सामान्य श्वसन क्रिया (टाइटल रेस्पिरेशन) में फेफड़े के सिर्फ 20 प्रतिशत भाग को ही कम करना पड़ता है। शेष हिस्से निष्क्रिय से रहते हैं और नैसर्गिक रूप से इस निष्क्रिय से हिस्सों में रक्त का प्रवाह भी अत्यंत मंद रहता है। सामान्य श्वसन क्रिया में फेफड़े के मध्य भाग को ही कार्य मिलता है। यदि हम प्रतिदिन व्यायाम न करें, तो वायुकोषों को पर्याप्त ताजी हवा और बेहतर रक्त प्रवाह से वंचित रह जाना पड़ता है। यही वजह है कि जब हम सीढ़ियाँ या छोटा सा पहाड़ चढ़ते हैं या दौड़ लगा लेते हैं, तो बुरी तररह हाँफने लगते हैं, क्योंकि आलसी हो चुके करोड़ों वायुकोष बेचारे कितना दम मारेंगे? गुरुत्वाकर्षण के कारण और गहरी साँस न लेने के कारण फेफड़े के शीर्षस्थ भाग में रक्त प्रवाह काफी कम होने से ट्यूबरकुलोसिस जैसी गंभीर बीमारी सबसे पहले फेफड़ें के शीर्षस्थ भाग को अपनी गिरफ्त में लेती है।
जब प्राणायाम करते हैं, तो डायफ्राम सात सेंटीमिटर नीचे जाता है, पसलियों की माँसपेशियाँ भी ज्यादा काम करती हैं। इस तरह फेफड़े में ज्यादा हवा प्रवेश करती है यह सामान्य की तुलना में लगभग चार-पाँच गुना होती है यानी सभी 100 प्रतिशत वायुकोषों को भरपूर ताजी हवा का झोंका लगातार आनंदित करता है, साथ ही रक्त का प्रवाह भी बढ़ जाता है। इसी तरह दोनों फेफड़ों के बीच बैठा हृदय सब तरफ से दबाया जाता है, परिणाम स्वरूप इसको भी ज्यादा काम करना ही पड़ता है। इस तेज प्रवाह के कारण वे कोशिकाएँ भी पर्याप्त रक्तसंचार, प्राणवायु और पौष्टिक तत्व से सराबोर हो जाती हैं, जिन्हें सामान्य स्थिति में व्रत-सा करना पड़ रहा था। नैसर्गिक रूप से वहाँ मौजूद विजातीय पदार्थ भी हटा दिए जाते हैं।
यह तो सीने में हो रहे परिवर्तन की बात हुई। अब जो उदर में हो रहा है, उसकी दास्तान जान लेते हैं। डायफ्राम जैसी मजबूत और मोटी माँसपेशी तथा नीचे कूल्हे की हड्डियों के बीच की जगह में लीवर, अग्नाशय और 30 फुट लम्बा पाचन तंत्र, पैंक्रियाज, स्प्लीन, गुर्दे, एड्रिनल ग्लैंड्स, मूत्राशय, मलाशय और स्त्रियों के मामले में गर्भाशय और अण्डाशय आदि होते हैं। जब डायफ्रॉम सात सेंटीमीटर नीचे आता है, तो इन सबकी स्थिति बेचारों जैसी होती है, आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ? पैरों में जा नहीं सकते। एक ही रास्ता बचता है, वह यह कि हर बार सभी अंग कुछ-कुछ सिकुड़े ताकि डॉयफ्राम को 5-6 सेंटीमीटर ज्यादा जगह मिल सके। ऐसी स्थिति में यदि भस्त्रिका या अग्निसार किया जाए, तो मामला और भी मुश्किल हो जाता है। उदर की दीवार (एंटीरियर एब्डामिनल वॉल) भी आगे जगह देने की बजाय दबाव डालने लगती है। इस आंतरिक मालिश के परिणाम स्वरूप उदर के ये तमाम अंग तेज रक्त संचार, ताजी प्राणवायु और पौष्टिक तत्वों से अनायास या बिना प्रयास लाभान्वित हो जाते हैं।
सभी अंगों के क्रियाकलाप सम्यक रूप से होने लगते हैं। ग्रंथियों से रसायन समुचित मात्रा में निकलते हैं, विजातीय पदार्थ हटा दिए जाते हैं, तेज प्रवाह बैक्टीरिया को रास नहीं आता, पर्याप्त भोजन प्राणवायु मिलने से कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है, बोन मेरो में नए रक्त का निर्माण बढ़ जाता है। आँतों में जमा मल विसर्जित होने लगता है। खाया-पीया अंग लगने लगता है, अंत: स्मरण शक्ति, सोचने-समझने और विश्लेषण की शक्ति बढ़ने लगती है। धैर्य और विवेकशीलता में वृद्धि होने लगती है, अत: स्मरण शक्ति, सोचने-समझने और विश्लेषण की शक्ति बढ़ने लगती है। धैर्य और विवेकशीलता में वृद्धि होने लगती है। क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, मद धीरे-धीरे अपने अस्तित्व के लिए तरसने लगते हैं। निष्कर्ष यह कि आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति की जो परिभाषा दी है, वह जीवन में घटित हो जाती है, 'प्रसन्नत्मेन्द्रियमना स्वस्थ्य इत्यभिधयते' अर्थात शरीर, इन्द्रियाँ, मन तथा आत्मा की प्रसन्नतापूर्ण स्थिति ही स्वास्थ्य है।