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अक्सर माता-पिता बच्चों के स्कूल संबंधित परेशानियों से दो-चार होते रहते हैं। आमतौर पर स्कूली बच्चों को कुछ परेशानियाँ होती हैं, जैसे वे समय पर नहीं खाते या स्कूल जाने में आनाकानी करते हैं। इस तरह की सभी समस्याओं के हल बता रहे हैं हमारे स्कूली शिक्षा विशेषज्ञ मनीष सिन्हा।

स्कूल में पढ़ रहे आपके बच्चे के लिए भी आप सवाल पूछ सकते हैं। आपकी और आपके बच्चे की समस्या का समाधान बताएँगे हमारे स्कूल शिक्षा विशेषज्ञ मनीष सिन्हा। यहाँ प्रस्तुत हैं आपके बच्चों की शिक्षा के संबंधित आपके सवालों पर मनीष सिन्हा के जवाब-

प्रश्न : मेरा बेटा सात साल का है और पिछले दो सालों से स्कूल जा रहा है। उसका मन पढ़ाई में नहीं लगता। आखिर कब तक उसे डाँट-डपटकर पढ़ाई करवाऊँ ? कोई उपाय बताएँ । - साधना वर्मा, इंदौ

उत्तर : आपका बेटा सात साल का है। उम्र के अनुसार, उसे कक्षा 2 का विद्यार्थी होना चाहिए। डॉट-डपटकर पढ़ाई तो क्या कोई भी काम किसी से लंबे समय तक नहीं करवाया जा सकता। आप फौरन अपने बेटे को डाँटना-डपटना बंद कर दें।

आप सबसे पहले पढ़ाई में मन नहीं लगने का कारण पता करें। फिर उस कारण को दूर करने की कोशिश करें। हो सकता है कि विद्यालय में पढ़ाई का माध्यम उसके लिए सरल न हो। अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में प्रायः उन बच्चों का मन नहीं लगता जो किसी हिन्दी माध्यम विद्यालय से वहाँ गए हों।

यह भी संभव है कि विद्यालय में शिक्षकों के पढ़ाने की विधि आपके बच्चे के लिए आकर्षक न हो। आमतौर पर बच्चों को कहानियाँ, कविताएँ, ड्राइंग, पेंटिंग इत्यादि गतिविधियाँ पसंद हैं। आप विद्यालय में यह पता करें कि क्या शिक्षक-शिक्षिकाएँ पढ़ाने में इन गतिविधियों का सहारा लेते हैं या नहीं।

पढ़ाई में मन नहीं लगने की एक और वजह हो सकती है- बहुत ज्यादा लेखन कार्य, विशेषकर गृह-कार्य का होना। एनसीईआरटी के निर्देशों के अनुसार कक्षा 1 व 2 में कुल पढ़ाई का 20 प्रतिशत ही लेखन कार्य होना चाहिए, शेष 80 प्रतिशत कार्य सुनने, बोलने तथा पढ़ने की कला के विकास के लिए होना चाहिए।

आप यह भी पता करने की कोशिश करें कि क्या विद्यालय में आपके बच्चे को किसी शिक्षक द्वारा बार-बार कोई शारीरिक या मानसिक दंड तो नहीं दिया जा रहा। यह भी एक संभावना हो सकती है कि उसकी कक्षा अथवा किसी बड़ी कक्षा का कोई विद्यार्थी उसे तंग कर रहा हो।

पढ़ाई में मन लगने के लिए किसी-न-किसी रूप में पुरस्कार का पाना अथवा प्रोत्साहन का मिलना भी महत्वपूर्ण है। यदि विद्यालय में इस तरह के अवसर ना हों तो माँ के रूप में आप पढ़ाई संबंधी छोटी-छोटी उपलब्धियों के लिए उसे पुरस्कृत कर या उसकी प्रशंसा कर उसका उत्साह बढ़ाने में सहायक हो सकती हैं।

प्रश्न : मेरी आठ वर्षीय बेटी नियमित स्कूल जाती है, होमवर्क करती है। मैं चाहता हूँ कि वह टॉपर बने। ऐसा क्या करूँ, जिससे वह टॉप स्टूडेंट्स की लिस्ट में आने लगे? - रफीक शे

उत्तर : कोई भी विद्यार्थी किसी भी विधा में टॉपर हो सकता है- पढ़ाई, खेलकूद, नाटक, अच्छा बोलना व भाषण देना, लेखन कला इत्यादि। यदि आपका अभिप्राय किताबी पढ़ाई तथा लिखित परीक्षा से है तो आपको परीक्षा में अंक लाने की प्रक्रिया समझनी पड़ेगी। मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि आपकी बिटिया कक्षा तीन की विद्यार्थी है।

किसी भी परीक्षा में परीक्षार्थी को प्रश्न स्वयं पढ़ना व समझना पड़ता है। उसे उस प्रश्न की आवश्यकतानुसार माँगी गई जानकारी को मस्तिष्क के विभिन्न भागों से उस समय सामने लना पड़ता है। फिर प्रश्न की भाषा के अनुसार उस जानकारी को उपयुक्त भाषा में आकर्षक ढंग से उस विद्यार्थी को सजाना पड़ता है। और इस सजी-सँवरी जानकारी को कम-से-कम समय में उत्तर पुस्तिका में लिखना पड़ता है।

इस संपूर्ण प्रक्रिया में कुछ बातें काफी महत्वपूर्ण हैं कक्षा में टॉपर बनने के लिए। पहला, क्या आपकी बिटिया को पढ़ने व समझने की कला मालूम है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सिर्फ उतना ही पढ़ व लिख सकती है जितना कि उसके शिक्षक ने उसे बताया है। इसकी जाँच के लिए आप उसे नईदुनिया के साथ प्रति सप्ताह प्रकाशित स्पैक्ट्रम जैसी रोचक मैगजीन अथवा कहानी की कोई किताब हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में पढ़ने के लिए दें। देखें, क्या वह सरलता से पढ़ व समझ सकती है या नहीं।

दूसरा, क्या आपकी बिटिया को उसके विद्यालय द्वारा उसे भरपूर अवसर दिए जाते हैं कि वह किसी पाठ से संबंधित जानकारी दूसरे विद्यार्थियों से ज्यादा प्राप्त कर सकें? परीक्षा में टॉप करने के लिए आपकी बिटिया के पास औरों की अपेक्षा ज्यादा सूचनाएँ, तथ्य व जानकारियाँ होनी चाहिए। यदि औरों की तरह वह सिर्फ पाठ्यपुस्तक (टेक्सबुक) का ही प्रयोग करती है तो उसे औरों से ज्यादा जानकारी अर्थात परीक्षा में अंक कैसे प्राप्त होंगे!

तीसरा, क्या आपकी बिटिया को उत्तर लेखन की कला हासिल है? क्या उसके शिक्षकों ने उसे स्वयं से उत्तर लिखना सिखाया है या कम-से-कम स्वयं से उत्तर लिखने का अवसर वे आपकी बिटिया को देते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सिर्फ उतना ही लिख सकती है जितना उसके शिक्षकों ने उसे सिखाया है?

आप उपरोक्त बातों की जाँच कर सकते हैं। पता करें कि उसके शिक्षकों ने अभी तक किन विषयों पर निबंध लिखना सिखाया है। आप उसे एक ऐसे विषय पर निबंध लिखने के लिए दें जो उसके शिक्षकों ने उसे नहीं सिखाया हो। जैसे, यदि उन्होंने गाय पर निबंध सिखाया हो तो उसे बकरी पर निबंध लिखने के लिए दे सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, आप किसी मैगजीन से कोई कहानी उसे पढ़ने के लिए दें। फिर उस आप क्या, कहाँ, किसलिए, कैसे, क्यों वाले प्रश्न लिखित में उसे दें। चेक करें, क्या उसने उत्तरों को इतना प्रभावशाली ढंग से लिखा है कि उसकी कक्षा का कोई भी अन्य विद्यार्थी उससे ज्यादा प्रभावशाली ढंग से नहीं लिख सकें।

