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मुलाक़ात : डॉ. एम. शफ़ी

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- अज़ीज़ अंसारी

सवाल- अपनी पैदाइश, बचपन और इब्तिदाई तालीम के बारे में हमें बताइए।
जवाब- पैदाइश की तारीख़ है उन्नीस जून 1950, मेरे नाना झाँसी के रहने वाले थे। वे मशहूर कांग्रेसी लीडर और जंगे आज़ादी के सिपाही थे। मेरा बचपन यहीं गुज़रा। हायर सेकंडरी तक मेरी तालीम यहीं हुई। बी.ए. सागर यूनिवर्सिटी से और एम.ए.( उर्दू ), बुन्देलखंड यूनिवर्सिटी से पास किया। पीएच.डी.(उर्दू) और डीलिट्‍ (हिन्दी) सागर यूनिवर्सिटी से पास करने का मौक़ा मिला।

सवाल- बचपन की कुछ अहम यादें, अगर याद हों तो, बताइए।
जवाब- मेरा बचपन झाँसी और महोबा में गुज़रा। दोनों मक़ाम का माहौल एकदम अलग था। महोबा का माहौल अदबी और झाँसी का माहौल सियासी था। झाँसी में लक्ष्मी टॉकीज़ के पीछे नाना का एक बड़ा मकान पीली कोठी के नाम से मशहूर था। लोग आते-जाते रहते थे। काले ख़ाँ नाम का नौकर दिनभर चाय बनाता रहता था। नानाजी के दोस्तों में जंगे आज़ादी के मशहूर सिपाही पंडित परमानंदजी, सदाशिव राव मलकापुरकर, लक्ष्मणराव कदम, पंगोरियाजी, रतनलाल गुप्ता, चौधरी मंसूर, शेर ख़ान वग़ैरा थे।

आसपास के बड़े नेता भी अक्सर आ जाया करते थे। इन सबकी बातें सुनने और इनकी ख़िदमत करने का मौक़ा मुझे मिला। आज़ादी के मशहूर जाँबाज़ चन्द्रशेखर आज़ाद की जो मशहूर तस्वीर मूँछों पर बल देते हुए है वह मास्टर रुद्रनारायणजी ने खींची थी। उन्होंने मेरी भी एक तस्वीर खींची थी जो अब तक मेरे पास मौजूद है। चन्द्रशेखर आज़ाद ने साधु के वेश में ओरछा के पास एक कुटिया में कुछ दिन गुज़ारे थे, उसकी चर्चा भी अक्सर वहाँ होती थी।

हाईस्कूल की तालीम के लिए मुझे महोबा भेजा गया। यहाँ माहौल एकदम अदबी था। महोबा में और महोबा के आसपास होने वाले मुशायरों में वालिद साहब का हाथ ज़रूर हुआ करता था। शकील बदायुँनी, ख़ुमार बाराबंकवी, फ़ना निज़ामी कानपुरी, बेकल उत्साही, शमसी मीनाई वग़ैरा न जाने कितने शायरों की मेहमाननवाज़ी करने का शरफ़ हासिल हुआ।

यह भी बताता चलूँ कि मैथिलीशरण गुप्त मेरे नाना के अच्छे दोस्त थे और पड़ोसी थे। कहने का मतलब यह कि ऐसा शायराना माहौल मिला कि ख़ुद भी शेर कहने लगा। झाँसी आया तो यहाँ हॉकी से वास्ता पड़ा। अच्छे-अच्छे खिलाडि़यों के साथ हॉकी खेली। कॉलेज के जलसों में ख़ूब हिस्सा लिया। शायरी तो पहले ही करने लगा था। प्रिंसिपल ने उस वक़्त मुझे शायर ए आज़म का ख़िताब दिया था।

सवाल- डॉ. शफ़ी आप बड़े ख़ुशनसीब हैं, आपको बचपन में बहुत अच्छा माहौल मिला। अब हमें कुछ मआशी हालात के बारे में बताइए।
जवाब- 1965 में नाना का इंतेक़ाल और फिर महोबा में कारोबार में नुक़सान से हालात एकदम ख़राब हो गए। मुझे तालीम छोड़ देना पडी। झाँसी से महोबा आ जाना पड़ा। न चाहते हुए बिजली बोर्ड में सर्विस करना पडी। बाबूजी ने हिम्मत से काम लिया अपना कारोबार बदल दिया। बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दिया और सबको ग्रेज्यूएट बनाया। मेरी नौकरी से भी सहारा मिला। हालात फिर अच्छे हो गए। जो लोग दूर हो गए थे फिर क़रीब आने लगे।

