भारतीय जनता पार्टी के लिए वर्ष 2007 चुनावी सफलताओं, आंतरिक कलह, पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह के हाशिए पर खिसकने, लालकृष्ण आडवाणी के शीर्ष पर आरूढ़ होने और दशकों से छाए वाजपेयी युग के अवसान का रहा।
चुनावी दृष्टि से भाजपा के लिए काफी शुभ रहा वर्ष 2007। इसमें उसने न सिर्फ गुजरात में सरकार और मोदीत्व को बचाने में, बल्कि उत्तराखंड पंजाब और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस से सत्ता छीनने में सफलता पाई। लेकिन इन जीतों का सेहरा राजनाथ की बजाय उनके प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले मोदी, आडवाणी और जेटली के सिर बँधा।
दक्षिण भारत में अपने लिए द्वार खुलने की छह दशकों से बाट जोह रही भाजपा के लिए इस साल कपाट खुले भी, लेकिन पूरी तरह नहीं और उसमें उलझ कर आठ दिन में ही गिर गई दक्षिण भारत में भाजपा की पहली सरकार।
अध्यक्ष राजनाथसिंह के गृह राज्य उत्तरप्रदेश में भाजपा की खूब गत बनी। सारी ताकत झोंक देने के बावजूद बसपा के हाथी के सामने एक न चली। इसने भाजपा की कमर ही नहीं पार्टी अध्यक्ष के स्वाभिमान को भी तोड़ा।
साल के आखिर में कुछ चुनावी सफलताओं से पहले भाजपा को काफी नुकसान भी उठाने पड़े जिससे अध्यक्ष की क्षमताओं पर सवालिया निशान उठने शुरू हो गए। इनमें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी का सिमटना तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद राष्ट्रपति चुनाव में राजग उम्मीदवार भैरोंसिंह शेखावत का बुरी तरह हारना इसी चुनाव में पार्टी के सबसे पुराने और विश्वसनीय सहयोगी दल शिव सेना तक को साथ नहीं रख पाना तृणमूल कांग्रेस का दूर होना राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात में असंतुष्ट गतिविधियों को काबू नहीं कर पाना आदि शामिल हैं।
इन सब असफलताओं के बीच राजनाथ ने पार्टी की शीर्ष नीति निर्धारक इकाई भाजपा संसदीय बोर्ड से मोदी को निकाल और पार्टी के प्रवक्ता पद से अरूण जेटली को हटा कर बड़ी कूटनीति भूलें भी की जिससे भाजपा में आपसी घमासान तेज हुआ।
साल के जाते जाते गुजरात और हिमाचल विजय से भाजपा के चेहरे पर रौनक जरूरी लौटी है। हालाँकि यह देखना होगा कि नए साल में होने वाले दस राज्यों के विधानसभा चुनाव में यह बरकरार रह पाएगी या नहीं। इनमें से भाजपा शासित मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसे अपने किलों को बचा पाना कठिन लग रहा है।
इस साल की सफलताओं से पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी को स्वाभाविक रूप से राष्ट्रीय स्तर तक भारतीय राजनीति में परिर्वतन की बयार बहने का आभास होने लगा है। लेकिन बयार मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक से ही हो कर गुज़रेगी। और अगर वहाँ परिर्वतन की बयार वाकई बह गई तो राजद नेता लालू प्रसाद की यह बात शायद सही साबित हो जाएगी कि आडवाणी के भाग में प्रधानमंत्री बनना नहीं है।
भाजपा की अगुवाई वाले राजग के सिकुड़ते जाने से भी केन्द्र में उसकी वापसी की उम्मीदों को चोट पहुँच सकती है। तृणमूल कांग्रेस ने लगभग साफ कर दिया है कि वह उसका साथ छोड़ने जा रही है। राष्ट्रपति चुनाव में संप्रग उम्मीदवार का साथ देने वाली शिव सेना के प्रमुख ने हाल ही में एनसीपी नेता शरद पवार से गहन चर्चा कर संकेत दिया है कि उनके पास और भी विकल्प हैं।
राजग में कभी 26 दल हुआ करते थे, लेकिन आज छह दल भी उसमें नहीं हैं। गठबंधन का विस्तार किए बिना केन्द्र में सत्ता वापसी का उसका सपना साकार होना संभव नहीं है।