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श्रीकृष्ण ने लड़े थे ये 10 प्रमुख युद्ध...

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अनिरुद्ध जोशी

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में कई युद्धों का संचालन किया। कहना चाहिए कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में युद्ध ही युद्ध किए। श्रीकृष्ण की जो रसिक बिहारी की छवि ‍निर्मित हुई, वह मध्यकाल के भक्त कवियों द्वारा निर्मित की गई है, क्योंकि वे अपने आराध्य को हिंसक मानने के लिए तैयार नहीं थे।
 

 
मध्यकाल के भक्तों ने श्रीकृष्ण के संबंध में कई मनगढ़ंत बातों का प्रचार किया और महाभारत के कृष्ण की छवि को पूर्णत: बदलकर रख दिया। उन्होंने कृष्ण के साथ राधा का नाम जोड़कर दोनों को प्रेमी और प्रेमिका बना दिया। उनका यह रूप आज भी जनमानस में व्यापक रूप से प्रचलित है।
 
श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का जिक्र महाभारत में कहीं भी नहीं मिलता है। इसके अलावा सबसे पुराने हरिवंश और विष्णु पुराण में भी राधा का जिक्र नहीं मिलता। भागवत पुराण में भी राधा का जिक्र नहीं है। दरअसल, ब्रह्मवैवर्त पुराण, गीत गोविंद और जनश्रुतियों में इसका जिक्र है। इसी के आधार पर भक्तिकाल के कवियों ने तिल का ताड़ बना दिया। ब्रह्मवैवर्त पुराण गुप्तकाल में लिखा गया माना जाता है।
 
खैर, हालांकि भगवान कृष्ण ने यूं तो कई असुरों का वध किया जिनमें पूतना, शकटासुर, कालिया, यमुलार्जन, धेनुक, प्रलंब, अरिष्ठ आदि। लेकिन हम आपको बताएंगे कि श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में कौन-कौन से युद्ध लड़े या उनका संचालन किया। उनमें से भी प्रमुख कौन से हैं। आओ जानते हैं, श्रीकृष्ण के प्रमुख 10 युद्धों के बारे में जानकारी...
 
युद्ध के बारे में जानने से पहले जानते हैं श्रीकृष्ण की शक्ति के स्रोत...
 

श्रीकृष्ण की शक्ति के स्रोत : भगवान श्रीकृष्ण 64 कलाओं में दक्ष थे। एक ओर वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे तो दूसरी ओर वे द्वंद्व युद्ध में भी माहिर थे। इसके अलावा उनके पास कई अस्त्र और शस्त्र थे। उनके धनुष का नाम 'सारंग' था। उनके खड्ग का नाम 'नंदक', गदा का नाम 'कौमौदकी' और शंख का नाम 'पांचजञ्य' था, जो गुलाबी रंग का था। श्रीकृष्ण के पास जो रथ था उसका नाम 'जैत्र' दूसरे का नाम 'गरुढ़ध्वज' था। उनके सारथी का नाम दारुक था और उनके अश्वों का नाम शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक था।
 
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श्रीकृष्ण के पास कई प्रकार के दिव्यास्त्र थे। भगवान परशुराम ने उनको सुदर्शन चक्र प्रदान किया था, तो दूसरी ओर वे पाशुपतास्त्र चलाना भी जानते थे। पाशुपतास्त्र शिव के बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास ही था। इसके अलावा उनके पास प्रस्वपास्त्र भी था, जो शिव, वसुगण, भीष्म के पास ही था।
 
अगले पन्ने पर पहला युद्ध...

कंस से युद्ध : कंस से युद्ध तो श्रीकृष्‍ण ने जन्म लेते ही शुरू कर दिया था। कंस के कारण ही तो श्रीकृष्ण को ताड़का, पूतना, शकटासुर आदि का बचपन में ही वध करना पड़ा। भगवान कृष्ण का मामा था कंस। वह अपने पिता उग्रसेन को राजपद से हटाकर स्वयं शूरसेन जनपद का राजा बन बैठा था। कंस बेहद क्रूर था। कंस अपने पूर्व जन्म में 'कालनेमि' नामक असुर था जिसे भगवान विष्णु अवतार श्रीराम ने मारा था।
 
कंस के काका शूरसेन का मथुरा पर राज था और शूरसेन के पुत्र वसुदेव का विवाह कंस की बहन देवकी से हुआ था। कंस अपनी चचेरी बहन देवकी से बहुत स्नेह रखता था, लेकिन एक दिन वह देवकी के साथ रथ पर कहीं जा रहा था, तभी आकाशवाणी सुनाई पड़ी- 'जिसे तू चाहता है, उस देवकी का 8वां बालक तुझे मार डालेगा।' बस इसी भविष्यवाणी ने कंस का दिमाग घुमा दिया।
 
कंस ने अपनी बहन और बहनोई वसुदेव को जेल में डाल दिया। बाद में कंस ने 1-1 करके देवकी के 6 बेटों को जन्म लेते ही मार डाला। 7वें गर्भ में श्रीशेष (अनंत) ने प्रवेश किया था। भगवान विष्णु ने श्रीशेष को बचाने के लिए योगमाया से देवकी का गर्भ ब्रजनिवासिनी वसुदेव की पत्नी रोहिणी के उदर में रखवा दिया। तदनंतर 8वें बेटे की बारी में श्रीहरि ने स्वयं देवकी के उदर से पूर्णावतार लिया। कृष्ण के जन्म लेते ही माया के प्रभाव से सभी संतरी सो गए और जेल के दरवाजे अपने आप खुलते गए। वसुदेव मथुरा की जेल से शिशु कृष्ण को लेकर नंद के घर पहुंच गए।
 
बाद में कंस को जब पता चला तो उसके मंत्रियों ने अपने प्रदेश के सभी नवजात शिशुओं को मारना प्रारंभ कर दिया। बाद में उसे कृष्ण के नंद के घर होने के पता चला तो उसने अनेक आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों से कृष्ण को मरवाना चाहा, पर सभी कृष्ण तथा बलराम के हाथों मारे गए।
 
तब योजना अनुसार कंस ने एक समारोह के अवसर पर कृष्ण तथा बलराम को आमंत्रित किया। वह वहीं पर कृष्ण को मारना चाहता था, किंतु कृष्ण ने उस समारोह में कंस को बालों से पकड़कर उसकी गद्दी से खींचकर उसे भूमि पर पटक दिया और इसके बाद उसका वध कर दिया। कंस को मारने के बाद देवकी तथा वसुदेव को मुक्त किया और उन्होंने माता-पिता के चरणों में वंदना की।
 
अगले पन्ने पर दूसरा युद्ध...
 

जरासंध से युद्ध : कंस वध के बाद जरासंध से तो कृष्ण ने कई बार युद्ध किया। जरासंध कंस का ससुर था इसलिए उसने श्रीकृष्ण को मारने के लिए मथुरा पर कई बार आक्रमण किया। जरासंध मगध का अत्यंत क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण के अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, कश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था। इसी कारण पुराणों में जरासंध की बहुत चर्चा मिलती है।
 
जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद (मथुरा) पर एक बार नहीं, कई बार चढ़ाई की, लेकिन हर बार वह असफल रहा। पुराणों के अनुसार जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
 
जरासंध के कई साथी राजा थे- कामरूप का राजा दंतवक, चेदिराज शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रुक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग, कोशल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज, गांधार का राजा सुबल, नग्नजित का राजा मीर, दरद देश का राजा गोभर्द आदि। महाभारत युद्ध से पहले भीम ने जरासंध के शरीर को 2 हिस्सों में विभक्त कर उसका वध कर दिया था।
 
अगले पन्ने पर तीसरा युद्ध...
 

