राजस्थान हो या गुजरात। चाहे हरियाणा हो पंजाब या उत्तर प्रदेश। इन राज्यों ने कई बड़े लोक कलाकार दिए हैं। स्पष्ट कहें तो इन्हीं कलाकारों की वजह से लोक-कला और लोक-शैली जीवित है। लेकिन अफसोसजनक है कि दूर- दराजों, गांवों, कस्बों में अपना कर्म समझकर लोक-गायन कर रहे कलाकार अपने दम पर ही जिंदा है, उन्हें किसी तरह की सरकारी मदद नहीं मिलती। सीधे-सीधे कहें तो हमारे सिस्टम में कहीं भी लोक-कलाओं, लोक-संस्कृति और कलाकारों के संवर्धन में दिलचस्पी नजर नहीं आती। सीधे-सादे बंजारा और कबिलाई संस्कृति के कलाकार अपनी भेड़-बकरियों के साथ तपते रेगिस्तान में मीलों पैदल चलते हुए बगैर किसी शिकवे- गिले के गाते- बजाते और गुनगुनाते रहते हैं।
गुजरात के कच्छ के एक ऐसे ही मूर्धन्य और बेहद लोकप्रिय लोक-गायक मुरालाला मारवाड़ा से वेबदुनिया ने लोककलाओं की कुछ इसी तरह की बदहाली पर विशेष चर्चा की। वे खुद तो बेहद लोकप्रिय हैं, लेकिन उनसे बातचीत में उनके पीछे आने वाले लोक कलाकारों का दर्द साफ झलकता है।
सवाल : गुजरात में दूसरे छोटे लोक-कलाकारों की क्या स्थिति है, क्या उन्हें भी आपकी तरह आयोजनों में बुलाया जाता है?
जवाब : मैं तो सच बोलूंगा, ठीक है, हमें तो परमात्मा दे रहे हैं, दाल- रोटी मिल रही है, लेकिन छोटे कलाकारों को आयोजनों में बुलाया जाना चाहिए, क्योंकि ये आगे बढ़ेंगे तो अच्छा लगेगा। मैं हूं,प्रहलाद टिपानिया जी हैं, हेमंत जी हैं, हम सब गा रहे हैं। सम्मान मिल रहा है, लेकिन और भी कलाकार हैं, जिन्हें मान-सम्मान मिलना चाहिए।
सवाल : क्या लोक कलाओं के कलाकारों पर किसी तरह का रोजी रोटी का संकट है?
जवाब : देखिए, छोटे लोक गायकों, कलाकारों को भी काम मिलना चाहिए, गाने वाले हैं, बजाने वाले हैं, कई तरह के लोग लोक-कलाओं से जुड़े हुए हैं। वे बाहर निकलेंगे तो उन्हें प्रोत्साहन मिलेगा, उन्हें पता चलेगा कि कबीर बाणी और लोक-कलाओं को लेकर क्या माहौल है देश में। इससे उनकी स्थिति भी सुधरेगी।
सवाल : आपको खुशी होगी, अगर दूसरे कलाकारों के आगे बढ़ेंगे तो?
जवाब : बिल्कुल, उन्हें काम मिलना चाहिए। कबीर साहब के नाम पर देश में कई जगह काम चल रहा है। वो आगे बढ़ेंगे और कबीर वाणी से जुड़ेगे तो अच्छा लगेगा। सभी तरह के कलाकारों को मान-सम्मान मिलना चाहिए।
सवाल : क्या नई पीढ़ी के कलाकार लोक-कलाओं में आ रहे हैं, उनकी दिलचस्पी है?
जवाब : यहां कई कलाकार काम कर रहे हैं, जो मेरे साथ जुड़े हैं वो बाहर निकले हैं, लेकिन और भी कई कलाकार है नई पीढ़ी में, वे यहीं अपने-अपने इलाकों में गा-बजा रहे हैं।
सवाल : आपकी 11वीं पीढ़ी है जो लोक-गायन कर रही है। किन किन शैलियों में गाते हैं?
जवाब : हां, यह हमारी 11वीं पीढ़ी है, जो लोक-गायन को समर्पित है। आगे भी गायन चलता रहेगा। हम गुजराती, सिंध, राजस्थानी सब तरह की बोलियों में भजन, निर्गुण और लोकगीत आदि गाते हैं।
सवाल : आपकी बेटी नंदिनी भी सीख रही हैं, क्या आगे वो आपकी विरासत को संभालेगी?
