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ओबामा, आर्थिक मंदी और भारत

हमें फॉलो करें ओबामा, आर्थिक मंदी और भारत

संदीप तिवारी

वर्ष 2008 के दौरान अमेरिका में राष्ट्रपति प‍द के लिए हुए चुनावों में डेमोक्रेटिक प्रत्याशी बराक ओबामा की जीत और अमेरिकी आर्थिक मंदी का सारी दुनिया में फैलता असर ऐसी घटनाएँ हैं जोकि एक लंबे समय तक अमेरिका ही नहीं वरन समूची दुनिया को प्रभावित करेंगी।

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ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद माना जा रहा है कि दुनिया में अमेरिकी साख बढ़ेगी और फिर एक बार मंदी की मार से जूझने के बाद अमेरिका खुद को ठीक उसी तरह उर्जावान महसूस करेगा जैसा कि उसने वर्ष 1960 में जेएफ कैनेडी के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद किया था और उस समय के बाद समूचे विश्व में अमेरिका की साख में जबरदस्त बदलाव आया था।

अमेरिका खुद को हमेशा युवा और ऊर्जावान देश मानता रहा है हालाँकि ज्यादातार समय यह दिखावे से अधिक कुछ नहीं लगता है पर देश के राष्ट्रपति के रूप में बराक ओबामा की जीत एक ऐसा ही सच है जो कि बताता है कि अमेरिका बदल रहा है और यह युवा, उर्जावान और अधिक सम्पन्न बनने के लिए आतुर है।

इस संबंध में यह तथ्य भी अधिक उभरकर सामने आया है कि जॉर्ज डब्ल्यू बुश के शासन के अंतिम दौर में बाहरी दुनिया में अमेरिका की छवि जितनी धूमिल हुई उतनी किसी भी दौर में नहीं हुई, लेकिन अब एक युवा, हँसमुख और अश्वेत व्यक्ति के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने को लोगों ने हाथों-हाथ लिया है।

पिछले आठ वर्षों से दुनिया भर में लोगों ने बुश के शासन करने के रंग-ढंग को 'अहंकार' भरा कहा जाता रहा और अब तक वॉशिंगटन में लोगों के स्वर में उच्चता का बोध तिरस्कार की हद तक दिखता था। आप बुश के सहयोगियों- डोनाल्ड रम्सफेल्ड, पॉल वोल्फोविट्ज या पॉल ब्रेमर- को याद कीजिए। ये सब लोग इराक पर अमेरिका के आधिपत्य की नीतियों से जुड़े थे। इन लोगों ने पूरी दुनिया की सलाह को दरकिनार कर दिया और आखिरकार स्थिति यहाँ तक आ गई कि बगदाद में एक पत्रकार वार्ता के दौरान इराकी पत्रकार मुंतजिर अल जैदी ने राष्ट्रपति बुश को दो जूते तक फैंक कर मारे।

पूर्व विदेश मंत्री मैडलिन अलब्राइट का कहना है कि अमेरिकी विदेश नीति के इतिहास में इराक सबसे विनाशकारी नीति के रूप में याद किया जाएगा क्योंकि अगर पूछा जाता है कि अमेरिका ने इराक पर आक्रमण क्यों किया? तो इसका एक ही जवाब आता है क्योंकि हम अमेरिका हैं और ऐसा कर सकते हैं।

गौरतलब है कि वर्ष 2003 में इराक पर अमेरिकी आक्रमण के समय बराक ओबामा ने जोरदार ढंग से सार्वजनिक तौर पर इसकी निंदा की थी। जबकि उस समय कई अमेरिकी नेता लोगों से मुँह छिपाते फिर रहे थे। जो लोग ये मानते रहे हैं कि इराक़ में युद्ध गलत था वे महसूस करेंगे कि अमेरिका ने एक नया रास्ता चुना है और ओबामा के राष्ट्रपति बनने से दुनिया के सामने अमेरिका की एक अलग छवि बनेगी।

बराक ओबामा समझते हैं कि अमेरिका दुनिया को नेतृत्व दे सकता है लेकिन अपनी मर्जी के मुताबिक उसे चला नहीं सकता। एक अफ्रीकी-अमेरिकी होने की वजह से उनकी पृष्ठभूमि ऐसे लोगों की नहीं रही है जो पूरी दुनिया में मनमानी को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हों।

हालाँकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वे एक सफल राष्ट्रपति होंगे पर वे दुनिया को अमेरिकी मर्जी से चलाने की कोशिश नहीं करेंगे तो निश्चित तौर पर अमेरिका की छवि सुधरेगी। ओबामा से लोगों को कितनी उम्मीदें हैं कि उसे एक ही बात से जाना जा सकता है कि पिछले दो वर्षों में टाइम के कवर पर ओबामा की 15 बार तस्वीर छपी है। इतना ही नहीं नव निर्वाचित राष्ट्रपति ओबामा को टाइम पत्रिका ने ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ घोषित किया है।

पत्रिका का कहना है कि कठिनाई के इस दौर में वो उम्मीद की किरण के समान हैं। टाइम का कहना है कि अमेरिकी जनता का मानना है कि वो उन्हें इस दौर से बाहर निकाल लेंगे। दो साल पहले अमेरिका की आधी जनता ने ओबामा का नाम भी नहीं सुना था लेकिन आज वो सार्वजनिक जीवन में छा गए हैं।

टाइम के अंतरराष्ट्रीय संस्करण के संपादक मिशेल इलियट का कहना है कि उनकी कहानी सामान्य नहीं है, उन्होंने जकार्ता से डबलिन और आयोवा से न्यू हैंपशर तक सबको प्रभावित किया है। बराक ओबामा को लेकर एक उत्साह है जिसे हम अपनी पसंद में व्यक्त करना चाहते थे।

ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति होंगे। उनके प्रतिद्वंद्वी जॉन मैक्केन कह चुके हैं कि ये अमेरिका के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है। राष्ट्रपति चुनावों में इतिहास रचते हुए पहले अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति चुने जाने वाले बराक ओबामा ने कहा कि यह अमेरिका के लिए बदलाव की घड़ी है और हर स्तर पर अमेरिका में इस नतीजे से बदलाव आएगा।

जीत के बाद अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए डेमोक्रेट बराक ओबामा ने कहा था कि इस क्षण को आने में बहुत समय लगा है लेकिन आज रात... अमेरिका में बदलाव आ गया है। इस नतीजे से अमेरिका में हर स्तर पर बदलाव आएगा। दो शताब्दियों के बाद ही सही 'गवर्नमेंट ऑफ द पीपुल, फॉर द पीपुल एंड बाए द पीपुल' यानी लोगों की सरकार, लोगों के लिए सरकार और लोगों के द्वारा सरकार दुनिया से गायब नहीं हुई है।

ओबामा का कहना था कि ये जीत असल में आपकी जीत है। मेरा चुनावी अभियान छोटी सी जगह से, कामकाजी लोगों के दिए थोड़े-थोड़े चंदे से और बदलाव में विश्वास रखने वाले युवाओं की ताकत के बल पर चला है। वे कहते हैं कि नेतृत्व का नया सवेरा हो रहा है...जो दुनिया को ध्वस्त करना चाहते हैं मैं उनसे कहता हूँ कि हम तुम्हे हरा देंगे...जो सुरक्षा चाहते हैं, हम उनकी मदद करेंगे...अमेरिका के हथियार उसे महान नहीं बनाते...महान बनाते हैं उसके आदर्श लोकतंत्र और उम्मीद।

भविष्य की चर्चा करते हुए ओबामा का कहना था, 'कल हमें अनेक चुनौतियों का सामना करना है। इस शताब्दी के सबसे गहरे आर्थिक संकट का सामना करना है...आप सभी की चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार के अवसरों की चिंता मुझे है...इराक के सहारा में सैनिकों और गठबंधनों को बेहतर बनाने की भी चिंता है।'

ओबामा ने स्पष्ट किया कि आगे रास्ते में कई झटके लग सकते हैं और हो सकता है कि अनेक लोग उनसे सहमत न हों। उन्होंने जोर देकर कहा कि वे हमेशा ईमानदार रहेंगे और जो उनसे सहमत नहीं होंगे, उनकी बात वे पहले सुनेंगे। फिर राष्ट्रपति लिंकन को याद करते हुए उन्होंने कहा था - 'मैं उन्हीं के शब्द दोहराता हूँ - हमें दुश्मनों की तरह नहीं दोस्तों की तरह आगे बढ़ना है।'

अमेरिका में इस वर्ष और ऐसा परिवर्तन हुआ है जिसका अमेरिका पर ही नहीं सारी दुनिया पर असर पड़ा है। पूरे वर्ष भर अमेरिका भीषण आर्थिक मंदी का शिकार बना रहा। अमेरिकी सरकार की तत्कालीन मासिक रिपोर्ट में कहा गया है कि दिसंबर 2007 में बेरोजगारी की दर पाँच प्रतिशत तक पहुँच गई थी जबकि नवंबर में बेरोजगारी की दर 4.7 प्रतिशत थी। इस तरह एक एक माह में बेरोजगारों की संख्या बढ़ती रही।