कालयवन से युद्ध : पुराणों के अनुसार जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
 
कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा और युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने स्वीकार कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि इसी युद्ध के बाद श्रीकृष्ण का नाम रणछोड़ पड़ा।
 
कृष्ण और कालयवन का युद्ध हुआ और कृष्‍ण रण की भूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा।
 
उसने जैसे ही आंखें खोली और इधर-उधर देखने लगे, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे।
 
अगले पन्ने पर चौथा युद्ध...

कृष्ण और अर्जुन का युद्ध : कहते हैं कि एक बार श्रीकृष्ण और अर्जुन में द्वंद्व युद्ध हुआ था। यह श्रीकृष्ण के जीवन का भयंकर द्वंद्व युद्ध था। माना जाता है कि यह युद्ध कृष्ण की बहन सुभद्रा की प्रतिज्ञा के कारण हुआ था।
 
अंत में इस युद्ध में दोनों ने अपने-अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे, लेकिन देवताओं के हस्तक्षेप करने से ही वे दोनों शांत हुए थे।
 
अगले पन्ने पर पांचवां युद्ध...

शिव और कृष्ण का जीवाणु युद्ध : माना जाता है कि कृष्ण ने असम में बाणासुर और भगवान शिव से युद्ध के समय 'माहेश्वर ज्वर' के विरुद्ध 'वैष्णव ज्वर' का प्रयोग कर विश्व का प्रथम 'जीवाणु युद्ध' लड़ा था।
 
बलि के 10 पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र का नाम बाण था। बाण ने घोर तपस्या के फलस्वरूप शिव से अनेक दुर्लभ वर प्राप्त किए थे। वह शोणितपुर पर राज्य करता था। बाणासुर को भगवान शिव ने अपना पुत्र माना था इसलिए उन्होंने उसकी जान बचाने के लिए श्रीकृष्ण से युद्ध किया था। बाणासुर अहंकारी, महापापी और अधर्मी था।
 
कहते हैं कि इस युद्ध में श्रीकृष्ण ने शिव पर जृंभास्त्र का प्रयोग किया था। इस युद्ध में बाणासुर की जान बचाने की लिए स्वयं मां पार्वती जब सामने आकर खड़ी हो गईं, तब श्रीकृष्ण ने बाणासुर को अभयदान दिया।
 
युद्ध का कारण : दरअसल, बाणासुर की सुंदर कन्या उषा को अनिरुद्ध अपना दिल दे बैठे थे। श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का पुत्र अनिरुद्ध था। बाणासुर को जब यह पता चला तो उसने अनिरुद्ध और उषा दोनों को कारागार में डाल दिया। नारद ने श्रीकृष्ण से जाकर कहा- 'आपके पौत्र अनिरुद्ध को बाणासुर ने कारागार में डाल दिया है।' श्रीकृष्ण ने बलराम तथा प्रद्युम्न के साथ बाणासुर पर आक्रमण कर दिया। अंत में सबको परास्त कर श्रीकृष्ण, उषा और अनिरुद्ध को लेकर द्वारका पहुंच गए।
 
अगले पन्ने पर छठा युद्ध...

नरकासुर से युद्ध : नरकासुर को भौमासुर भी कहा जाता है। कृष्ण अपनी आठों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक द्वारिका में रह रहे थे। एक दिन स्वर्गलोक के राजा देवराज इंद्र ने आकर उनसे प्रार्थना की, 'हे कृष्ण! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। क्रूर भौमासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुंडल और देवताओं की मणि छीन ली है और वह त्रिलोक विजयी हो गया है।'
 
इंद्र ने कहा, 'भौमासुर ने पृथ्वी के कई राजाओं और आमजनों की अति सुन्दर कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने यहां बंदीगृह में डाल रखा है। कृपया आप हमें बचाइए प्रभु।'
 
इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरूड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के 6 पुत्रों- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया।
 
मुर दैत्य का वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला।
 
इस प्रकार भौमासुर को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागज्योतिष का राजा बनाया। भौमासुर द्वारा हरण कर लाई गईं 16,100 कन्याओं को श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया।
 
ये सभी अपहृत नारियां थीं या फिर भय के कारण उपहार में दी गई थीं और किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। वे सभी भौमासुर द्वारा पीड़ित थीं, दुखी थीं, अपमानित, लांछित और कलंकित थीं।
 
सामाजिक मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनाकर रखी गईं इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया और उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को श्रीकृष्ण अपने साथ द्वारिकापुरी ले आए। वहां वे सभी कन्याएं स्वतंत्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार सम्मानपूर्वक रहती थीं।
 
श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर किया था। इसी दिन की याद में दीपावली के ठीक एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी मनाई जाने लगी। मान्यता है कि नरकासुर की मृत्यु होने से उस दिन शुभ आत्माओं को मुक्ति मिली थी।
 
अगले पन्ने पर सातवां युद्ध...

महाभारत युद्ध : महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व हुआ था। तब श्रीकृष्ण 55 या 56 वर्ष के थे। हालांकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उनकी उम्र 83 वर्ष की थी। महाभारत युद्ध के 36 वर्ष बाद उन्होंने देह त्याग दी थी। इसका मतलब 119 वर्ष की आयु में उन्होंने देहत्याग किया था। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईपू में हुआ। श्रीकृष्ण ने यह युद्ध नहीं लड़ा था लेकिन उन्होंने इस युद्ध का संचालन जरूर किया था।
 
माना जाता है कि महाभारत युद्ध में एकमात्र जीवित बचा कौरव युयुत्सु था और 24,165 कौरव सैनिक लापता हो गए थे। लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, ‍जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। कलियुग के आरंभ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरंभ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था। इस युद्ध में ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था।
 
अगले पन्ने पर आठवां युद्ध...

चाणूर और मुष्टिक से युद्ध : श्रीकृष्‍ण ने 16 वर्ष की उम्र में चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया था। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था। कहते हैं कि यह मार्शल आर्ट की विद्या थी। पूर्व में इस विद्या का नाम कलारिपट्टू था।
 
जनश्रुतियों के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कलारिपट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। इसी कारण 'नारायणी सेना' भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।
 
श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली।
 
अगले पन्ने पर आठवां युद्ध...

कृष्ण-जाम्बवंत युद्ध : भगवान श्रीकृष्ण का जाम्बवंत से द्वंद्व युद्ध हुआ था। जाम्बवंत रामायण काल में थे और उनको अजर-अमर माना जाता है। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम जाम्बवती था। जाम्बवंतजी से भगवान श्रीकृष्ण को स्यमंतक मणि के लिए युद्ध करना पड़ा था। उन्होंने मणि के लिए नहीं, बल्कि खुद पर लगे मणि चोरी के आरोप को असिद्ध करने के लिए जाम्बवंत से युद्ध करना पड़ा था। दरअसल, यह मणि भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता सत्राजित के पास थी और उन्हें यह मणि भगवान सूर्य ने दी थी।
 
सत्राजित ने यह मणि अपने देवघर में रखी थी। वहां से वह मणि पहनकर उनका भाई प्रसेनजित आखेट के लिए चला गया। जंगल में उसे और उसके घोड़े को एक सिंह ने मार दिया और मणि अपने पास रख ली। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंत ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए, जहां उन्होंने इसको खिलौने के रूप में अपने पुत्र को दे दी। इधर सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर आरोप लगा दिया कि यह मणि उन्होंने चुराई है।
 
तब श्रीकृष्ण को यह मणि हासिल करने के लिए जाम्बवंत से युद्ध करना पड़ा। बाद में जाम्बवंत जब युद्ध में हारने लगे तब उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम को पुकारा और उनकी पुकार सुनकर श्रीकृष्ण को अपने राम स्वरूप में आना पड़ा। तब जाम्बवंत ने समर्पण कर अपनी भूल स्वीकारी और उन्होंने मणि भी दी और श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप मेरी पुत्री जाम्बवती से विवाह करें।
 
