आकाश मार्ग से गंगा जब पृथ्वी पर प्रकट हुई तो भगवान शंकर ने उसे अपनी जटा में धारण किया। शिवजी ने जटा में धारण करने के बाद उसे धरती पर नहीं आने दिया, इससे गंगा क्रोधित हो गई ओर शिवजी के शरीर को शीतल कर दिया। शिवजी ने भी क्रोध में गंगा को जटा में बांध लिया। कई कल्प वर्षो तक गंगा ने जटा में ही तपस्या की। भागीरथ की उपासना से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और समुद्र की पत्नी हुई। एक बार सभी देवी-देवता ब्रह्म लोक में ब्रह्मा की स्तुति करने के लिए वहां पहुंचे वहां गंगा और समुद्र भी गए। वायु के वेग से गंगा का आंचल उड़ गया, इसे देख सभी देवताओं ने अपने मुख नीचे कर लिए परंतु महाभिष नामक राजऋषि गंगा को देखते रहे। यह देखते हुए ब्रह्मा जी ने उसे पृथ्वी लोक पर भेज दिया।
यह देखकर समुद्र ने भी गंगा को मृत्यु लोक में रहने का श्राप दिया। श्राप के कारण विलाप करती गंगा ने ब्रह्मा से विनय किया। ब्रह्मा ने कहा कि गंगा तुम महाकाल वन में शिप्रा के दक्षिण में स्थित शिवलिंग का दर्शन व पूजन करो। गंगा महाकाल वन आई ओर गंगेश्वर महादेव का अपनी सखी शिप्रा के साथ दर्शन-पूजन किया। गंगेश्वर के दर्शन से गंगा श्राप मुक्त हुई उसी समय समुद्र भी वहां उपस्थित हुए ओर गंगा का सम्मान किया। मान्यता है कि गंगेश्वर के दर्शन से सभी तीर्थो की यात्रा का फल प्राप्त होता है ओर मनुष्य अंतकाल में परमगति को प्राप्त करता है।