Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

कब खत्म होगा हिन्दी का वनवास?

हमें फॉलो करें कब खत्म होगा हिन्दी का वनवास?
- एलएन शीतल 
 
भोपाल में हो रहा विश्व हिन्दी सम्मेलन देश के हृदयस्थल- मध्यप्रदेश, विशेषतः राजधानी भोपाल के लिए अत्यंत गौरव का विषय है। इस आयोजन ने एक बार फिर हिन्दीप्रेमियों की विश्व-बिरादरी के समक्ष हिन्दी की दिशा और दशा के बारे में विचार-मंथन करने का एक और अवसर प्रदान किया है। 
 
यह आयोजन भी पूर्ववर्ती आयोजनों की तरह एक व्यर्थ की कवायद बनकर न रह जाए, इसके लिए जरूरी है कि इसमें शामिल हो रहे महानुभाव हिन्दी के सही स्वरूप, इसके समुचित विकास और इसके प्रचार-प्रसार के मार्ग में आ रहीं बाधाओं को दूर करने के लिए कुछ सार्थक और ठोस कदम उठाएं।
 
यहां यह उल्लेख अप्रासंगिक न होगा कि हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए संविधान-सभा में प्रस्तुत एक प्रस्ताव को सन् 1950 में लागू किया गया था। इसमें प्रावधान था कि हिन्दी 15 वर्षों में अंग्रेजी की जगह ले लेगी। लेकिन संविधान की धारा 348 में ऐसे कई हिन्दी-विरोधी संशोधन होते चले गए जिनके कारण हिन्दी आज भी वनवास काटने को विवश है। सवाल है कि जब भगवान राम के वनवास और पांडवों के अज्ञातवास की एक निश्चित अवधि थी तो हिन्दी का वनवास कब खत्म होगा आखिर? 
 
 
 
 
जब योग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के लिए 177 देशों का समर्थन आसानी से हासिल हो गया तो हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा का सम्मान दिलाने के लिए कारगर पहल अवश्य की जानी चाहिए। लेकिन इससे पहले हिन्दी को उसके अपने घर यानी भारत में तो समुचित मान-सम्मान मिले! उसे राष्ट्रभाषा का संवैधानिक दर्जा किसी भी कीमत पर मिलना ही चाहिए। 
 
हिन्दी का सबसे ज्यादा नुकसान उसे संस्कृतनिष्ठ बनाए रखने पर अड़े रहने वाले चुटियाछाप हिन्दीप्रेमियों तथा अनुवादकों ने किया है। हिन्दी को पंडिताऊ जकड़न से मुक्त करके उसे आमफहम तो बनाया जाना ही चाहिए और तर्कसंगत तरीके से उसका शब्द-आधार भी बढ़ाया जाना चाहिए, लेकिन उसकी शुद्धता की अनदेखी भी हरगिज नहीं की जानी चाहिए। 
 
कोई भी भाषा अन्य भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों को खुद में समाहित करके ही जीवंत और सामर्थ्यवान बनी रह सकती है। अगर हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाए रखने के हिमायती लोग हिन्दी में से अन्य भाषाओं से आए बहुप्रचलित शब्दों को चुन-चुनकर निकाल बाहर करेंगे तो वे उसे एक ऐसी हिन्दी बना देंगे जिसकी सम्प्रेषण-क्षमता बहुत कमजोर होगी। 
 
हिन्दी की एक बड़ी समस्या है, इसकी वर्तनियों के मानकीकरण की। हिन्दी वालों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो अपनी भाषा-संबंधी अधकचरी जानकारी को छिपाने के लिए हिन्दी को ज्यादा से ज्यादा सरल और आमफहम बनाने के नाम पर गलत-सलत शब्दों को अंधाधुंध थोपने पर आमादा है।
 
जिसे खुद के तनिक भी बौद्धिक होने का गुमान होता है या जो गद्य या पद्य की दो-चार पंक्तियां लिखनी सीख लेता है, वही मनमानी वर्तनियां गढ़नी शुरू कर देता है। ऐसा कोई भी 'ज्ञानी' अंग्रेजी शब्दों से छेड़छाड़ की हिमाकत क्यों नहीं कर पाता? हिन्दी ने दूसरी भाषाओं के जिन शब्दों को बहुत अच्छी तरह से आत्मसात कर लिया है, उनके लिए नए-नए और मूल शब्द की तुलना में कहीं ज्यादा क्लिष्ट शब्द गढ़ने की सनक क्यों?
 
ऐसे लोग भूल जाते हैं कि बोली एक पगडंडी की तरह होती है और भाषा किसी राजमार्ग की तरह। पगडंडी पर चलने वालों को बहुत-सी 'लिबर्टी' सहज ही मिल जाती है जबकि राजमार्ग पर तनिक-सी लापरवाही भी जानलेवा साबित हो सकती है। काव्य में तो शब्दों के मानक स्वरूप से हटने की गुंजाइश होती है, लेकिन गद्य में हरगिज नहीं होती। कई ऐसे शब्द हैं जिनकी वर्तनी में नासमझी में की गई मामूली-सी गलती भी अर्थ का अनर्थ कर डालती है, जैसे जलील-ज़लील, कार्रवाई-कार्यवाही आदि। 
 
यह कितना शर्मनाक है कि हिन्दी के ऐसे सैकड़ों शब्द हैं जिनमें से प्रत्येक के लिए अनेक वर्तनियां हैं। समझ में नहीं आता कि जब देश के सभी हिस्सों में अंग्रेजी शब्दों की वर्तनियां एक समान हैं, भारतीय दंड संहिता, दंड-प्रक्रिया संहिता एक समान हैं और ट्रैफिक सिग्नल एक समान हैं तो फिर हिन्दी शब्दों की वर्तनियां एक समान क्यों नहीं हैं? 
 
हमारी मातृभाषा- 'हिन्दी' की बेचारगी 'गरीब की जोरू सबकी भाभी' जैसी क्यों है? हमें यह तथ्य कभी नहीं भूलना चाहिए कि जो कौमें अपनी भाषा नहीं बचा पातीं, वे एक दिन दफ्न हो जाया करती हैं। अज्ञानतावश, अनावश्यक और गलत शब्द गढ़ने से भाषा विकृत होती है। शब्दों और वाक्यों के बुद्धिहीन, अनावश्यक व आडंबरपूर्ण प्रयोगों से भाषा कमजोर होती है। भाषा कमजोर होने से प्रकारांतर में कौम कमजोर होती है और कौम के कमजोर होने से अंततः देश कमजोर होता है। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज्यादातर लोग आजकल यही कर रहे हैं।
 
हिन्दी एक अत्यंत संपन्न और वैज्ञानिक भाषा है। अनुवादकों ने अपनी अज्ञानता और कूढ़मगजी के कारण ज्यादातर अंग्रेजी शब्दों के लिए अनावश्यक तथा अवैज्ञानिक शब्द गढ़ डाले, जबकि हिन्दी में पहले से ही तमाम अच्छे शब्द मौजूद हैं। इससे भाषा के मूल स्वरूप को चोट पहुंची और उसकी सम्प्रेषण-क्षमता कमजोर हुई।
 
इसी का एक उदाहरण है- मंत्रियों को हिन्दी में दिलाई जाने वाली पद एवं गोपनीयता की शपथ। जिस तरह दूल्हा-दुल्हन फेरों के समय पंडित के श्लोकों को केवल सुनते हैं, उनका अर्थ तनिक भी नहीं समझ पाते, उसी तरह मूलतः अंग्रेजी में लिखे गए और हिन्दी में अनूदित इस शपथ-पत्र की वाक्य रचना इतनी जटिल और दुरूह है और इसमें प्रयुक्त शब्द इतने क्लिष्ट हैं कि शपथ लेने वाले ज्यादातर महानुभावों को यह पता नहीं होता कि वे जिन शब्दों का उच्चारण बमुश्किल कर पा रहे हैं, उनका मतलब क्या है?
 
