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सतर्कता हर दिन की क्यों नहीं?

क्यों नहीं रहते हम हमेशा तैयार?

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संदीपसिंह सिसोदिया

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मुंबई हमले के एक साल होने पर पूरे देश में रस्मी तौर पर सुरक्षा प्रबंध कड़े कर दिए गए हैं। हर जगह हथियारों से लैस सुरक्षाबलों और बेरिकेड्स को देख एक साल पुराने जख्म फिर से हरे हो रहे है। रेलवे स्टेशन और बस अड्डों पर आते-जाते मेटल डिटेक्टर की बीप के साथ ही सुरक्षाकर्मियों की आँखें हर यात्री को संदेह भरी निगाहों से देख रही है।

हवाई अड्डे को जाती सभी गाड़ियों को दो-तीन जगह चेक पॉइंट से गुजरना पड़ रहा है। सिनेमा घरों में स्लाइड शो के जरिए संदिग्ध वस्तुओं के बारे में चेतावनी दिखाई जा रही है। खुफिया एजेंसियाँ लगातार अलर्ट जारी कर रही है। सरकार ने आतंक की इस बरसी पर सुरक्षा के काफी कड़े इंतजाम किए हैं।

पर कुल मिला कर यह सारे इंतजाम न चाहते हुए भी बार-बार हमें आतंक भरे तीन दिनों की याद दिलाते हैं। मन में सवाल उठता है अगर इनमें से थोड़े भी इंतजाम एक साल पहले हुए होते तो क्या इतने मासूम लोगों की जान नहीं बच जाती? क्यों सरकार सिर्फ कुछ चुनिंदा दिनों पर ही सक्रिय होती है। क्यों नहीं ऐसी सुरक्षा हमेशा ही रखी जाती है।

कहते है सावधान रहना सुरक्षा की सबसे पहली जरूरत है, पर आम दिनों में न तो सावधानी दिखती है न ही सुरक्षा। सरकार जब भी सुरक्षा पुख्ता करने का दावा करती है यह जोड़ना नहीं भूलती कि हम हर किसी को सुरक्षा नहीं दे सकते या आतंकी हमलों से पूरी तरह नहीं बचा जा सकता।

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बहुत से सुरक्षा विशेषज्ञ मानते है कि पिछले एक साल में कोई बड़ा हमला नहीं होना सजगता और सतर्कता की निशानी है पर आतंकी हमलों की सारी प्लानिंग बाहर के देशों में हो रही है उन्हें अमल में लाने के लिए स्थानीय स्लीपर सेल की मदद से अंजाम दिया जाता है तो ऐसे तत्वों की पहचान करने में कहाँ चूक हो रही है, क्या भरोसा कि लश्कर और अल-कायदा के लोग किसी अगले हमले की तैयारी में लगे हों और मौका पाते ही इसे अंजाम दे दें।

बार-बार संसाधनों का रोना रोते अधिकारी कोई ठोस एक्शन प्लान क्यों नहीं बनाते है, अगर सुरक्षाबलों में कार्यबल की कमी है तो इसमें इजाफा करना होगा। क्यों हम हर बार भूल जाते है कि भारत में लाखों पढ़े-लिखे लोग बेरोजगार हैं उनमें से कितने ही लोग सुरक्षाबलों और पुलिस में नौकरी पा सकते हैं।

सिटीजन पुलिसिंग की तर्ज पर लोगों को साथ जोड़ने और जिम्मेदारी देने के सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं। मुखबिर तंत्र को मजबूत करने की भी जरूरत है, मामूली से मामूली सूचनाओं का विश्लेषण कर उस पर समय पर कार्रवाई की जरूरत है।

सामाजिक तौर पर जनता को भी अपनी जिम्मेदारी समझना होगी, बड़ी हैरत की बात है कि 26/11 के बाद मोमबत्ती जलाने और हमले के जगहों पर मौन रख कड़ा विरोध जताने वाली मुंबई में इस साल हुए चुनाव में बीते कई सालों का सबसे कम वोटिंग टर्न-अराउंड दर्ज किया गया है।

हर भारतीय की सुरक्षा के लिए सरकार जिम्मेदार है और इसी तरह हर भारतीय नागरिक की भी सरकार और देश के प्रति जिम्मेदारी बनती है। जिस दिन दोनों को यह बात समझ में आ गई स्थिति बदलते देर नहीं लगेगी। सुरक्षा और सजगता के नाम पर सतही प्रदर्शन से आतंकवाद और हमलों को नहीं रोका जा सकता। इन्हें रोकने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और मजबूत इरादों की दरकार है।

जब चंद मुट्ठी भर लोगों की एकता हम एक अरब लोगों के बिखराव और लापरवाही पर भारी पड़ जाती है तब हम बरसों के अलसाए जागते हैं। और फिर सो जाते हैं जब तक कि अगला धमाका हमारे कानों के पास ना हो जाए। आतंकवाद से ज्यादा यह अकर्मण्यता ही हमारी सुरक्षा का दुश्मन है, समय रहते इसे ही सुधारना होगा। ईमानदारी से सब प्रयास करें तो तस्वीर जरूर बदलेगी।

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