Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

पौधों में भी होती है दोस्ती-दुश्मनी

हमें फॉलो करें पौधों में भी होती है दोस्ती-दुश्मनी
- मणिशंकर उपाध्याय

इंसानों तथा पशु-पक्षियों के साथ ही पौधों में भी दोस्ती और दुश्मनी होती है। पौधों के इस आपसी संबंध तथा प्रभाव के विज्ञान को 'एलिलोपैथी' कहा जाता है।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका के लाल गेहूँ और माइलो (लाल जुवार) के साथ गाजरघास नामक खरपतवार के बीज भारत में आए तो एक आक्रामक वनस्पति की तरह यहाँ के स्थानीय खरपतवारों को दबाकर पूरे भारत में छा गए। ऐसा क्यों हुआ?
  हाल ही में वर्षों में जैविक खेती की ओर कुछ वैज्ञानिकों का ध्यान गया है व इससे संबंधित ज्ञान का छिटपुट उपयोग व प्रभावों का दस्तावेजीकरण (डाक्यूमेंटेशन) किया जाना प्रारंभ हुआ है, जो एक अच्छा संकेत है      
इसके पीछे कारण यह रहा कि गाजरघास की जड़ों से एक प्रकार का जहरीला स्राव (एक्सूडेंट) निकलता है, जो उसके आसपास अन्य वर्ग के पौधों को पनपने नहीं देता है। इसी कारण जहाँ-जहाँ भी इसके पौधे उगे, उनके आसपास कोई अन्य प्रजाति के पौधे नहीं पनप पाए और इसकी संख्या व क्षेत्र बढ़ता चला गया।

सोपाम (सोसायटी फॉर पार्थेनियम मैनेजमेंट) रायपुर के वैज्ञानिक डॉ. पंकज अवधिया के अनुसार गाजरघास की जड़ों से पार्थेनिक, पी. काउमेटिक एसिड, कैफिक एसिड व मैलिक एसिड जैसे घातक एलिलो रसायनों का स्राव होता है। इनकी वजह से गाजरघास ने मालवा में पवार (पुवाड्या), ग्वालियर क्षेत्र में सफेद मुगी, उत्तरप्रदेश में लहसुआ, निमाड़ क्षेत्र में गोंगला (गेहुँआ) जैसे स्थानीय उपयोगी खरपतवारों को दबाकर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। यह तो बात हुई हानिकारक या ऋणात्मक प्रभाव की। यही नहीं, पौधे एक-दूसरे से मित्रता का भाव भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिखाते हैं।

जिन क्षेत्रों में सोयाबीन के लगातार बोए जाने के कारण मिट्टी में राइजोक्टोनिया, स्क्लेरोशियम व फ्यूजेरियम नामक फफूँदों (फंगस) के कारण ग्वार, चौला, बैंगन, मिर्च, टमाटर आदि फसलें भी नहीं ली जा सकती हैं, क्योंकि इन पर भी इनसे उत्पन्न रोग लग जाते हैं, वहाँ यदि जुवार (देशी या हाइब्रिड कोई भी) लगातार दो-तीन मौसम या वर्षों तक लगा दी जाए तो इन रोगों का प्रभाव समाप्त या कम हो जाता है।

इसका कारण यह है कि जुवार के पौधों की जड़ों से भी भूमि में कम नमी की हालत में एक प्रकार का घातक जहर हाइड्रोसाएनिक एसिड, जिसे एचसीएन भी कहा जाता है, निकलता है।
  कुछ दिनों पूर्व ही मीलीबग (सफेद फुंनगा) के नियंत्रण के लिए देशी शराब यानी अल्कोहल का छिड़काव किया गया। इससे इस कीट की पीठ पर मोम जैसा कवच गल या पिघल जाता है। इसके बाद किसी भी हल्के कीटनाशक से यह नष्ट हो जाता है      
यह अम्ल इन रोगजनक फफूँदों को नष्ट कर देता है। इस प्रकार के विभिन्न प्रजातियों के पौधों के पारस्परिक सहयोगात्मक एवं विरोधात्मक प्रभावों पर शोध एवं अनुसंधान किए जाने की आवश्यकता है। इन अध्ययनों से पौधों से वांछित प्रकार के जैव रसायन प्राप्त कर उनका उपयोग आर्थिक रूप से उपयोगी वनस्पतियों के उत्पादन बढ़ाने और अवांछित वनस्पतियों के नियंत्रण के लिए किया जा सकता है।

इस तरह के अध्ययनों के परिणामों से वर्तमान में चल रही रासायनिक कृषि जिसमें रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशक, रासायनिक रोगनाशक, रासायनिक खरपतवारनाशक प्रयोग में लाए जा रहे हैं उनसे निजात पाई जा सकती है या उनकी मात्रा को कम किया जा सकता है। पौधों से प्राप्त जड़ स्रावी पदार्थ जीवांश प्रकृति के होने के कारण मिट्टी, जल, वायु आदि को जहरीला नहीं बनाएँगे, प्रदूषित नहीं करेंगे।

वनस्पतियों के पारस्परिक प्रभावों के ज्ञान 'एलिलोपैथी' को भले ही नया मानें, परंतु भारत का पारंपरिक ज्ञान जिसमें वनस्पतियों से वनस्पतियों, वनस्पतियों से कीटों, रोगों, पशुओं, मनुष्यों जैसे जैविक ही नहीं अपितु मिट्टी, जल, वायु, आकाश जैसे अजैविक घटकों पर पड़ने वाले प्रभावों का ज्ञान भी यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। जरूरत है उसे एकीकृत व संकलित करने की। हाल ही में वर्षों में जैविक खेती की ओर कुछ वैज्ञानिकों का ध्यान गया है व इससे संबंधित ज्ञान का छिटपुट उपयोग व प्रभावों का दस्तावेजीकरण (डाक्यूमेंटेशन) किया जाना प्रारंभ हुआ है, जो एक अच्छा संकेत है।

उदाहरण के लिए सूत्र कृमि या निमेटोड के नियंत्रण के लिए गेंदे के फूल वाले पौधों को उगाया जाता है। कीटों के नियंत्रण के लिए हींग, लहसुन, मिर्च, नीम, करंज आदि का प्रयोग किया जा रहा है। कई जागरूक किसान भी इस तरह के प्रयास अपने स्तर पर कर रहे हैं। जैसे कुछ दिनों पूर्व ही मीलीबग (सफेद फुंनगा) के नियंत्रण के लिए देशी शराब यानी अल्कोहल का छिड़काव किया गया। इससे इस कीट की पीठ पर मोम जैसा कवच गल या पिघल जाता है। इसके बाद किसी भी हल्के कीटनाशक से यह नष्ट हो जाता है।

ये तो हुई सब 'ट्रायल व एरर' परंतु इस तरह के प्रयोग, परीक्षण की जिम्मेदारी कृषि अनुसंधानरत संस्थाओं की है। उन्हें इस तरह के प्रयोगों का परीक्षण कर निश्चित सफलता या असफलता के आधार पर इनकी मात्रा, समय आदि का मानकीकरण कर निश्चित अनुशंसाएँ किसानों तक कृषि विभाग, एनजीओ के माध्यम से पहुँचानी चाहिए और जो प्रचलित किंतु भ्रामक परंपराएँ हैं उन्हें परीक्षण के पश्चात पूरी तरह निरस्त किए जाने की आवश्यकता है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi