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भारतीय शहरीकरण आजादी के बाद कहां से कहां तक?

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अनिल त्रिवेदी

, सोमवार, 15 अगस्त 2022 (21:21 IST)
भारत की आजादी के अमृत महोत्सव में 75वीं वर्षगांठ के पूरे होने का दिन 15 अगस्त है। 75 साल में हमारे शहरों में क्या कुछ बदलाव हुआ है? 1947 से 2022 के बीच देश के सभी शहरों में बड़ा बदलाव हुआ है। चूंकि मैं मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में जन्मा और बड़ा हुआ तो भारतीय शहरों में इन 75 वर्षों में हुए बदलावों को इंदौर शहर को प्रतीक मानकर यह लेख लिखा है। कमोबेश सारे भारत में शहरीकरण की यह या ऐसी ही कहानी है।
 
भारत और इंदौर शहर की जिंदगी और बसाहट में हुए बदलावों को देखें, समझें और परखें तो आज के भारत और इंदौर को भरोसा ही नहीं होगा कि कुल जमा साढ़े तीन या 4 पीढ़ियों में ही इतना बड़ा बदलाव भारत के इंदौर जैसे शहरों ने देखा। आजादी के काल में पैदा हुए लोगों की आयु 7 दशक पूरे कर 8वें दशक में पहुंच चुकी है।
 
आज इंदौर में जिंदा 70, 80 और 90 की आयु के नागरिकों के मन में बहुत सारे बदलाव की यादें हैं। वे बच्चे से बुजुर्ग हो गए, पर इंदौर दिन-प्रतिदिन तेजी से भागते-दौड़ते और आगे बढ़ते लाखों युवाओं का शहर ही नहीं, युवाओं के सपनों को पूरा करने वाले केंद्र की तरह बनता जा रहा है। पहले देशभर से लोग शहरों में रोजगार हेतु आते-जाते और बसते जाते थे। आज शहरों में सपनों का सौदा करने आते हैं। पुराने इंदौर में अधिकतर या सब अपने थे। आज इंदौर में सपनों का समुद्र है, पर अपनों का अकाल है। कोई किसी को नहीं जानता और कोई किसी को नहीं मानता।
 
आज का इंदौर पहले मूलत: एक कस्बा था, जो 75 सालों के अंतराल में इतना विस्तारित हो गया कि क्या यह वही कस्बेनुमा इंदौर है? या हम कहीं और आ गए हैं? यह भौंचक्का भाव हम सबके मन में है। इंदौर की कहानी इंदौर के लोगों के पराक्रम की कहानी है। इंदौर मूलत: सरकारी नहीं, असरकारी बसाहट या शहर है। आजादी के दिन होलकर रियासत से मध्यभारत का मुख्य व्यावसायिक शहर बना इंदौर।
 
मध्यभारत में 2 बड़ी रियासतें थीं होलकर और सिंधिया यानी इंदौर और ग्वालियर। इसी से आजादी के बाद इंदौर को रियासतों के विलीनीकरण के फलस्वरूप अंशकालीन राजधानी की भूमिका भी मिली, जो 1956 में मध्यप्रदेश बनने पर इंदौर से भोपाल चली गई। मध्यभारत में ग्वालियर और इंदौर में 6-6 माह का राजकीय बंटवारा था।
 
मध्यभारत विधानसभा जब इंदौर में आती तो गांधी हॉल में लगती थी और संभागायुक्त कार्यालय मध्यभारत का सचिवालय था। 1947 से 1956 यानी करीब 8 साल इंदौर राजकाज का आधा-अधूरा शहर रहा। पर आजादी के पहले से आज तक इंदौर व्यावसायिक राजधानी अपने नागरिकों के दम पर बना और उसमें कोई फेरबदल नहीं हुआ। इसे यों भी कह सकते हैं कि इंदौर एक अंतहीन व्यवसाय है। इंदौर में अपने-पराये की समझ भले ही कम-ज्यादा हो, पर हर धंधे की समझ जीवन के हर क्षेत्र में है।
 
आजादी के बाद 1 दशक तक इंदौर में बसाहट और रहन-सहन में ज्यादा भेद नहीं थे। मूल इंदौर ऐसा था कि एक छोर से दूसरे छोर तक हंसते-खेलते व चलते-चलते सभी आते-जाते थे। इसलिए नागरिकों में जान-पहचान का संकट नहीं था। पैदल, साइकल और तांगे यही मुख्य आवागमन के साधन थे। आज ये तीनों ही साधन खरमोर की तरह लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल होते जा रहे हैं। बड़ा गणपति से घंटाघर और जूनी इंदौर से मिल एरिया मुख्य इंदौर खत्म। इसके चारों ओर खेत और छोटे-छोटे गांव और खेती-बाड़ी का माहौल।
 
जूनी इंदौर सबसे मूल इंदौर। 2 नदियों और छोटी-छोटी टेकरीनुमा बसाहट चाहें तो आज भी इसे हम तलाश या खोज सकते हैं। उस समय का इंदौर नदी की सभ्यता का शहर था। नदी की सभ्यता यानी बच्चे, युवा और बुजुर्ग भी इन नदियों में नहाते-धोते और तैरना सीखते थे। नौलखा पुल, बारामत्था, छत्रीबाग और कृष्णपुरा के घाट नदी के संस्कार उत्सव और मेलजोल के स्थल थे।
 
आजादी के पहले से लेकर आज तक इंदौर में देश के हर हिस्से से लोग आए और बसे और इंदौर ने सबको बसने दिया। हर तरफ से तरह-तरह के लोग इंदौर आए और आज इंदौर में पुराने समय से रह रहे लोगों की तादाद बहुत कम हो गई और आज के नए समय में 5-10-20 साल से ही इंदौर में आए और बसे हैं, वे पहले के इंदौर को वैसा नहीं जानते, जैसा कि आजादी से पहले रहने वाले अपने शहर और बस्तियों को जानते-समझते हैं।
 
जो लोग इंदौर में रहते तो हैं, पर इंदौर के लोगों की विरासत और इतिहास को प्रत्यक्ष रूप से अवसर न पाने से पहचानते, समझते और जानते कम हैं। शायद उन्हें लगता होगा कि इंदौर शुरू से ही बड़ा शहर है। इंदौर के कई रूप-रंग हैं। इंदौर के आसपास खेती-बाड़ी की जमीनों पर जो बसाहटें बसी हैं, वे तो 5-10 साल पहले खेत थे। ऐसा इंदौर अब आधे से ज्यादा हो गया है।
 
जहां पुरानी बसाहट का कोई इतिहास ही नहीं है, वहां तो शहरीकरण की शुरुआत है। इसका नतीजा यह हो गया है कि नए बन रहे इंदौर में समाधान कम और घमासान ज्यादा हो गया है। आज यदि गांधीनगर से बिचौली मर्दाना और तलावली चांदा से सिमरोल तक इंदौर ही इंदौर हो गया तो आपसी मेलजोल व जान-पहचान तो इतिहास बनेंगे ही। दिनभर बाइक व कार वाहन की रेलमपेल और भागमभाग इंदौर की मुख्य जीवनचर्या है। किसी को कभी भी सोचने-समझने व विचारने की गुंजाइश ही नहीं है। यह आज के इंदौर का नया रूप है।
 
इंदौर ने सही मायने में आजादी के बाद से आज तक दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से अराजक रूप से विस्तारित करने के दर्शन ने जड़ें जमा ली हैं। आज इंदौर में जहां भी कोई खाली जमीन है, वहां-वहां कोई-न-कोई प्रोजक्ट निरंतर जन्म लेता ही रहता है। लाख-दो लाख से ज्यादा लोग सुबह से रात तक मोबाइल और बाइक से लैस होकर घूमते रहते हैं। पूछने पर कि 'आजकल क्या चल रहा है?' तो एकमत से जवाब मिलता है कि 'अंकल प्रॉपर्टी का कामकाज है।'
 