इसके बाद तो अमेरिका में बेरोजगारी पिछले दो दशक में सबसे ऊँचाई पर पहुँच गई है यानी पिछले करीब बीस वर्षों में इस समय वहाँ सबसे ज्यादा लोग बेरोजगार हैं और किसी रोजगार की तलाश कर रहे हैं। ऐसे बेरोजगार लोगों की संख्या 5 लाख से भी अधिक है।
इन आँकड़ों में बढ़ोत्तरी होने का मतलब है कि देश की अर्थव्यवस्था में प्रगति रुक गई है। बाद में इसे 6.1 फीसदी तक मापा गया है।

इसकी शूरुआत कैसे हुई? जान लीजिए कि वर्ष 2007 के मध्य में हाउसिंग क्षेत्र के बुलबुले के फूटने के बाद अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था जिस सब-प्राइम कर्ज और मार्गेज संकट से जूझ रही थी, उसका वास्तविक असर 2008 में दिखा। वॉल स्ट्रीट के विश्लेषकों का अनुमान है कि अमेरिकी जीडीपी चौथी तिमाही में लुढ़ककर सिर्फ 1.5 फीसदी की चींटी की गति से बढ़ेगी। विश्लेषक उसके बाद कुछ और कमजोर तिमाहियों की आशंका से इनकार नहीं करते रहे।

  आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस संकट के कारण वित्तीय बाजार के चमकते सितारे माने जाने वाले बैंक और वित्तीय संस्थाएँ धूल-धूसरित नजर आएँ।      
खुद फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बर्नानके ने संकट की शुरूआत में सब प्राइम और मार्गेज लोन के कारण 50 से 100 अरब डॉलर के नुकसान की आशंका जाहिर की थी, लेकिन बाद में उन्होंने माना है कि यह नुकसान 150 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है। हालाँकि यह अनुमान भी बहुत कम माना जा रहा था क्योंकि ड्यूश बैंक के आकलन के अनुसार सब-प्राइम संकट से जुड़ा कुल नुकसान 400 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है जिसमें लगभग 130 अरब डॉलर का नुकसान बैंकों के खाते में जाने का अनुमान है।

आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस संकट के कारण वित्तीय बाजार के चमकते सितारे माने जाने वाले बैंक और वित्तीय संस्थाएँ धूल-धूसरित नजर आएँ। लेहमैन ब्रदर्स, मेरिल लिंच और एआईजी खत्म हो गए। जाना-माना इन्वेस्टमेंट बैंक मेरिल लिंच, अमेरिका का सबसे बड़ा बैंक सिटी ग्रुप और दुनिया की सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाओं में से एक मार्गन स्टेनली और यूबीएस, सभी संकट में त्राहिमाम करती नजर आईं।

मार्गन स्टेनली ने मार्गेज लोन डूबने के कारण लगभग 9.4 अरब डॉलर के नुकसान की बात स्वीकार की। इस वित्तीय संकट के कारण बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने नए कर्ज देने और कर्ज की शर्तों को सख्त कर दिया है। इससे बाजार में काफी हद तक आर्थिक सूखे की स्थिति पैदा हो गई। जाहिर है कि इस सबका असर उन अमेरिकी उपभोक्ताओं पर पड़ा जिन्हें अपने भारी उपभोग के कारण विश्व अर्थव्यवस्था का ड्राइवर माना जाता था।

हाल के सर्वेक्षणों में उपभोक्ताओं के विश्वास में अच्छी-खासी गिरावट देखी गई। जिसका अर्थ है कि वे खरीददारी और उपभोग कम करेंगे और इसका सीधा असर वस्तुओं और सेवाओं की माँग पर पड़ा। माँग में गिरावट के कारण न सिर्फ घरेलू कंपनियों और अमेरिकी बाजार में अपना माल निर्यात करने वाले देशों की आय पर बुरा असर पड़ा बल्कि इसके कारण कंपनियाँ ने नया निवेश नहीं किया। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं हुए। छंटनी हुई और बेरोजगारी बढ़ी। परिणामस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं की माँग और घट गई।

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इस तरह अर्थव्यवस्था मंदी में फँसकर रह गई। यह किसी काल्पनिक स्थिति का बखान नहीं है। अमेरिकी हाउसिंग संकट सचमुच बहुत व्यापक और गहरा है। अमेरिका में कुल आवासीय हाउसिंग संपत्ति लगभग 21 खरब डॉलर की है, जो कुल अमेरिकी पारिवारिक संपत्ति के एक तिहाई से अधिक है।

इस आवासीय हाउसिंग संपत्ति की कीमत में 10 फीसदी की भी गिरावट अमेरिकी उपभोक्ताओं की खरीददारी को काफी प्रभावित कर सकती है। हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद प्रॉपर्टी बाजार की स्थिति यह हो गई कि नए मकानों के निर्माण की शुरूआत में ही करीब 47 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई और जहाँ 2005 में आवासीय प्रापर्टी कुल जीडीपी का 6.3 प्रतिशत थी, वह घटकर 4.4 प्रतिशत रह गई। नए मकानों की माँग घटने के कारण निर्माण उघोग को गहरा झटका लगा। रही-सही कसर कच्चे तेल की रिकार्ड छूती कीमतों ने पूरी कर दी।

अमेरिका में कारों की घटती बिक्री की वजह से जनरल मोटर्स और फोर्ड जैसी कंपनियाँ खतरे में हैं। दोनों कंपनियों को भारी घाटा हुआ है और वे बड़े पैमाने पर छँटनी की योजनाओं की घोषणा कर चुकी हैं। बुश प्रशासन ने अर्थव्यस्था को संकट से उबारने के लिए 700 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता की घोषणा की लेकिन यह सहायता सिर्फ बड़ी वित्तीय कंपनियों को दी जा रही है। वाहन उद्योग के लिए अलग से राहत पैकेज लाया जा रहा है।

यह साफ है कि अमेरिका मंदी के जुकाम के वायरस की चपेट में आ गया और उसके लक्षण दिखने लगे हैं। ऐसे में, भारत जैसी विकासशील देश की अर्थव्यवस्था को मंदी का संक्रमण भले न हो लेकिन इसे छींकने से कौन रोक सकता है। भूमंडलीकरण अर्थव्यवस्था का हिस्सा होने के कारण संभावित अमेरिकी मंदी का असर भारत पर भी पड़ रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इस ओर इशारा किया है।

यूपीए सरकार 11वीं पंचवर्षीय योजना में 9 से 10 फीसदी विकास दर हासिल करने के दावे करती रही है, लेकिन बाद में इस बात के आसार अधिक दिख रहे हैं कि अगले साल विकास दर चालू वर्ष के 8.5 फीसदी के अनुमान से गिरकर 7 से 7.5 प्रतिशत तक पहुँच जाए। हालाँकि इससे आसमान नहीं गिर पड़ेगा लेकिन, अमेरिकी हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद भारत को अपने प्रॉपर्टी और रीयल एस्टेट बाजार के साथ शेयर और कुछ हद तक जिंस बाजार की ‘अतार्किक उत्साह’ सें भरी तेजी में बन रहे बुलबुले को लेकर जरूर सतर्क होना पड़ेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहर से ज्यादा खतरा अंदर से है।

  इस जलजले में बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियाँ डूब गई हैं। बेरोजगारी दर नए कीर्तिमान बना रही है। मंदी की मार से भारत में छह महीने के भीतर सिर्फ आईटी और इससे जुड़े सेक्टर में ही 75 हजार से अधिक नौकरियां चली गई है      
ग्लोबल मार्किट में हाहाकार मचा हुआ है। अमेरिका से लेकर भारत तक आर्थिक मंदी की चपेट में है। सेंसेक्स और निफ्टी हर रोज़ लुढ़क रहे हैं। शेयर मार्किट के दिग्गजों से लेकर छोटे इनवेस्टर्स सभी नुकसान उठा रहे हैं। लेकिन इस सबके बीच सबसे बड़ी चिंता है, लोगों का रोजगार छिनना।

इस जलजले में बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियाँ डूब गई हैं। बेरोजगारी दर नए कीर्तिमान बना रही है। मंदी की मार से भारत में छह महीने के भीतर सिर्फ आईटी और इससे जुड़े सेक्टर में ही 75 हजार से अधिक नौकरियां चली गई है। रीटेल सेक्टर और रीअल एस्टेट सेक्टर में नौकरियों में कटौती की जा रही है। एविएशन सेक्टर में भी मंदी की मार पड़ रही है। कई बड़ी कंपनियों ने अपने विस्तार प्लान स्थगित कर दिए हैं, जिससे नई नौकरियों की संभावना खत्म हो गई है। पर खुश होने की बात यह है कि हम इन सभी मुसीबतों पर काबू पा सकते हैं केवल हौसले की जरूरत है।

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