चौथा, क्या आपकी बिटिया के लिखने की गति इतनी तेज है कि सुंदर हस्तलिपि बनाते हुए दी गई समय-सीमा के अंदर वह सभी उत्तरों को लिख सकें? चेक करें।

अंत में, दो प्रश्न आप पिता से, आपकी जिज्ञासा/प्रश्न से हटकर। कक्षा में टॉपर बनने से आपकी बिटिया को जीवन में क्या हासिल होगा? दूसरा, एक बार टॉपर बन जाने के बाद किसी कारण या मजबूरीवश यदि कभी वह पुनः टॉपर नहीं बन पाई तो उसके मनोबल का क्या होगा? समाचार पत्रों में अक्सर कुछ बच्चों द्वारा निराशा की स्थिति में गलत कदम उठा लेने का दुखद समाचार पढ़ने को मिलता रहता है।

प्रश्न : मैं कक्षा 12वीं का छात्र हूँ और इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता हूँ। मेरे दोस्त इंग्लिश में बात करते हैं, लेकिन मैं उनके सामने कुछ नहीं बोल पाता। कृपया मार्गदर्शन करें। आदित्य सूरी, जयपु

उत्तर : आश्चर्य है कि इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने के बावजूद आप इंग्लिश में बोल नहीं पाते! आपने अपनी जिज्ञासा में विस्तृत रूप से इंग्लिश नहीं बोल पाने का कारण नहीं लिखा है। फिर भी, मैं प्रयत्न करता हूँ कि आपका इस संबंध में कुछ मार्गदर्शन अवश्य हो सके।

इंग्लिश एक भाषा है। जितना यह हमारे अंदर जाएगी, उतना ही उसी या परिवर्तित रूप में हमारे होठों से बाहर आएगी। कहते भी हैं भाषा सीखी नहीं जाती, पकड़ी जाती है। (लैंग्वेज इज नॉट टॉट, इट इज कॉट)

ईश्वर ने हमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं। इंग्लिश कोई रसगुल्ला तो है नहीं जिसे खाकर अंदर कर लिया जाए। गुलाब का फूल भी नहीं है कि सूँघकर इसे ग्राह्य कर लिया जाए। इंजेक्शन लगाने वाली चीज होती तो फौरन इसे अपने अंदर कर हम फर्राटेदार इंग्लिश बोलने लगते।

जरा सोचें, बच्चे टीवी देखकर फिल्मी गाने कैसे सीख लेते हैं। मुहल्ले की गाली लोग कैसे सीखते हैं। आपको मैं यह सलाह देना चाहता हूँ कि अच्छी इंग्लिश सुनने का आप ज्याद-से-ज्यादा अवसर ढूँढ़ें। उदाहरण के लिए इंग्लिश समाचार सुनें व पढ़ें तथा इंग्लिश फिल्में व सीरियल्स देखें। इसके अतिरिक्त, छोटे बच्चों वाली इंग्लिश की कहानी की पुस्तकें जोर से पढ़ें तथा अपनी आवाज को एक टेप की सहायता से रिकॉर्ड करें। फिर अपनी ही आवाज को टेप चलाकर बार-बार सुनें तथा अपनी गलतियाँ स्वयं ही पकड़ें। यह काम लगातार दस-बारह महीने के लिए करें। लाभ होगा।

इंग्लिश बोलने में व्याकरण की अशुद्धियों की तरफ शुरू में ध्यान दें। पहले प्रवाह (फ्लूएंसी) आ जाने दें तथा बाद में व्याकरण का सुधार करें।

इंग्लिश या इसका व्याकरण रटने का प्रयास न करें।

प्रश्न : शिक्षा के नाम पर लगभग सभी स्कूल भारी फीस वसूल कर रहे हैं। गरीब के बच्चे अच्छे स्कूल में नहीं जा सकते। क्या सरस्वती भी वहीं विराजती है जहाँ लक्ष्मी का वास होता है? - किरण खुराण

उत्तर : आपका प्रश्न दिलचस्प है। उपयोगिता की अपेक्षा, भावनात्मक ज्यादा जान पड़ता है। आपका प्रश्न बहस का मुद्दा हो सकता है तथा इसके उत्तर की कोई सीमा नहीं हो सकती। फिर भी मैं यह प्रयत्न करता हूँ कि आपकी जिज्ञासा कुछ शांत कर सकूँ। नीचे जो कुछ भी मैं लिखूँगा, वह मेरी व्यक्तिगत राय होगी तथा इसका सही या गलत होना अलग-अलग पूर्वज्ञान व पूर्व अनुभव पर निर्भर करेगा।

शिक्षा देना एक व्यवसाय (सर्विस) है, जैसे चिकित्सा, यातायात, वकालत इत्यादि। यदि किसी चिकित्सक द्वारा फीस लेकर किसी व्यक्ति का इलाज होता है तो यही नियम शिक्षा पर भी लागू होता है। इस व्यवसाय में सेवा भावना वैसे ही सम्मिलित है जैसे किसी भी अन्य सर्विस वाले व्यवसाय में है।

प्राचीन काल में शिक्षक अपने विद्यार्थियों के साथ आश्रम में रहते थे। सारा समाज शिक्षकों को अपना गुरु मानता था तथा उसकी एक इच्छा पर बिना प्रश्न किए अपने हाथ का अँगूठा काटकर दे देता था। राजा-महाराजा अपनी गद्दी, अपना सिंहासन, अपना राज-पाट सबकुछ शिक्षक के चरणों में सौंप देने को तैयार रहते थे।

समय के साथ समाज व शासक दोनों की स्थिति बदल चुकी है। औद्योगिक क्रांति के बाद लोगों की आवश्यकताएँ तथा उन्हें पूरा करने की महत्वाकांक्षाएँ दिन-दूनी-रात-चौगुनी बढ़ती जा रही है। लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तरह-तरह के कर्मचारियों, सलाहकारों, उद्योगपतियों, टेक्नीशियंस तथा मैनेजरों की जरूरतें भी बढ़ती जा रही हैं। इस कारण पुराने पाठ्यक्रम (कोर्स) लगातार बदलते जा रहे हैं तथा नए-नए प्रतिवर्ष प्रारंभ भी हो रहे हैं। इन पाठ्यक्रमों को चलाने के लिए नए संस्थानों व शिक्षकों की माँग भी बढ़ती जा रही है और जहाँ माँग बढ़ती है वहाँ कीमत भी बढ़ती है। स्वाभाविक है, स्कूलों में फीस अपने आप बढ़ेगी।

यह बढ़ी हुई फीस देता कौन है? हम पालक देते हैं। क्यों देते हैं? क्योंकि हम दे सकने में सक्षम हैं। जो सक्षम नहीं है, वह कम फीस वाले स्कूल में चले जाते हैं।

क्या बढ़ी हुई फीस जबरदस्ती वसूली जाती है? यदि हाँ तो पालक फिर वहाँ क्यों जाते हैं? प्रायः यह देखने में आता है कि महँगे स्कूलों में प्रवेश के लिए लंबी लाइनें लगती रहती हैं।

समय के सात आज का शिक्षक शहरी व ग्रामीण हो चला है। जंगलों में बसे आश्रम का वासी नहीं रहा। अन्य व्यावसायी की तरह उसके बच्चों की भी महत्वाकांक्षाएँ हैं। उन्हें भी समाज में प्रतिष्ठित होना है। और इन सबके लिए चाहिए पैसा। और यह पैसा फीस के जरिए ही आ सकता है, आश्रम का वासी बनकर सिर्फ सेवा करते हुए नहीं। इस कारण, स्वाभाविक है, स्कूलों में फीस अपने आप बढ़ेगी।