अगर हम उनमें से ज्यादातर की नीयत के खोट को नजरंदाज कर भी दें तो भी सवाल उठता है कि उन्हें जिन शब्दों का अर्थ ही मालूम नहीं है, उन पर वे अमल क्या करेंगे? शपथ-पत्र की वाक्य-रचना भी अंग्रेजी वाक्य-रचना की बेहद भद्दी नकल है यानी, ‘हम माखी पै माखी मारा, हमने नहिं कछु सोच विचारा’। महान संपादक स्व. राजेन्द्र माथुर ने हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप शपथ-पत्र का एक प्रारूप अपने एक आलेख में प्रस्तुत किया था, जो अत्यंत सरल और बोधगम्य था।
 
बेहद अफसोस की बात है कि हिन्दी के विकास के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपए फूंके जाने के बावजूद हम आज तक सरकारी कामकाज के लिए एक ऐसी शब्दावली भी नहीं बना पाए हैं जिसे सभी राज्यों में समान रूप से लागू कर सकें। जरा गौर कीजिए। कार्यपालिका में राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता है- मुख्य सचिव और केंद्र में कैबिनेट सचिव। इसी तरह हर जिले का भी एक प्रभारी अधिकारी होता है, लेकिन उसे कहीं कलेक्टर, कहीं डिप्टी कमिश्नर, कहीं डीएम, कहीं जिलाधिकारी तो कहीं जिला समाहर्ता कहा जाता है। 
 
कितना अफसोसनाक मजाक है कि एक जैसे दायित्व वाले अधिकारियों के 5 अलग-अलग नाम हैं! जब प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अनेक बहुत से पदों के लिए एक-एक पदनाम हैं तो अन्य पदों ने क्या बिगाड़ा है? सवाल है कि जब देश एक है तो प्रशासनिक शब्दावली (विशेषतः हिन्दी) में एकरूपता क्यों नहीं है? ऐसे सैकड़ों प्रशासनिक शब्द हैं जिनमें एकरूपता नहीं है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो स्थिति अत्यंत हास्यास्पद है। 'कलेक्टर' तो एक उदाहरण मात्र है।
 
जब हम प्रशासनिक शब्दों में एकरूपता लाने की बात करते हैं तो हमें उनके लिए पहले से ही बाकायदा स्थापित अंग्रेजी शब्दों को आधार मानकर काम करना चाहिए, जैसे ज्यादातर राज्यों में प्रशासन चलाने के लिए ‘डिवीजनल कमिश्नरों’ (संभागीय अथवा मंडल आयुक्तों) की व्यवस्था है और एक मंडल या संभाग में कुछ जिले होते हैं। इस तरह से जिले के प्रभारी अधिकारी को अंग्रेजी में ‘डिप्टी कमिश्नर’ और हिन्दी में 'उपायुक्त' कहना ज्यादा तार्किक है, जैसा कि दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों में है। देश की प्रशासनिक शब्दावली में फैली अराजकता एक तरह से कलंक है और इसे खत्म किया जाना चाहिए।
 
प्रशासनिक शब्दावली के मामले में सर्वाधिक अराजकता मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में देखने को मिलेगी। इसकी एक बानगी के लिए दो-चार उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। इन प्रदेशों में ‘सब इंजीनिअर’ को ‘उपयंत्री’, ‘असिस्टेंट इंजीनिअर’ को ‘सहायक यंत्री’, ‘एग्जीक्यूटिव इंजीनिअर’ को ‘कार्यपालन यंत्री’ और ‘सुपरिंटेंडिंग इंजीनिअर’ को ‘अधीक्षण यंत्री’ कहा जाता है। लेकिन जैसे ही वह ‘अधीक्षण यंत्री’ तरक्की पाता है तो ‘मुख्य अभियंता’ बन जाता है। सवाल है कि ‘इंजीनिअर’ अचानक ‘यंत्री’ से ‘अभियंता’ क्यों और कैसे बन गया? ज्ञात रहे कि ‘यंत्री’ का तात्पर्य यंत्रों अथवा औजारों से काम करने वाले व्यक्ति से है जिसे अंग्रेजी में ‘आर्टीसन’ कहा जाता है, जबकि ‘इंजीनिअर’ के लिए मानक अंग्रेजी शब्द है- ‘अभियंता’। ‘इंजीनिअर’ शब्द के लिए ‘यंत्री’ शब्द का प्रयोग पूर्णतः गलत है।
 
