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रियलिटी शो के झूठे सच

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स्मृति आदित्य

पिछले दस वर्षों में भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने "फ्रीडम" के नाम पर जो "लिबर्टी" ली है, वह निहायत ही शर्मनाक है। लोकतांत्रिक मूल्यों का ऐसा विघटन देश और जनता दोनों के लिए घातक है। साथ ही राष्ट्र के चतुर्थ स्तंभ की भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। अब तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बचकानी हरकतों को यह कहकर बचाया जाता रहा है कि वह अभी तक शैशवावस्था में है, उसे परिपक्व होने में समय लगेगा, लेकिन कब तक?

पिछले दिनों रियलिटी शो के बहाने टीआरपी बटोरने की कुत्सित प्रतिस्पर्धा ने इस कदर जोर पकड़ा कि सनसनी को बेचना ही जैसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का मुख्य धर्म बन गया है। पत्रकारिता के पवित्र मूल्यों में गिरावट का यह आलम है कि क्या दिखाया जाए और दर्शक क्या देखना चाहता है, के बीच की महीन रेखा अब विलुप्त ही हो चली है। इसका सबसे अफसोसनाक और घटिया उदाहरण है "राखी का स्वयंवर" और "सच का सामना" जैसे शो। "सच का सामना" में तो पूर्व असफल क्रिकेटर विनोद कांबली ने अपने बचपन के दोस्त सचिन तेंडुलकर पर ही आरोप लगा दिया कि बुरे दिनों में सचिन ने उनका साथ नहीं दिया।

यह "सच" का कैसा "सामना" है कि हम "सच" नहीं जानते कि यह बात मीडिया द्वारा विनोद के मुँह में डालकर पर्दे पर निकलवाई गई है या खुद विनोद ने अपने फ्रस्ट्रेशन का जहर इस तरह उगला है। सच जो भी हो, मीडिया की तो चल निकली। दो दिनों तक सारे चैनल्स इस स्टोरी पर "खेलते" रहे। आखिर मास्टर ब्लास्टर सचिन मीडिया के सबसे बड़े आइकॉन जो हैं।

मीडिया की नैतिक जवाबदेही किसके प्रति है और किसके प्रति होनी चाहिए, इस प्रश्न पर सिर धुनने के लिए आम जनता है ना। आम जनता भी कहाँ एक है वह भी तो टुकड़ों में बँटी-बिखरी है। इनमें वे मासूम दर्शक भी तो शामिल हैं जो मीडिया के सच को ही सच मानते हैं। या कहें कि "सूचना" पर उनका इतना ही "अधिकार" है कि उसी को उन्हें सच मानना है, मानना पड़ेगा। हमारा ये "तथाकथित" अबोध और "बाल" मीडिया जनता की इसी मजबूरी का फायदा उठा रहा है।

कल तक नाग-नागिनों के जोड़े, पत्तों पर रहस्यमयी धारियाँ और प्रेमी-प्रेमिका मिलन-बिछोह के कपोल कल्पित किस्से सुनाने वाला मीडिया अब वास्तविक जिंदगी को चटखारे लेकर परोस रहा है और बदले में टीआरपी वसूल रहा है। वह अपने इस अभियान में कामयाब हो रहा है, क्योंकि जानता है कि उसके हाथ में शक्ति है किसी की भी छवि बनाने और बिगाड़ने की। शर्मनाक पहलू यह है कि नकारात्मक व्यक्तित्वों की छवि को निखारना और उजले पक्ष वाले सकारात्मक लोगों की छवि को ध्वस्त करने जैसे कृत्य भी इसके द्वारा कर दिए जाते हैं।

राखी सावंत के शो को कोई चैनल इतने प्यार से पेश कर रहा है कि राखी, राखी न हुई कोई अप्सरा हों वहीं किसी दूसरे चैनल ने उसका स्टिंग ऑपरेशन इस खूबी के साथ रखा कि सारी टीआरपी मुँह के बल आ गिरी। लेकिन हद तो तब हो जाती है जब राखी इस भ्रम के साथ सामने आती हैं जैसे दर्शकों की स्मरण शक्ति पर ताले पड़ गए हों। मानो वे नहीं जानते कि मीडिया में बने रहने के लिए राखी अतीत में कब-कब, किस-किस हद तक जा चुकी हैं।

आखिर कब तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की छिछोरी हरकतों पर हम कसमसाते रहेंगे? कब तक रियलिटी शो के नाम पर परोसे जाने वाले झूठ देख-देखकर हम सच की गलत परिभाषाओं से रूबरू होते रहेंगे? कब तक मीडिया अपने छवि निर्माण और छवि ध्वंस के हथियार का मनमाना इस्तेमाल करता रहेगा और हमारे नैतिक मूल्य घायल होते रहेंगे? कब तक?

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