आखिर यह विरोध क्यों : दरअसल योग यथार्थ में जीने की शिक्षा देता है, ईश्वर को वह कर्ता-धर्ता और नियंता नहीं मानता। वह मनुष्य को मनुष्य से बढ़कर कुछ बनाने के लिए क्रमबद्ध विधि बताता है। तन से मन और मन से आत्मा तक के सफर की योग ने सीढ़ियाँ निर्मित कर दी हैं, जबकि धर्म ने सत्य को जानने के कई तरह के कठिन और डरावने मार्ग निर्मित कर दिए हैं।योग से उन तमाम लोगों की दुकानदारी खत्म होने का खतरा बढ़ जाता है जो मनुष्य के दुःख पर निर्मित हैं। यदि लोग बीमार न होंगे तो अस्पताल, मेडिकल और इनसे जुड़े तमाम धंधे पिटने लगेंगे। यदि लोग दुःखी न होंगे तो उनमें ईश्वर के प्रति आस्था का ग्राफ भी गिरने लगेगा। ईश्वर को नहीं मानने वाले लोग संगठित धर्म को पोषित भी नहीं करेंगे तो ऐसे में धर्म का क्या होगा?योग धर्म या विज्ञान : धर्म के सत्य, मनोविज्ञान और विज्ञान का सुव्यवस्थित रूप है योग। योग की धारणा ईश्वर के प्रति आपमें भय उत्पन्न नहीं करती और जब आप दुःखी होते हैं तो उसके कारण को समझकर उसके निदान की चर्चा करती है। योग पूरी तरह आपके जीवन को स्वस्थ और शांतिपूर्ण बनाए रखने का एक सरल मार्ग है। यदि आप स्वस्थ और शांतिपूर्ण रहेंगे तो आपके जीवन में धर्म की बेवकूफियों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी।योग ईश्वरवाद और अनिश्वर वाद की तार्किक बहस में नहीं पड़ता वह इसे विकल्प ज्ञान मानता है, अर्थात मिथ्याज्ञान। योग को ईश्वर के होने या नहीं होने से कोई मतलब नहीं किंतु यदि किसी काल्पनिक ईश्वर की प्रार्थना करने से मन और शरीर में शांति मिलती है तो इसमें क्या बुराई है।
योग एक ऐसा मार्ग है जो विज्ञान और धर्म के बीच से निकलता है वह दोनों में ही संतुलन बनाकर चलता है। योग के लिए महत्वपूर्ण है मनुष्य और मोक्ष। मनुष्य को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखना विज्ञान और मनोविज्ञान का कार्य है और मनुष्य के लिए मोक्ष का मार्ग बताना धर्म का कार्य है किंतु योग यह दोनों ही कार्य अच्छे से करना जानता है इसलिए योग एक विज्ञान भी है और धर्म भी।