इसी तरह, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ‘डाइरेक्टर’ शब्द के लिए ‘संचालक’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। ‘असिस्टेंट डाइरेक्टर’ के लिए ‘सहायक संचालक’, डिप्टी डाइरेक्टर’ के लिए ‘उपसंचालक’, ‘जॉइंट डाइरेक्टर’ के लिए ‘संयुक्त संचालक’ और ‘एडिशनल डाइरेक्टर’ के लिए ‘अतिरिक्त संचालक’ का प्रचलन है। लेकिन जैसे ही कोई सज्जन ‘डाइरेक्टर जनरल’ बनते हैं, वे हिन्दी में ‘महासंचालक’ की बजाय ‘महानिदेशक’ बन जाते हैं। सवाल है कि ‘महा’ जुड़ते ही ‘संचालक’ को ‘निदेशक’ क्यों कहा जाने लगा? एक ही अंग्रेजी शब्द के लिए दो हिन्दी शब्द क्यों?
 
अंग्रेजी के ‘म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन’ का मानक हिन्दी अनुवाद है- ‘नगर निगम’, लेकिन इन दोनों राज्यों में लिखा जाता है- ‘नगर पालिक निगम’। यह बात समझ से परे है कि ‘पालिक’ शब्द की जरूरत क्यों और कैसे पड़ गई? हिन्दी में तो ‘पालिक’ नाम का कोई शब्द ही नहीं है। किसी लालबुझक्कड़ ने कैसे गढ़ा होगा यह ‘पालिक’ शब्द, इसकी चर्चा फिर कभी।
 
इसी तरह इन दोनों प्रदेशों में अंग्रेजी पदनाम ‘एसडीओ’ अथवा ‘सबडिवीजनल ऑफिसर’ के लिए हिन्दी पदनाम- ‘अनुविभागीय अधिकारी’ इस्तेमाल किया जाता है। सवाल फिर वही है कि जब इन दोनों प्रदेशों में ‘डिवीजन’ के लिए हिन्दी शब्द ‘संभाग’ और ‘सब’ के लिए ‘उप’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है तो ‘सब डिवीजनल’ के लिए ‘उपसंभागीय’ लिखने-बोलने में क्या और कैसी दिक्कत है? मालूम होना चाहिए कि हिन्दी में ‘अनुविभागीय’ नाम का कोई शब्द ही नहीं है। दोनों प्रदेशों की प्रशासनिक शब्दावली में इसी तरह की दर्जनों विसंगतियां हैं जिन्हें फौरन दूर किए जाने की जरूरत है। 
 
कुल मिलाकर देखें तो हिन्दी की दुर्दशा करने में कोई भी पीछे नहीं है- न मीडिया, न सरकार और न ही बड़ी गैरसरकारी कंपनियां। ये तीनों तमाम चीजों पर करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करते हैं, लेकिन इन्हें हिन्दी की परवाह रत्तीभर भी नहीं। इनकी यह लापरवाही लेखन से जुड़े इनके रोजमर्रा के कार्य-व्यवहार को देखकर सहज ही समझ में आ जाती है। इसका एक ताजातरीन उदाहरण देखिए : दसवें विश्व हिन्दी सम्मलेन के अवसर पर सभी अखबारों में प्रकाशित एक पूरे पेज के विज्ञापन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के जो संदेश दिए गए हैं, उन्हीं में भाषा की कई गलतियां हैं। जाहिर है कि न तो मोदी ने और न ही शिवराज सिंह ने अपने ये संदेश खुद लिखे होंगे। किसी तथाकथित ‘हिन्दी-विद्वान’ ने ही तो लिखे होंगे न। बस, यहीं से शुरू होती है हिन्दी की व्यथा-कथा।
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi