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मातृशक्ति के वंदन का पर्व है दुर्गापूजा, विचारोत्तेजक आलेख

हमें फॉलो करें मातृशक्ति के वंदन का पर्व है दुर्गापूजा, विचारोत्तेजक आलेख
, सोमवार, 29 सितम्बर 2014 (12:03 IST)
डॉ. मोनिका शर्मा   
आंगन की रौनक बेटियां सुरक्षित रहे तो सार्थक है पर्व 
 
 
दुर्गापूजा पर्व नारी के सम्मान, सार्मथ्य और स्वाभिमान की सार्वजनिक स्वीकृति का पर्व है। इसमें नारी की मातृशक्ति की उपासना सबसे ऊपर है। उस मान का सर्वोच्च दर्ज़ा जो एक स्त्री को जीवनदात्री के रूप में मिलता है। यह पर्व स्त्रीत्व के हर रंग के साथ ही शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा की आराधना ममता, क्षमा और न्याय का भाव भी लिए है। 


 

 
मातृशक्ति के वंदन का पर्व- 
शक्ति को साधने का उत्सव है दुर्गापूजा। नवरात्रि नवचेतना और नवजागरण का पर्व भी है। अपनी समस्त ऊर्जा का सर्मपण कर मां से यह आव्हान करने का कि वो नई शक्ति और सोच का संचार करे। यह एक ऐसा महापर्व है जो हमें आस्था और विश्वास के ज़रिए अपनी ही असीम शक्तियों से परिचय करवाने का माध्यम भी बन सकता है। यूं तो नारी की प्रखरता और शक्ति सार्मथ्य का नाम ही दुर्गा है पर जिम्मेदारियों और सामाजिक बंधनों में जकड़ी महिलाएं अपने ही सार्मथ्य से अपरिचित रहती हैं। ऐसे में महिलाएं मां का आव्हान कर आज के दौर में परिस्थितियों से जूझने का साहस और संबल जुटाएं। ना केवल मां की साधना करें बल्कि उनके शक्तिस्वरूपा और जाग्रत रूप को अपने भीतर स्थान दें। मन की शक्ति के उपार्जन का यह पर्व मातृशक्ति की उपासना को सर्वोच्च दर्जा देता है। यूं भी भारतीय संस्कृति में मातृशक्ति को प्राणशक्ति माना गया है और उसका स्थान सबसे ऊपर है। 
 
स्वीकारें बेटियों का अस्तित्व- 
नवरात्रि में छोटी छोटी बच्चियों को कंजकों के रूप में पूजने को रिवाज है। माँ दुर्गा का स्वरूप मानकर उनका पूजन किया जाता है। यह रीत हमारे समाज में, संस्कारों, में बेटियों को दिए माननीय स्थान को रेखांकित करती है। माना जाता है कि इन कन्याओं के रूप में मां स्वयं आकर भोजन ग्रहण करती हैं। संसार के सृजन, पालन और इसे जीवंत बनाए रखने वाली मां शक्ति को नमन करने का यह पूजन पर्व बेटियों के अस्तित्व का मान और स्वीकार्यता देने का संदेश देता है। बेटियां तो वे दीपक हैं जिनसे मायका और ससुराल दोनों का आंगन रौशन होता है। बेटियां हर किसी के जीवन में रंग ही भरती हैं। बावजूद इसके वे हमारे समाज और परिवार में लक्ष्मी का रूप मानी तो जाती हैं पर वो दिल से स्वीकारी नहीं जातीं। नवरात्रि में किया जाने वाला कन्या पूजन आज के दौर में बेटियों को सम्मान देने और उनके अस्तित्व को स्वीकारनें की प्ररेणा देने वाला है। इतना ही नहीं उनके सुनहरे भविष्य के चिंतन के लिए भी समाज को सद्मार्ग दिखाने वाला त्योहार है। 

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परंपरा निर्वहन के पावन दिन-  
महाशक्ति देवी भगवती की उपासना के यह नौ दिन परंपरा के निर्वहन के गहरे अर्थ लिए हैं। माना जाता है कि देवी जीवन की जड़ता को दूर करती है। हमारे जीवन में धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषमता को दूर कर समाज और जीवन दोनों में संतुलन स्थापित करती है। जीवन में सुख समृद्धि और समझ की नींव रखता है। ये पावन नौ दिन परिवार, समाज और देश को संस्कारवान और संवेदनशील बनने का संदेश देते हैं। स्त्री को शक्तिरूपा, ज्ञानरूपा और मातृरूपा, हर रूप में स्वीकार्यता दिलाने को पर्व है। नौ दिन तक चलने वाली माँ शक्ति की आराधना केवल धार्मिक कर्मकांड भर नहीं है। ये समय तो नकारात्मक वृत्तियों से दूर हो खुद को परिस्कृत करने का है। सही और गलत का बोध करवाने वाले इन पावन नौ दिनों में नारी शक्ति की दिव्यता का पूजन किया जाता है। 
 
सम्मान ही नहीं तो सशक्तीकरण कैसा-
जिस समाज की सोच इतनी असंवेदनशील है कि बेटियों को जन्म ही ना लेने दे वहां उन्हें  शिक्षित, सशक्त और सुरक्षित रखने के दावे तो दावे भर ही रह जाते हैं। यह दुखद ही है कि हमारे समाज में बटियों का वंदन है तो मानमर्दन भी है। ऐसे में नवरात्रि का पावन अवसर घर घर में यही सार्थक संदेश देता है कि बेटियों का सम्मान ही नहीं तो उनका सशक्तीकरण कैसे होगा? बेटियां जो भविष्य की मां,बहन,या पत्नी हैं । इनको मान देने की शुरूआत अपने घरों से ही हो। बेटियां समाज की साझी होती हैं। इसीलिए उनमें कोई भेदभाव ना किया जाए। 
 
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ये है कड़वी हकीकत- 
देश का सबसे बड़ा जनसांख्यिकीय सर्वेक्षण बताता है कि आज भी समाज में बेटियां जन्म लेने से लेकर परवरिश पाने तक हर तरह के भेदभाव का शिकार हैं। वर्ष 1961 की जनगणना से लेकर वर्ष 2011 की जनगणना तक छह साल तक की बच्चियों की संख्या में लगातार गिरावट आई है। 1961 में जहां प्रति हज़ार पुरूषों पर महिलाओं की संख्या 976 थी वहीं 2011 में यह 914 पर आकर ठहर गई है। विकराल रूप धरती जा रही भ्रूण हत्या की समस्या इस तरह तो पूरी सृष्टि के विकास पर ही प्रश्नचिन्ह लगाती नज़र आ रही है। अब वार्षिक आंकड़ों के अनुसार 1000 बेटों के मुकाबले 906 बेटियाँ ही जन्म ले पा रही हैं। विचारणीय यह भी है कि भ्रूणहत्या और लिंगभेद के खिलाफ तमाम सरकारी अभियानों और समाजिक जागृति लाने के प्रयासों के बावजूद ये तथ्य सामने आए हैं। ऐसे में मातृशक्ति के पूजन वंदन की सार्थकता तभी है जब हर घर के आंगन की रौनक बेटियां सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें।  

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