आज की युवा पीढ़ी भरोसा नहीं करेगी कि आजादी के समय इंदौर के कई घरों में बिजली ही नहीं थी। शाम को इंदौर की अधिकांश बसाहटों में शाम होने से पहले लालटेन और चिमनी को साफ करना मुख्य दृश्य था। सड़क पर कहीं-कहीं ही बिजली के बल्ब लगे होते थे।
 
60 से 70 के दशक के बीच सड़क पर ट्यूबलाइट लगने लगी और गली-मोहल्लों में ट्यूबलाइट लगवाना गली-मोहल्लों की राजनीति का मुख्य विषय था। सुरेश सेठ जब महापौर बने तो वैपर लैम्प ओवरब्रिज पर लगे तो गली-मोहल्लों की राजनीति में ट्यूबलाइट का जलवा खत्म हुआ और वैपर लैम्प लगवाना सबसे लोकप्रिय विषय बन गया।
 
आज के इंदौर में ये गतिविधियां इतिहास बन गई हैं। आज इंदौर चकाचौंध का शहर बन गया है। नगरपालिका परिषद और नगर निगम के शुरुआती दौर में इंदौर के घरों में बहुत कम रेडियो थे। तो इंदौर के कई मोहल्लों में चौराहों पर सार्वजनिक रेडियो गुमटी लगाई गई और शाम को 3-4 घंटे सार्वजनिक रेडियो लोगों को सुनने को मिलता था। इसी तरह शहर की पान की दुकानों पर क्रिकेट और हॉकी का आंखों देखा हाल सुनना शहर में आम बात थी। 70 के दशक के आते-आते रेडियो-ट्रांजिस्टर घर-घर आ गए और वह जमाना चला गया।
 
पानी के इंदौर में कई स्रोत थे। आजादी के समय कुएं-बावड़ी और नदी-तालाब तथा आजादी से पहले ही नल होने से शहरभर के मोहल्लों-बस्तियों में सार्वजनिक नलों से अधिकतर घरों में पानी भरना दिनचर्या का मुख्य अंग था। गर्मी और जल संकट के दिनों में लोग नलों पर तरह-तरह की वस्तुओं को रखकर अपना क्रम आरक्षित कर लेते थे। सार्वजनिक नल भी इंदौर में मेलजोल बढ़ाने, प्रेम-प्रसंग, राग-द्वेष के साथ ही नगरीय जीवन में स्वभाव की समझ की खुली पाठशाला थे। यशवंत सागर इंदौर का सबसे बड़ा जलस्रोत शुरू से रहा है। गर्मी आने पर जब जलस्तर कम होने लगता था तो सारा शहर चिंतित हो जाता था और अखबारों में यह मुख्य समाचार होता था।
 
पानी की कमी का सवाल इंदौर की कहानी का मुख्य हिस्सा है। 70-80 के दशक में नर्मदा से पानी लाने से इंदौर का नजरिया ही बदल गया। नर्मदा से पहले एक-डेढ़ दशक तक हैडपंप इंदौर में नया विकल्प आया, पर बिजली आने से सब ट्यूबवेलों को लगाने-लगवाने की धारा में बह गए। तब से अब तक वैध-अवैध ट्यूबवेल लगाने का सिलसिला जारी है।
 
