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सफलता और सकारात्मकता की मिसाल वेबदुनिया

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-अनवर जे अशरफ
वह दौर था, जब वेबसाइटों का बुलबुला उठ रहा था। खटपटिया प्रिंटर से निकलती समाचार एजेंसियों की कॉपियों और रोजाना अखबार के बीच इंटरनेट उभर रहा था और वेबदुनिया भी इसी हलचल का एक नतीजा था। अगले दो तीन साल में बुलबुले बैठने लगे। इंटरनेट किसी याहू, किसी हॉटमेल और किसी चैटिंग समाज के इर्द गिर्द सिमटने लगा, तो वेबदुनिया से बहुत ज्यादा उम्मीद समझदारी नहीं थी, लेकिन 15 साल बाद दिल्ली छोड़, इंदौर से की गई यह पहल अपनी सकारात्मकता, कलात्मकता और सफलता की मिसाल लगती है।
 
इस वेबसाइट की समाचारपरकता और कंटेंट के बारे में तो बहुत कुछ कहा जा चुका होगा। मेरी नजर में इसे जो चीज सबसे अलग करती है, वह है इसकी अंतरराष्ट्रीयता। नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में जब हिन्दी के समाचारपत्र अपने कंप्यूटरों पर साझा फॉन्टों की लड़ाई लड़ रहे थे, वेबदुनिया उसी वक्त उनसे आगे निकलकर अंतरराष्ट्रीय प्रोवाइडरों के लिए हिन्दी फॉन्ट जुटाने और उन्हें कंप्यूटरों के कॉम्पेटेबेल बनाने में जुट गया था। कोई हैरानी नहीं कि आज गूगल और याहू और हॉटमेल भारत के 24-25 करोड़ इंटरनेट यूजरों के बीच इस कदर छाए हैं क्योंकि उन्हें हिन्दी (या कई दूसरी भाषाओं में भी) में पेश किए जाने लायक इसी वेबदुनिया ने तैयार किया है। उनके फॉन्टों की डिजाइन से लेकर उन्हें हिन्दी में उतारने तक में इसकी एक अनदेखी भूमिका रही है।
 
जिस वक्त गलाकाटू प्रतियोगिता में हिन्दी वेबसाइटें प्रतियोगियों से होड़ लेने में लगी थीं, उस वक्त भी वेबदुनिया ने आगे बढ़कर साझीदारी का फैसला किया। उसने बीबीसी तथा डॉयचे वेले जैसे भरोसेमंद अंतरराष्ट्रीय समाचार संगठनों से गठजोड़ किया। इस पूरी कसरत का हिस्सा होने के नाते मैं ख़ुद को भाग्यशाली मानता हूं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वेबदुनिया के तंत्र को बारीकी से समझना मेरे लिए उससे भी अहम रहा। मुनाफे और क्लिक के दबाव में आज भले ही अंतरराष्ट्रीय समाचार संगठन हिन्दी सहित कई भाषाओं में दम तोड़ रहे हों लेकिन वे कोई जगह खाली नहीं कर रहे हैं क्योंकि जो मुश्किल दौर था, वह वेबदुनिया जैसी वेबसाइटों ने भर रखा है।
 
भारत में कहा जाता है कि खबरें दिल्ली में फूटती हैं और समाचार संगठन के लिए दिल्ली में होना जरूरी है। वेबदुनिया ने लगातार इसे ग़लत साबित किया है। इंदौर में होते हुए भी इसने खबरों से समझौता नहीं किया है और आज हिन्दी के सैकड़ों वेबसाइटों के बीच भी अगर इसने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान बना रखी है, तो शायद यह उनका पेशेवर रवैया ही रहा होगा। यह बात अलग है कि इंटरनेट के उछाल और सोशल मीडिया के उभार ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को भावनाएं जताने और छप जाने का मौका दिया है।
 
इस मौके ने किसी रवीश कुमार, किसी अविनाश दास, किसी शिवप्रसाद जोशी और किसी विनीत कुमार जैसे चेहरों को भी चमकाया है, जो आज हिन्दी की वजह से पहचान बना चुके हैं। शायद अखबारी संस्कृति में उन्हें यह मौका न मिला होता, जो बड़े नामों के पीछे भागा करता था। इन्होंने हिन्दी के जो प्रयोग किए हैं, वे सर्वथा नए हैं और जिनके लिए पहले बहुत स्कोप नहीं हुआ करता था। लेकिन इस बात को भी ख्याल में रखना चाहिए कि इन लोगों को प्लैटफॉर्म भी वेबदुनिया जैसी वेबसाइटों ने ही दिया। “कार्य पथ प्रगति पर है” जैसी अनुवादपरक सरकारी हिन्दी और अंग्रेजी अक्षरों को घुसा देने की अति प्रयोगधर्मिता के बीच वेबदुनिया ने पिछले डेढ़ दशक में जो संयम और साहस के साथ प्रयोगवादी हिन्दी को अपनाया है, वह उसे भरोसेमंद भी बनाता है और लोकप्रिय भी। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसे कई 15 साल वेबदुनिया का इंतजार कर रहे हैं।

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