स्कूल को कुछ पल के लिए छोड़िए। आप जरा सोचिए, क्या फीस वसूली जा रही है कोचिंग कक्षाओं द्वारा और उसे कौन दे रहा है? आज के पालक खुशी-खुशी मोटी रकम कोचिंग संस्थाओं को देने के लिए तैयार हैं। समाज में पालक की प्रतिष्ठा बढ़ जाती है जब वह गर्व के साथ यह कहता है कि उसका बच्चा फलाँ प्रतिष्ठित कोचिंग संस्था में पढ़ता है।

शिक्षा के लिए मोटी रकम क्या सिर्फ स्कूलों व कोचिंग संस्थानों तक ही सीमित है? डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, कम्प्यूटर जैसी पढ़ाई की क्या फीस है? यदि उनकी फीस लाखों में हो सकती है तो स्कूलों में फीस चंद हजार होना कौन-सी बुराई है। स्कूलों के शिक्षक जो विद्यार्थियों के भविष्य की नींव रखते हैं, उनका कार्य क्या इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, कम्प्यूटर के शिक्षकों से कम है और इस कारण स्कूलों में फीस कम होनी चाहिए?

एक बात और। फीस का संबंध पढ़ाई से अनिवार्यतः नहीं होता है। अच्छी पढ़ाई कहीं भी हो सकती है, भारी फीस या कम फीस- दोनों जगहों पर। अच्छी पढ़ाई के लिए अन्य मापदंड लागू होते हैं। इतिहास गवाह है कि लालबहादुर शास्त्री, डॉ. अबुल कलाम आजाद.... जैसे लोग किसी भारी फीस वाले स्कूल में नहीं पढ़े।

केंद्रीय विद्यालय, जवाहर नवोदय विद्यालय, राज्य सरकारों के विद्यालय में बहुत ही कम अथवा नहीं के बराबर फीस ली जाती है। ऐसे विद्यालयों में भी पढ़कर कई विद्यार्थी आज समाज में प्रतिष्ठित स्थानों पर विराजमान हैं। दूसरी तरफ, भारी फीस वाले स्कूलों में पढ़ने वाला हर विद्यार्थी जीवन में सफल हो, ऐसा नहीं है।

आखिरी बात (आज के लिए) सरस्वती और लक्ष्मी कहाँ विराजती हैं, यह तो मुझे नहीं मालूम। पर, दोनों के चित्र मैंने अवश्य एक साथ ज्यादातर तस्वीरों में देखे हैं और वह भी गणेश जी के साथ।
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परिच
मनीष सिन्हा विगत 15 वर्षों से शिक्षण व शैक्षणिक प्रशासन से जुड़े रहे हैं। पर्यावरण जीव-विज्ञान के साथ वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर (एम.एससी), श्री सिन्हा ने केंद्रीय शिक्षा संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय, से शिक्षण कला की ट्रेंनिंग (बी.एड) प्राप्त कर अपना शैक्षणिक कैरियर इंदौर के प्रतिष्ठित डेली कॉलेज (सीबीएसई) से प्रारंभ किया था। एक वर्ष के लिए इन्होंने अपना योगदान स्तानीय विद्यासागर स्कूल (सीबीएसई) में भी दिया। इसके पश्चात करीब 8 वर्षों तक वे इंदौर के ही ख्याति प्राप्त प्रोग्रेसिव एजुकेशन स्कूल (आईसीएसई) में वरिष्ठ शिक्षक के रूप में अध्यापन कार्य करते रहें। वर्तमान में श्री मनीष सिन्हा इंदौर के गोल्डन इंटरनेशनल स्कूल में प्राचार्य के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं।

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