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वेलेंटाइन डे विशेष : हां, मैं प्रेम में हूं....!

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-शैली बक्षी खडकोतकर
 
आग्रह है तुम्हारा कि कहूं, “मैं प्रेम में हूं”
 
हां, मैं कहना चाहती हूं, “मैं प्रेम में हूं”
 
तोड़ देना चाहती हूं, अभिजात्य मौन की स्वयंभू वर्जनाएं.... 
करना चाहती हूं, सस्वर उद्घोष कि चराचर सृष्टि, नाद के इस कोलाहल में आकंठ डूब जाए... 
 
मन के मुक्ताकाश पर फहराती तुम्हारी नाम पताका दूर क्षितिज से देख सके सब... 
 
अंतस सागर में जो हिलोर उठे उस पर तुम्हारी चांदनी का प्रतिबिंब इतना स्पष्ट हो कि हर आकुल ह्रदय को उसमें अपनी छवि दिख जाए.... 
 
हां, मैं कहना चाहती हूं, “मैं प्रेम में हूं..... ......... 
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कहा भी था एक बार हौले से... दहकते पलाश के कानों में। न जाने क्यों कुछ ज्यादा ही सुर्ख हो आई है, तब से उसकी मखमली पंखुडियां। मानो रंग की शोखी से खोल देना चाहता हो, सारे राज़। 
 
अमराई में कूकती कोयल ने चोरी से सुन ली थी, उस खुशगवार भोर में ह्रदय वीणा की गूढ़ बंदिशें। बावरी, उस क्षण से वही राग आलापती फिरती है.. 
 
और उस दिन वासंती बयार ने सहलाकर पूछी थी, व्याकुल मन की व्यथा। प्रिय सखी के आंचल में आश्वस्त भाव से उड़ेल दिए थे, महकते मन-कचनार। खिलती-खिलखिलाती पुष्प निधि सहेजना इस अभिशप्त गन्धर्वकन्या के बस में कहां था... बिखेर आई, रूप-गंध यहां-वहां.... 
 
हां, मैं कहना चाहती हूं “मैं प्रेम में हूं.... 
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पर किसे कहूं?
 
जब सम्पूर्ण सृष्टि तो इस प्रेम आख्यान का परायण-सा करती प्रतीत होती हो,
 
दसों दिशाओं से यही प्रतिध्वनि सुनाई देती हो,
 
पंचमहाभूत स्वयं इस महायज्ञ में आहुति देने उपस्थित हो, 
 
तो कहो कौन शेष रहता है, मेरे इस मधुर रहस्य का साझीदार बनने के लिए... 
 
निसहाय मैं पुन: अपरिभाषेय मौन की कन्दरा में शरण लेती हूं... नि:शब्द, हठात!
 
पर सच! मैं कहना चाहती हूं, किसी दिन “मैं प्रेम में हूं....”
 
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