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मुंबई हमले की पहली बरसी

26 नवंबर : फिर कभी ना आए लौटकर

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राजश्री कासलीवाल

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जीवन में कभी भी ऐसी बरसी मनाने का मौका न आए और ना ही कोई ऐसा हादसा, ऐसा हमला फिर कभी घटित हो। आतंकी हमले इंसान को पूरी तरह हिलाकर रख देते है। ये हमले उन लोगों के लिए भी अच्छे साबित नहीं होते जिन्होंने ये हमले करवाएँ है। जिन्होंने इन हमलों की साजिश रची है और उन गरीब, मजबूर आतंकी विचार रखने वाले या क्रुद्ध व्यक्तियों को इनमें शामिल कर इन आतंकी हमलों को अंजाम देने की जुर्रत की है।

11 सितंबर 2001 का वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का हमला हो या 26 नवंबर 2008 का मुंबई ताज होटल पर हुआ वो आतंकी हमला। जब भ‍ी इसकी आहट दिल पर महसूस होती है, सिर से लेकर पैर तक का पूरा शरीर तमतमा उठता है, पूरे शरीर में एक अजीब सी भगदड़, एक अजीब हलचल और शरीर में बहते खून में एक अलग सी कमसमाहट जाग उठती है। कुछ समय के लिए दिल कह उठता है 'हाय रे ये आतंकी और उनके ये दिल को दुखाने वाले हमले।'

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जीवन में हमेशा ही ऐसा होता है कि कुछ अच्छी ‍चीजें दिल को सुख-सुकून देती है। इस तरह के हादसे हमेशा ही देश-दुनिया और शहर-गाँव को अपनी दहशत के चपेट में लेते है। 26 नवंबर को हुए आतंकी हमले भी हम आज तक नहीं भूल पाएँ फिर वह मुंबई कैसे भूल पाएगी, जिसने करीब साठ घंटों ‍तक आतंकियों का वह कहर सहा है।

होटल ताज को कब्जे में लेकर इस तरह की तबाही मचाना जो कभी किसी ने सपने में भी नहीं सोचा, सचमुच दुखद है। अब पूरा एक साल हो गया है। उस आतंकी हमले में मारे गए वे बेगुनाह लोग, जो इस कल्पना से बहुत दूर रहे होंगे कि अगले ही कुछ पलों में उनकी मौत होटल के अंदर उनका इंतजार कर रही है। जिन्हें ये भी पता नहीं था कि अगले ही पल उनके और उनके परिवारवालों के लिए तबाही की, दुख की एक ऐसी बाढ़ लेकर आएगा जो ‍इस ‍जीवन में फिर कभी नहीं भर सकती।

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उस हमले में शामिल हुए पुलिस के जाँबाज अफसर जिन्होंने मौके पर ही अपनी जान गँवाई। सुबह घर से निकलते समय कौन सोचता है कि क्या वह शाम को सुरक्षित घर लौट पाएगा। अपने और अपने परिवार की‍ हिफाजत करने लायक वह रह पाएगा भी या नहीं। कहने को तो दुनिया वाले पुलिस को भी बहुत नाम रखते है। उन पर हमेशा यह इल्जाम होता है कि पुलिस हर जगह हमेशा देर से ही पहुँचती है। लेकिन ये क्या... सही समय पर पहुँचे उन जाँबाजों को तो उन आतंकियों की गोलियों ने लहुलूहान कर दिया। मौके पर शहीद हुए उन जाँबाजों के लिए किसी के भी मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। और आज भ‍ी श‍हीद हुए उन जाँबाज अफसरों के परिवार की खबर लेने कोई नहीं गया होगा।

यह बात यहीं पर खत्म नहीं होती क्योंकि पुलिस वालों को तो शह‍ीद का नाम दे दिया गया। लेकिन उन आतंकियों का क्या जिन्होंने अपनी भी जानें इस हमले के दौरान गँवाई। यहाँ सवाल यह नहीं है कि हमले में जिन अफसरों ने जान गँवाई वे बहु‍त ही अच्छे इंसान थे और जिन आतंकियों ने जाव गँवाई वे बहुत बुरे। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि जान चाहे कोई भी, किसी की भी गई हो, लेकिन नुकसान तो सभी का हुआ।

इस हमले में शामिल या यूँ कहे कि किसी भी हमले में शामिल आतंकी के घरवालों का भी बहुत नुकसान हुआ। उस माँ ने अपना बेटा, उस पत्नी ने अपना पति खो दिया यानी उसने अपने जीवन का सबकुछ खो दिया। हो सकता है कि आतंकी हमले में शामिल रहा बेटा उस माँ का इकलौता हो जिसकी उम्र 70 से पार गुजर रही हो,लेकिन ऐसे में उस बेटे कि चाहे जो भी मजबूरी रही हो लेकिन ये किसी भी हद तक सही नहीं....।

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हमले के लिए इन मासूमों को तैयार करने वाले उन बड़े और पैसे से भरी जेबों के उन मालिकों के आगे एक गरीब इंसान की कोई बिसात नहीं होती और इसलिए जान का सौदा करके ये सौदागर इस तरह के हमलों को अंजाम देकर दुनिया में तबाही मचाते है और अपने दादागिरी के बल पर हर किसी को नुकसान पहँचाने में सफल हो जाते है।

अंत में सिर्फ इतना ही कि... करीब साठ घंटों तक मुंबई ने और पूरे देश ने वह खौफनाक मँजर देखा था, लेकिन अब डर तो बस इस बात का है कि ये देश, यहाँ के लोग और खासकर राजनेता इस हादसे को किसी दुस्वप्न की तरह भुला न दें क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो फिर हम मज़बूर रहेंगे बार-बार ऐसे ही हादसे देखने के लिए। और तब फिर भारत पर अंग्रेजों की तरह ही राज करने वाला कोई दूसरा गुंडाराज आ जाएगा जिसे इस देश से बाहर खदेड़ना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा।

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