कॉलोनी के हर प्लॉट पर खुद का ट्यूबवेल खुदवाना लगवाना और फिर जमीन के पानी का स्तर नीचे जाने पर गोष्ठी-सेमिनार आदि इंदौर के स्वभाव का मुख्य विषय है। पर इंदौर में तो क्या, देश-दुनिया में पीने का पानी बाजार का मुख्य विषय बन गया है। अब आज हम पानी को भी खरीदने-बेचने वाले हो गए हैं। पानी की बोतल से लेकर कंटेनरों और टैंकरों से निरंतर बारहमासी व्यवसाय आज के इंदौर की विशेषज्ञता है। जो कहीं न मिले, उसे खरीद लो और जो बिक न सके, उसे बेच दो, यही व्यवसायिक कुशलता का घोष वाक्य है। आज के इंदौर में हम सब कुछ बेचने-खरीदने में लगे हैं।
 
इंदौर आज से ही नहीं, लंबे समय से जमीन से जुड़ा शहर बनने में निरंतर लगा हुआ है। जमीन को लेकर इंदौर का ज्ञान गणित व गुणा-भाग अनूठा है। सारा शहर खाली जमीन को वर्गफुट के भाव में ही देखता रह दिन-रात सुखी-दुःखी होता रहता है। जमीन के भावों ने शहरी जिंदगी के सोच-समझ और दर्शन को पूरी तरह बदल दिया है।
 
कभी इंदौर जैसा शहर, जो आजादी के समय में शहरभर के घरोपे और मेल-मिलाप और आत्मीयता का हामी हुआ करता था, वह दिन-ब-दिन परिवारों की आत्मीयता को भुलाकर पारिवारिक कलह का शिकार होने से परहेज नहीं करने लगा है। आजादी के बाद और उससे पहले भी हमारे शहर की बसाहट मिली-जुली हुआ करती थी। अब हम अलग-अलग रहकर शांति और सुरक्षा की हिमायत करने लगे हैं और अपने ही नागरिकों से अजनबी जैसा व्यवहार करने के साथ नए नागरिकों को सीमित दायरे में रहना, जीवन जीना और सोचने-समझने-विचारने का दायरा निरंतर सिकोड़ने की राह पर चल पड़े हैं।
 
सूचना क्रांति और तकनीक के काल में इंदौर जैसे शहर में जो ढांचा आजादी के बाद उपलब्ध था, वह समूचा बदल गया है और इंदौर जैसे कस्बे से बड़े शहर में बदले शहर में शिक्षा का पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। निजी और सरकारी कॉलेजों से चली हमारी शिक्षा यात्रा जागतिक होती जा रही है।
 
आजादी के बाद इंदौर कला, कानून और विज्ञान की शिक्षा का केंद्र था, पर 2 दशकों में तकनीकी और प्रबंधन की शिक्षा का शहर हो गया। आईटी की शिक्षा के प्रसार का नतीजा इंदौर के समाज में स्पष्ट दिखाई दे रहा है। युवा पीढ़ी जिस तेजी से देश-दुनिया में ऊंची तनख्वाह की नौकरी पा रही है, उसने सामाजिक सोच में बड़ा बदलाव शुरू किया है। इंदौर में एकाकी पर वैश्विक परिवारों की संख्या बढ़ी है।
 
इंदौर के लोग दुनिया को प्रत्यक्ष देखने-समझने का अवसर पाने लगे हैं। जिसका असर ब्याह-शादी समारोह से दैनंदिन रहन-सहन पर भी दिखाई देने लगा है। खाने-पीने और जीवनशैली में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ता है। धर्मशाला या सड़क पर आजादी के बाद शादी-ब्याह के समारोह छोटे-बड़े सब कोई बेहिचक कर लेते थे, वे सब अब बड़े मैरेज गार्डन, रिसॉर्ट और भव्य होटल में जगह की तलाश में व्यस्त रहते हैं। सड़क पर तो भाड़े की शोभायात्रा और भोजन-भंडारे ही होते हैं।
 