जवाब : वो सीख रही हैं, उसकी दिलचस्पी है, गीत-संगीत की जानकारी लेती है, सभी तरह की संगीत शैलियों के बारे में सीख रही हैं। मेरे साथ संगत करती है। अच्छा लगता है।
सवाल : देश में लोक कलाओं का क्या भविष्य है?
जवाब : यह सब माहौल के उपर निर्भर है, माहौल होगा सुनने समझने का तो कलाएं आगे बढ़ेंगी, हमें माहौल तैयार करना चाहिए, गीत-संगीत और कलाओं के लिए वातावरण बनाना चाहिए।
सवाल : कभी सरकार की तरफ से लोक कलाकारों को बढ़ावा, मदद आदि दी जाती है, कोई योजना जिसमें लोक-कलाओं को प्रोत्साहन या लाभ मिलता हो?
जवाब : नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है, सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिलती, कोई योजना तो नहीं है। हम तो अपना कर्म कर रहे हैं, हम तो कलाओं के लिए बलिदान दे रहे हैं। हम अपना काम कर रहे हैं।
मुरालाला के बारे में कुछ दिलचस्प बातें
वे कभी स्कूल नहीं गए। न पढ़ना आता है और न ही लिखना। लेकिन अपने इकतारे और मंजीरे के साथ जब वे कबीर के भजन, मीरा के पद, शाह लतीफ भिटाई और बुल्लेशाह के कलाम गाते हैं तो देखकर लगता है कि उन्होंने अपने निर्गुण को पा लिया है। मधुर मुस्कान में गाते हुए उनके चेहरे से आध्यात्म के गहरे अर्थ छलकते नजर आते हैं।
निर्गुणी धारा में आए तो इसी के हो गए
लोक गायकी की अपनी शुरुआत के बारे में मुरालाला बताते हैं कि पहले वे खासतौर से सिंधी सूफी संत और कवि शाह लतीफ भिटाई के कलाम गाते थे। भिटाई सिंधी भाषा और संप्रदाय में बेहद ही लोकप्रिय संत और कवि माने जाते हैं। बाद में जब एक बार वे इस निर्गुणी धारा में शामिल हुए तो फिर इसी के होकर रह गए। बाद में कबीर, मीरा, बुल्लेशाह और संत रविदास समेत कई और संतों के भजन, पद और सबद गाने लगे। गायकी का दायरा बढ़ने के साथ ही वे हिंदी, गुजराती, सिंधी भाषा के गीत, दोहे, भजन और कलाम में भी हाथ आजमाने लगे। मुरालाला ने बताया कि वे राजस्थानी लोक गीतों के साथ ही रामदेव बाबा के भजन भी गाते हैं।
पुरखों को जाता है लोक गायकी का श्रेय
अपने भीतर आई लोक गायकी का श्रेय वे अपने पुरखों को देते हैं। वे बताते हैं कि 8 साल की उम्र में ही उन्होंने गाना शुरू किया था। वे अपने दादा, पिता और चाचा को गाते हुए देखते थे। इनके परिवार के कारण ही कच्छ के गांव जनान में गायन का वातावरण था। मुरालाला बताते हैं कि वे अपने कुनबे की 11वीं पीढ़ी हैं जो इस सूफी संगीत या यूं कहें कि लोक गायकी को आगे बढ़ा रही है। सधे हुए गायन के लिए वे अपने घंटों तक किए गए रियाज को मानते हैं। उनका कहना है कि वे कबीर, मीरा और बुल्लेशाह को सुनने के लिए कई घंटों तक रेडियो पर इंतजार करते रहते थे।
बेटी नंदिनी बढ़ाएगी परंपरा आगे
पिछले करीब 7 से 8 साल से कबीर यात्रा से जुड़े मुरालाला भारत समेत कई देशों में सैकड़ों प्रस्तुतियां दे चुके हैं। लोक गायिकी की इस परंपरा को बरकरार रखने के लिए वे अपनी बेटी नंदिनी को भी साथ रखते हैं और रियाज करवाते हैं। कच्छ के जनान गांव में जन्में मुरालाला कबीर प्रोजेक्ट एमटीवी के कोक स्टूडियो और शाह लतीफ भिटाई पोएट्री फेस्टिवल से भी जुड़े हुए हैं। वे अपने प्रदेश के मठों में भी गायन करते हैं। मुराराला यूं तो गुजराती और राजस्थानी शैलियों के साथ ही कई तरह की शैली में गाते हैं, लेकिन उनका वारी जाऊं रे बलिहारी जाऊं रे, सांवरिया रा नाम हजार, मैं कैसे बांटू कंकूपतरी और मन लागो यार मेरो फकीरी में बेहद लोकप्रिय हैं।