अनुसार, एक के पूरा होने के बाद ही दूसरी शुरू होती है। इसका सही समय और सही क्रम होता है। ऐसे में समय से पूर्व ही मृत्यु हो जाने से क्रम गड़बड़ हो जाता है। जिन व्यक्तियों की मृत्यु प्राकृतिक कारणों से होती है उनकी आत्मा भटकती नहीं और नियमानुसार उनके जीवन के 7 चरण पूरे हो चुके होते हैं। लेकिन जिन लोगों की मृत्यु, आत्महत्या करने के कारण होती है वो चक्र को पूरा न कर पाने के कारण अधर में रह जाते हैं।
मरने के बाद कब मिलता है दूसरा शरीर?
उपनिषद कहते हैं कि अधिकतर मौकों पर तत्क्षण ही दूसरा शरीर मिल जाता है फिर वह शरीर मनुष्य का हो या अन्य किसी प्राणी का। पुराणों के अनुसार मरने के 3 दिन में व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है इसीलिए तीजा मनाते हैं। कुछ आत्माएं 10 और कुछ 13 दिन में दूसरा शरीर धारण कर लेती हैं इसीलिए 10वां और 13वां मनाते हैं। कुछ सवा माह में अर्थात लगभग 37 से 40 दिनों में।
बहुत कम ऐसे लोग हैं जिन्हें 40 दिन बाद भी शरीर नहीं मिलता। उनमें से अधिकतर घटना, दुर्घटना में मारे गए या आत्महत्या वाले लोग ही ज्यादा होते हैं। ऐसे लोग यदि प्रेत या पितर योनि में चला गया हो, तो यह सोचकर 1 वर्ष बाद उसकी बरसी मनाते हैं। अंत में उसे 3 वर्ष बाद गया में छोड़कर आ जाते हैं। वह इसलिए कि यदि तू प्रेत या पितर योनि में है तो अब गया में ही रहना, वहीं से तेरी मुक्ति होगी।
किसे कहते हैं भूत : जिसका कोई वर्तमान न हो, केवल अतीत ही हो वही भूत कहलाता है। अतीत में अटका आत्मा भूत बन जाता है। जीवन न अतीत है और न भविष्य वह सदा वर्तमान है। जो वर्तमान में रहता है वह मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। आत्मा के तीन स्वरुप माने गए हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, तब उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।
इसी तरह जब कोई स्त्री मरती है तो उसे अलग नामों से जाना जाता है। माना गया है कि प्रसुता, स्त्री या नवयुवती मरती है तो चुड़ैल बन जाती है और जब कोई कुंवारी कन्या मरती है तो उसे देवी कहते हैं। जो स्त्री बुरे कर्मों वाली है उसे डायन या डाकिनी करते हैं। इन सभी की उत्पति अपने पापों, व्याभिचार से, अकाल मृत्यु से या श्राद्ध न होने से होती है। इसी तरह जब कोई पुरुष मरता है तो वह भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वेताल या क्षेत्रपाल हो जाता है।
अतृप्त आत्माएं बनती है भूत : जो व्यक्ति भूखा, प्यासा, संभोगसुख से विरक्त, राग, क्रोध, द्वेष, लोभ, वासना आदि इच्छाएं और भावनाएं लेकर मरा है अवश्य ही वह भूत बनकर भटकता है। और जो व्यक्ति दुर्घटना, हत्या, आत्महत्या आदि से मरा है वह भी भूत बनकर भटकता है। ऐसे व्यक्तियों की आत्मा को तृप्त करने के लिए श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। जो लोग अपने स्वजनों और पितरों का श्राद्ध और तर्पण नहीं करते वे उन अतृप्त आत्माओं द्वारा परेशान होते हैं।
अकाल मृत्यु क्या होती है?
अकाल का अर्थ होता है असमय। प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा या प्रकृति की ओर से एक निश्चित आयु मिली हुई है। उक्त आयु के पूर्व ही यदि व्यक्ति हत्या, आत्महत्याण, दुर्घटना या रोग के कारण मर जाता है तो उसे अकाल मौत कहते हैं। उक्त में से आत्महत्या सबसे बड़ा कारण होता है। शास्त्रों में आत्महत्या करना अपराध माना गया है। आत्महत्या करना निश्चित ही ईश्वर का अपमान है। जो व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है वह मृत्यु के उपरांत तुरंत ही प्रेत बनकर अनिश्चित काल के लिए भटकता रहता है। उसे उस दौरान अनेक कठिनाइयों को सहना होता है। पीड़ा और पछतावा ही उसके प्रेत जीवन का प्रसंग बन जाता है।
पं. श्रीराम शर्मा 'आचार्य' कहते हैं कि मरने के उपरांत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है।
पंडितजी का मानना है कि मरणोपरांत की थकान दूर करने के उपरांत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएं अपने मित्रों, शत्रुओं, परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशांति संबद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं।
यदि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अत्यन्त विवश होकर आत्महत्या कर रहा है तो उसकी कोई इच्छा अधूरी रह गई है या वह गहरे तनाव के कारण ऐसा कर रहा है। ऐसी आत्मा की मुक्ति मुश्किल होती है। मुक्ति का अर्थ है या तो नया शरीर मिल जाए या मोक्ष मिल जाए। संतों तक को मोक्ष नहीं मिलता तो सामान्य की बात अलग है। अत: परेशान या अतृप्त आत्मा मुक्ति नहीं हो पाती और वह भूत, प्रेत या पिशाच जैसी योनि धारण कर भटकती रहती है। वह कम से कम तब तक भटकती है जब तक की उसके मृत शरीर की निर्धारित उम्र पूर्ण नहीं हो जाती या फिर श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक कार्य से उसे मुक्ति नहीं मिलती।
आत्महत्या के बाद भी मिलता है नया जीवन
हिंदू धर्म अनुसार आत्महत्या करने के बाद भी व्यक्ति को जल्द ही दूसरा जन्म मिल सकता है लेकिन शर्त यह है कि उस व्यक्ति ने अपने जीवन में अच्छे कर्म किए हो और उसकी कोई इच्छा नहीं रही हो। ऐसा शांत चित्त व्यक्ति भी अपने अगले जीवन की यात्रा पर निकल सकता है। हालांकि उसे अपनी देह की उम्र का समय सूक्षात्मा के रूप में रहकर ही भूगतना होता है। लेकिन यहां यह स्पष्ट कर देना उचित है कि ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता। मोक्ष तो जन्म और मरण से मुक्त होकर अपने आनंदस्वरूप में स्थित होना होता है। आत्महत्या करने का अर्थ ही यही है कि आप अभी मानसिकरूप से परिपक्व नहीं हैं।
आत्महत्या के परिणामों से मुक्ति के उपाय :
गुरूड़ पुराण में आत्महत्या के कारणों से मृत आत्मा की शांति हेतु कई उपाय बताए गए हैं। इसमें मृत आत्मा हेतु तर्पण करना, सद्कर्म करना (दान, पुण्य और गीता पाठ), पिंडदान करना, मृत आत्मा की अधूरी इच्छा को पूर्ण करना प्रमुख है। यह कार्य कम से कम तीन वर्ष तक चलने चाहिए तभी मृत आत्मा को मुक्ति मिलती है। तर्पण करने, धूप देने आदि से मृत आत्माएं तृप्त होती है। तृप्त और संतुष्ट आत्माएं ही दूसरा शरीर धारण कर सकती है या वैकुंठ जा सकने में समर्थ हो पाती है।