सवाल- अपने कॉलेज की कुछ दिलचस्प बातें बताइए।
जवाब- कॉलेज में हमेशा स्टेज की ज़ीनत रहा। लड़कियों से बहुत दोस्ती रही। दोस्ती में हमेशा अपनी हद को पहचाना। कभी उससे आगे जाने की कोशिश नहीं की। इसलिए कॉलेज और मोहल्ले में सबका प्यारा बना रहा। इश्क़ में कभी सिसकियाँ नहीं भरीं। शादी के बाद भी यही सिलसिला रहा, जो चाहा हमेशा मिला।

सवाल- शादी की बात चली है तो कुछ शादी के बारे में बताइए।
जवाब- 29 दिसम्बर 1974 को गोरखपुर के जनाब अहमद हुसैन की ज़हीन और ग्रेज्यूएट लड़की से मेरी शादी वाल्दैन और मेरी पसन्द से हुई। घर में छ: छोटी बहनें और दो छोटे भाई भी थे। शादी हो जाने पर भी मैंने घर की ज़िम्मेदारियों को समझा और सब भाई-बहनों को अच्छी तालीम दिलवाई।

सवाल- आपकी अदबी ख़िदमत का सिलसिला तो स्कूल, कॉलेज से ही शुरू हो गया था, फिर ये सिलसिला आगे कैसे बढ़ा।
जवाब- 5 सितम्बर 1980 को बुरहानपुर के सेवा सदन कॉलेज में, सद्र शोबए उर्दू की नौकरी इख़तियार की। महफ़िलों में शिरकत शुरू हो गई। आकाशवाणी से दावतनामे आने लगे। इन्दौर और दीगर शहरों में आना-जाना शुरू हो गया। उर्दू-हिन्दी के मेल-मिलाप की बातें बहुत की जाती हैं।

मगर शायद मैं पहला आदमी हूँ जिसने उर्दू में पीएच.डी. और हिन्दी में डी.लिट्‍ हासिल की है। कोई बड़ा इनाम शायद इसलिए नहीं मिला कि मुझसे नेताओं और अफ़सरों की हाँ-हुज़ूरी नहीं होती। उर्दू अकादमी में भी यही सब कुछ होता है। ख़ुद्दार लायक़ आदमी हमेशा इन बातों से दूर रहते हैं। मैं मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी, भोपाल के कामों से क़तई मुतमइन नहीं हूँ।

सवाल- कुछ उर्दू के बारे में बताइए।
जवाब- उर्दू बहुत अच्छी ज़ुबान है। इसे सब लोग पसन्द करते हैं। अगर उर्दू वाले ईमानदारी से उर्दू के फ़रोग़ में हिस्सा लें तो इसकी तरक़्क़ी को कोई नहीं रोक सकता। इसका मुस्तक़बिल ताबनाक है। कम्प्यूटर के इंक़िलाब ने उर्दू को भी दुनिया की सभी ज़ुबानों के बराबर खड़ा कर दिया है। अब ये उर्दू वालों की ज़िम्मेदारी है कि इसके क़द को छोटा न होने दें।

सवाल- अपनी तख़लीक़ात के बारे में कुछ बताएँ।
जवाब- 1. ग़ुबार ए दिल (ग़ज़लें, दोहे, नज़्में)
2. सिलवर किंग (ड्रामा और उस पर तबसिरा)
3. नज़ीर की मुनतख़िब नज़्में (नज़ीर की नज़्मों का इंतिख़ाब और तबसिरा)
4. मज़ामीन ए शफ़ी (मेरे लिखे मज़ामीन का मजमूआ)
5. नई रोशनी (तालीम ए बालिग़ान की किताब)

हाल ही में अकादमी के मैगज़ीन तमसील में एक अफसाना 'बाज़गश्त' के नाम से शाए हुआ है। इसी तरह लिख़ना-पढ़ना, सीख़ना-सिखाना चल रहा है। उर्दू और हिन्दी दोनों ज़ुबानों को क़रीब लाने की कोशिशें जारी हैं। कुछ हिन्दी वाले उर्दू सीखने आते हैं, तो कुछ उर्दू वालों को हिन्दी सिखा रहा हूँ।

आपका शुक्रिया

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