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वर्ष 2008 की चर्चित पुस्तकें

खूब चला लेखनी का जादू

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स्मृति आदित्य

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वर्ष 2008 पुस्तक प्रेमियों के लिए उत्साहजनक रहा। इस वर्ष बुकर पुरस्कार प्राप्त अरविंद अडीगा की ' द व्हाइट टाइगर' के प्रति युवाओं में विशेष दिलचस्पी रही। वहीं वर्षारंभ में अचानक अमेरिकी पत्रकार शैरी जोन्स की 'द ज्वेल ऑफ मदीना चर्चा का वषय बनी। यह पुस्तक छपकर पाठकों तक पहुँचती उससे पहले ही प्रकाशक ने हाथ खींच लिए। जबकि प्रकाशक रेंडम हाउस ने लेखिका को लगभग 50000 पाउंड अग्रिम रूप से भुगतान किए थे।

यहाँ तक कि वह तो आठ प्रमुख शहरों में इस उपन्यास से संबंधित पब्लिसिटी टूर्स की योजना भी बना चुका था। फिर ऐसा क्या हुआ कि प्रकाशक को पीछे हटना पड़ा। दरअसल यह उपन्यास 'द ज्वेल ऑफ मदीना' जोन्स की पहली कृति है। मुख्यत: मोहम्मद साहब की बालिका वधू आयशा पर आधारित है। इसमें आयशा की मोहम्मद साहब से सगाई होने से लेकर उनकी मृत्यु तक का फलसफा है।

जोन्स ने कई वर्षों तक अरब इतिहास का अध्ययन करने के बाद इसे लिखा। रेंडम हाउस ने प्रकाशन का जिम्मा उठाया। दो प्रति की रॉयल्टी भी दी, लेकिन प्रकाशन से पूर्व उपन्यास की प्रतियाँ समीक्षा हेतु इस्ला‍‍मिक इतिहास के प्रोफेसर डेनिज स्पैलबर्ग को भेजी गईं। उन्होंने यह सनसनीखेज आरोप लगाया कि यह एक सॉफ्ट-कोर पोर्नोग्राफी है। इस आरोप से घबराकर रेंडम हाउस ने पुस्तक प्रकाशित करने का इरादा ही बदल दिया।

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रेंडम हाउस के प्रवक्ता ने कहा कि 'यह कृति विवादित है और इसे छापने से हिंसक प्रतिक्रियाओं का भय हो सकता था'। इस बयान के तत्काल बाद पुस्तक का बेसब्री से इंतजार कर रहे पाठकों-आलोचकों की तीखी प्रतिक्रियाएँ सामने आईं।

उनके अनुसार 'प्रकाशक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से पीछे हट रहे हैं। यह फैसला वे कट्टरपंथियों के दबाव में आकर ले रहे हैं।' प्रोफेसर स्पैलबर्ग ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा कि यह कृति युद्धघोष है। विस्फोटक सामग्री है। राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है।

जाहिर है रेंडम हाउस इसे प्रकाशित करने का साहस नहीं जुटा पाया। उन्हें यह रुश्दी की पुस्तकों तथा पैगंबर के कार्टून्स से भी ज्यादा विवादित मुद्दा लगा।

उधर जोन्स का अपने उपन्यास के बारे में कहना था कि 'मैं इसे दो संस्कृतियों के बीच सेतु की तरह विकसित करना चाहती थी। मैं आयशा के साथ ही मोहम्मद साहब की सभी बीवियों की आवाज बनना चाहती थी। उन्हें आदर के साथ शब्दों में बाँधना चाहती थी। '
बहरहाल विवादों में आने के बाद जोन्स के एजेंट अन्य प्रकाशक की तलाश में भटक रहे हैं।

  कश्मीर‍ी कवि रहमान राही को ज्ञानपीठ सम्मान मिलना भी वादियों से आती हवाओं के लिए सुखद संदेश बना। यही वजह है कि भारतीय ज्ञानपीठ से राही की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन आया तो पाठकों ने इसे हाथोहाथ लिया।      
दूसरी तरफ वर्ष 2008 का बुकर सम्मान मिलते ही अरविंद अडीगा और उपन्यास ' द व्हाइट टाइगर' दोनों चर्चा का विषय बने। यह उपन्यास भारत के उस आम चरित्र को रेखांकित करता है जो अपनी गरीबी से मुक्ति पाने के लिए बेचैन है। उपन्यास का केन्द्रीय पात्र बलराम हलवाई आगे बढ़ने के लिए किसी भी रास्ते को गलत नहीं मानता है और शीर्ष पर पहुँचने के लिए हर जोखिम उठाने को तैयार रहता है। 22 अप्रैल 2008 को अटलांटिक प्रकाशन से आया यह उपन्यास 288 पेज में भारतीय गरीबी की मार्मिक कहानी बयान करता है।