जाम्बवती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया। इस साम्ब के कारण ही कृष्ण कुल का नाश हो गया था। श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है अत: श्रीकृष्ण ने वह मणि अक्रूरजी को दे दी। उन्होंने कहा कि अक्रूर, इसे तुम ही अपने पास रखो। तुम जैसे पूर्ण संयमी के पास रहने में ही इस दिव्य मणि की शोभा है। श्रीकृष्ण की विनम्रता देखकर अक्रूर नतमस्तक हो उठे।

पौंड्रक-कृष्ण युद्ध : चुनार देश का प्राचीन नाम करुपदेश था। वहां के राजा का नाम पौंड्रक था। कुछ मानते हैं कि पुंड्र देश का राजा होने से इसे पौंड्रक कहते थे। कुछ मानते हैं कि वह काशी नरेश ही था। चेदि देश में यह ‘पुरुषोत्तम’ नाम से सुविख्यात था। इसके पिता का नाम वसुदेव था। इसलिए वह खुद को वासुदेव कहता था। यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था। कौशिकी नदी के तट पर किरात, वंग एवं पुंड्र देशों पर इसका स्वामित्व था। यह मूर्ख एवं अविचारी था।

पौंड्रक को उसके मूर्ख और चापलूस मित्रों ने यह बताया कि असल में वही परमात्मा वासुदेव और वही विष्णु का अवतार है, मथुरा का राजा कृष्ण नहीं। कृष्ण तो ग्वाला है। पुराणों में उसके नकली कृष्ण का रूप धारण करने की कथा आती है।

राजा पौंड्रक नकली चक्र, शंख, तलवार, मोर मुकुट, कौस्तुभ मणि, पीले वस्त्र पहनकर खुद को कृष्ण कहता था। एक दिन उसने भगवान कृष्ण को यह संदेश भी भेजा था कि ‘पृथ्वी के समस्त लोगों पर अनुग्रह कर उनका उद्धार करने के लिए मैंने वासुदेव नाम से अवतार लिया है। भगवान वासुदेव का नाम एवं वेषधारण करने का अधिकार केवल मेरा है। इन चिह्रों पर तेरा कोई भी अधिकार नहीं है। तुम इन चिह्रों एवं नाम को तुरंत ही छोड़ दो, वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’

बहुत समय तक श्रीकृष्ण उसकी बातों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे, बाद में उसकी ये सब बातें अधिक सहन नहीं हुईं। उन्होंने प्रत्युत्तर भेजा, ‘तेरा संपूर्ण विनाश करके, मैं तेरे सारे गर्व का परिहार शीघ्र ही करूंगा।'

यह सुनकर पौंड्रक कृष्ण के विरुद्ध युद्ध की तैयारी शुरू करने लगा। अपने मित्र काशीराज की सहायता प्राप्त करने के लिए वह काशीनगर गया। यह सुनते ही कृष्ण ने ससैन्य काशीदेश पर आक्रमण किया।

कृष्ण आक्रमण कर रहे हैं- यह देखकर पौंड्रक और काशीराज अपनी-अपनी सेना लेकर नगर की सीमा पर आए। युद्ध के समय पौंड्रक ने शंख, चक्र, गदा, धनुष, वनमाला, रेशमी पीतांबर, उत्तरीय वस्त्र, मूल्यवान आभूषण आदि धारण किया था एवं वह गरूड़ पर आरूढ़ था।

नाटकीय ढंग से युद्धभूमि में प्रविष्ट हुए इस ‘नकली कृष्ण’ को देखकर भगवान कृष्ण को अत्यंत हंसी आई। इसके बाद युद्ध हुआ और पौंड्रक का वध कर श्रीकृष्ण पुन: द्वारिका चले गए।

बाद में बदले की भावना से पौंड्रक के पुत्र सुदक्षण ने कृष्ण का वध करने के लिए मारण-पुरश्चरण किया, लेकिन द्वारिका की ओर गई वह आग की लपट रूप कृत्या ही पुन: काशी में आकर सुदक्षणा की मौत का कारण बन गई। उसने काशी नरेश पुत्र सुदक्षण को ही भस्म कर दिया।

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