आजादी के बाद सड़कों पर नाटक, सिनेमा, संगीत, कवि सम्मेलन और परिसंवाद होते थे, वे सब अब लुप्तप्राय घटनाओं में बदल गए। अब सड़क पर जगह-जगह चालान बनते हैं। ट्रैफिक जाम होता है। पैदल चलने-फिरने की सुरक्षित जगह नहीं है और लोग पैदल चलने से कतराते नजर आते है। यह भी होता है अरे! आज पैदल कैसे? मानो पैदल चलना मुफलिसी का पर्याय हो। आजादी के बाद के इंदौर में सब कोई तक किसी की पहुंच में नहीं है- न शासन, न प्रशासन, न प्रेस, न नागरिक, न व्यवसायी, न वंचित, न धनाढ्य, न छात्र, न शिक्षक, न वकील, न डॉक्टर।
 
अभी भी हम सबके मन में इंदौर के अंतहीन विस्तार का सपना बना हुआ है। आजादी की वर्षगांठ पर हम सब इंदौर के नागरिक की भूमिका को निरंतर चैतन्य रहकर निरापद और शिकायतविहीन शहर बनाने की ओर क़दम बढ़ाएं, यही आज का इंदौर हमसे सवाल कर रहा है। हम विकास और अंधे विस्तार के भेद को समझेंगे या नहीं?
 
आजादी की वर्षगांठ भी हम सबसे सवाल कर रही है। आजादी के बाद भी हम अपने मन और जीवन में शांत और समाधानकारी समाज हिल-मिलकर क्यों नहीं बना पा रहे हैं? आजादी के 75वें वर्ष में हमारे शहरों के साथ हमारा सोच और समझ कैसी बनती जा रही है? हमारे शहर हमारी संपत्ति नहीं, हमारे रहन-सहन की ऐसी जगह हैं, जहां हम और हमारी अगली पीढ़ी सभ्यता और सोच को आगे बढ़ाती है। हमारे शहर और समूचा जीवन शांत सभ्यताओं को आगे ले जाने वाला जीवंत स्थान है। जीवन का आधार हमारी बसाहट है।
 
बसाहट बड़ी हो या छोटी, सुरुचिपूर्ण और आत्मनिर्भरता से परिपूर्ण होकर, जानते-समझते बसाएंगे तो नागरिकों और व्यवस्था दोनों को समाधानपूर्वक जीवन की आधारभूमि खड़ी करने में मदद मिलेगी। हमारी सोच, समझ और आपसी व्यवहार हमेशा-हमेशा के लिए होना चाहिए। अल्पकालीन और तात्कालिक एकांगी समाधान व्यक्ति और समाज दोनों की तेजस्विता और जीवनी शक्ति को घटाते हैं।
 
कोरोना महामारी ने भी हमें सबक सिखाने का काम किया है। जितना अराजक शहरी विस्तार, उतना जनजीवन अस्त-व्यस्त और असुरक्षित निजी और सार्वजनिक जीवन। न धन और न संपत्ति हमारा सुरक्षा कवच बन पाए। अमृत महोत्सव में आई आजादी की इस 75वीं वर्षगांठ पर हम सब भारत में निरापद शहरी जीवन के बारे में समाधान ढूंढें और उसे साकार करें।
 
कोरोना से बचाव में इम्युनिटी को बनाने और बढ़ाने पर जैसा जोर दिया गया है, वैसा ही शहर विस्तार की इम्युनिटी की जरूरत को जमीन पर साकार करना हमारी-आपकी आजादी की सही और सकारात्मक समझ है। बड़े शहर नहीं, छोटे व मझौले पर हर तरह से व्यवस्थित शहरी बसाहटों में ही स्थायित्व और समाधान है। अंतहीन प्रदूषणकारी शहरी सभ्यताओं का जाल हम सब अराजकतावादी और यंत्रवत तरीके से निजी और सामूहिक विवेकहीनता से भारत में लगातार बिना रुके, समझे तेजी से विकास के नाम पर अंधा विस्तार अपनी अंधी समझ से करते ही जा रहे हैं। (लेखक वरिष्ठ अभिभाषक एवं गांधीवादी विचारक हैं।)
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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