इसी वर्ष चर्चित उपन्यासकार चेतन भगत के अँग्रेजी उपन्यास वन नाइट एट दि कॉल सेंटर ने खासी धूम मचाई। इस पर अतुल अग्निहोत्री ने फिल्म 'हैलो' का निर्माण किया। हालाँकि फिल्म पिट गई, लेकिन चेतन के उपन्यास की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई।

कश्मीर‍ी कवि रहमान राही को ज्ञानपीठ सम्मान मिलना भी वादियों से आती हवाओं के लिए सुखद संदेश बना। यही वजह है कि भारतीय ज्ञानपीठ से राही की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन आया तो पाठकों ने इसे हाथोहाथ लिया। कश्मीर के दर्द की बेलौस अभिव्यक्ति ही उनकी कविताओं का मर्म है।

वैसे तो राही के लगभग दो दर्जन काव्य संग्रह प्रकाशित हैं, लेकिन उनकी पहचान बनी नवरोज़-ए-सबा से। यही वजह है कि ज्ञानपीठ मिलने के बाद कुछ पाठक स्टॉल्स पर यह पुस्तक खोजते भी पाए गए।

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मुंबई हादसे के पूर्व आरएम लाला द्वारा लिखित 'टाटा स्टील का रोमांस' पुस्तक ने दस्तक दी। राजकमल से प्रकाशित यह पुस्तक टाटा परिवार के 100 वर्ष के इतिहास को रोचकता से बयान करती है। कथ्य की चुटीलता और भाषा की तरलता से पुस्तक अत्यंत पठनीय बन पड़ी है।

नचिकेता की चर्चित पौराणिक गाथा को आधार बनाकर रची कुँवरनारायण की 'वाजश्रवा के बहाने' ने खासी लोकप्रियता अर्जित की। 41वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कुँवरनारायण की पूर्व पुस्तक 'आत्मजयी' ने भी पर्याप्त ध्यान आकर्षित किया। इसमें उन्होंने मृत्यु जैसे कठोर विषय का निर्वचन किया है।

साल 2008 में राजकमल प्रकाशन की सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में मैत्रेयी पुष्पा की 'गुड़िया भीतर गुड़िया', अनामिका की 'इस द्वारे का पिंजरा', अलका सरावगी की 'एक ब्रेक के बाद' तथा महाश्वेता देवी की अग्निगर्भा एवं 'जंगल के दावेदार' रही। इसी तरह यूबीएस प्रकाशन से पार्थसारथी की 'व्हाय नॉट' तथा रूपा एण्ड कॉरपोरेशन से प्रकाशित जसवंत सिंह की 'ए कॉल टू ऑनर' सर्वाधिक पसंद की गईं।
पैंगुइन प्रकाशन के मुल्ला नसरुद्दीन बिक्री के मामले में आगे रहे।

राजेन्द्र यादव की 'काश मैं राष्ट्रद्रोही होता' किताबघर प्रकाशन का आकर्षण बनी। इस पुस्तक को उनके नियमित पाठकों के अलावा नए पाठकों ने भी जिज्ञासावश टटोला।

नासिरा शर्मा की 'जीरो रोड़', चित्रा मुद्गल की 'दूर के ढोल', अलका सिन्हा की 'तेरी रोशनाई चाहती हूँ' संवेदनशील पाठकों के लिए सौगात बनी।

  नचिकेता की चर्चित पौराणिक गाथा को आधार बनाकर रची कुँवरनारायण की 'वाजश्रवा के बहाने' ने खासी लोकप्रियता अर्जित की। 41वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कुँवरनारायण की पूर्व पुस्तक 'आत्मजयी' ने भी पर्याप्त ध्यान आकर्षित किया।      
राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित 'देहरी भई बिदेस' ने सुधी पाठकों की लाइब्रेरी में जगह बनाई। इसमें 15 लेखिकाओं के आत्मकथांश को समाहित किया गया है। मुशर्रफ आलम जौकी की प्रकाशित पुस्तक 'फ्रिज में औरत' बदलते परिवेश की कहानियों का संग्रह है। इसकी फैंटेसी और यथार्थ के एकदम नए प्रयोगों ने पाठकों को यथासंभव शांत किया। एसआर हरनोट के उपन्यास 'हिडिंब' के बाद सितंबर 08 में उनका कथासंग्रह 'जीनकाठी' लोकार्पित हुआ। इसने भी सुधीजनों की सराहना अर्जित की।

साल के अंत तक मंगलेश डबराल की 'मुझे एक मनुष्य मिला था', कुमार अंबुज की 'इच्छाएँ', मदन सोनी की 'विषयांतर' ने भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई। राजमोहन गाँधी की 'मुस्लिम मन का आईना' ने जागरूक पाठकों को अपने ही बंधुओं का मन पढ़ने के लिए प्रेरित किया। कुल मिलाकर बीते वर्ष में भारतीय लेखनी पर सरस्वती का आशीर्वाद बना रहा। हम उम्मीद करें कि नया वर्ष भी सरस्वती की संतानों के लिए फलदाई होगा।

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