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'नियम' है जीवन का आधार

आष्टांग योग का दूसरा अंग 'नियम'

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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जीवन में नियम और अनुशासन नहीं है, तो जीवन भी नहीं है। अनियमित जीवनशैली से अनियमित भविष्य निकलता है, जिसमें दु:ख और रोग के सिवाय कुछ भी नहीं होता।

नियम भी पाँच प्रकार के होते हैं : (1) शौच (2) संतोष (3) तप (4) स्वाध्याय (5) ईश्वर प्राणिधान

(1) शौच : शरीर और मन की पवित्रता ही शौच है। पवित्रता दो प्रकार की होती है- बाहरी और भीतरी। मिट्टी, उबटन, त्रिफला, नीम आदि लगाकर निर्मल जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को त्यागने से मन की शुद्धि होती है। इससे सत्य आचरण का जन्म होता है।

ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिभान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। मूलत: शौच का तात्पर्य है पाक और पवित्र हो जाओ, तो आधा संकट यूँ ही कटा समझो। योग में पवित्रता का बहुत महत्व है। सभी छिद्रों को संध्या वंदन से पूर्व वक्त साफ करना की शौच है।

(2) संतोष : शरीर के पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त धन-स‍म्पत्ति से अधिक की लालसा न करना, न्यूनाधिक की प्राप्ति पर शोक या हर्ष न करना ही संतोष है। संतोषी सदा सुखी। अत्यधिक असंतोष से मन में बेचैनी और विकार उत्पन्न होता है, जिससे शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। कुछ लोगों में ऐसी बातों को लेकर भी असंतोष होता है, जिसका उनके जीवन से कोई संबंध नहीं।

(3) तप : सुख-दु:ख, भूख-प्यास, मान-अपमान, हानि-लाभ आदि को दृड़ता से सहन करते हुए मन और शरीर को विचलित न होने देना ही तप है। भोग-संभोग की प्रबल इच्छा पर विजय पाना भी तप है। तप है-इंद्रिय संयम।

(4) स्वाध्याय : स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना। दूसरा अर्थ है विचार शुद्धि और ज्ञान-प्राप्ति के लिए सामाजिक, वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक विषयों का नित्य-नियम से पठन-मनन करना। सत्संग द्वारा विचारों का आदान-प्रदान करना तथा व्यर्थ की बहस से बचना ही स्वाध्याय है।

(5) ईश्वर प्राणिधान : इसे शरणागति योग या भक्तियोग भी कहा जाता है।

उस एक को छोड़ जो तरह-तरह के देवी-देवताओं में चित्त रमाता है। उसका मन भ्रम और भटकाव में रम जाता है, लेकिन जो उस परम के प्रति अपने प्राणों की आहुति लगाने के लिए भी तैयार है, उसे ही 'ईश्वर प्राणिधान' कहते हैं। ईश्वर उन्हीं के लिए मोक्ष के मार्ग खोलता है, जो उसके प्रति शरणागत हैं।

मन, वचन और कर्म से ईश्वर की आराधना करना और उनकी प्रशंसा करने से चित्त में एकाग्रता आती है। इस एकाग्रता से ही शक्ति केंद्रित होकर हमारे दु:ख और रोग कट जाते हैं। 'ईश्वर पर कायम' रहने से शक्ति का बिखराव बंद होता है।

ईश्वर आराधना को 'संध्या वंदन' कहते हैं। संध्या वंदन ही प्रार्थना है। यह आरती, जप, पूजा या पाठ से भिन्न है। संध्या वंदन के नियम है और उसके तौर-तरीके भी हैं। तो यह हुई 'नियम' की संक्षिप्त व्याख्‍या।

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