कितने भावपूर्ण, मोहक, मधुर और सुवासित सपने हैं! नया वर्ष इसीलिए तो आता है, अपने अंतर में निहित सुंदर सपने, आकाँक्षाएँ और कल्पनाएँ पुन: याद करने के लिए। उन्हें साकार करने के लिए मन में एक नवीन ऊर्जा का विस्फोट करने के लिए। बीते वर्ष में सांसारिकता के न जाने कितने कसैले घूँट पीए होंगे। किसी प्रियजन को हमेशा-हमेशा के लिए बिछुड़ते देखा होगा, कभी विश्वास चटके होंगे, कभी आकर्षक भ्रम चकनाचूर हुए होंगे। कभी संबंधों ने दरककर दम तोड़ा होगा। कभी अपनों के आवरण में लिपटे परायों का परिचय हुआ होगा। ऐसे ही उलझे हुए ताने-बाने में दिल के दरवाजे पर हताशा के हथौड़े ने दस्तक दी होगी। 'क्यों? क्यों होता है ऐसा सिर्फ मेरे ही साथ? फिर लगा होगा यह वर्ष ही मनहूस था। शायद नया वर्ष सुकून से गुजरे। किन्तु वर्ष को मनहूस कहा जाना कहाँ तक उचित है? जीवन के समंदर में उतरे हैं तो तूफान के थपेड़े तो सहने ही होंगे। मचलती लहरों के तड़ातड़ पड़ते ये थपेड़े सिर्फ आप पर ही नहीं पड़ते, बल्कि हर उस शख्स को पड़ते हैं जो समंदर में आपकी ही तरह किनारा पकड़ने की जद्दोजहद में है। यह भी उतना ही सच है जिसने लहरों के उतार-चढ़ाव और ज्वार-भाटे को समझ लिया और उसके अनुरूप अपनी रणनीति बनाई उसी ने उपलब्धियों के चमकते धवल मोती को जीवन के महासिंधु से समेटा है।विडंबना देखिए कि हमें अपने निजी दुःखों का हिसाब स्पष्टत: याद रहता है किन्तु राष्ट्रीय क्षति के तमाम हिसाबों के लिए समाचार पत्र सहेजना-संभालना पड़ता है। साल 2008 में एक काला दिन हम सबको स्तब्ध कर गया। मुंबई की सैकड़ों चहकती आवाजें हमारे देखते ही देखते चीखों में तब्दील हो गईं। हमने मौत का तांडव नंगी आँखों से देखा। इसी साल हमने सत्तालोलुप नेताओं की बेशर्म जुबान से झरे घटिया बयान सुने। अब भला आप ही बताएँ वर्ष मनहूस कहाँ हुआ? मनहूसियत तो इस राजनीति पर छाई है। वर्ष, महीने, दिन यह सब तो हमारे विद्वान पूर्वजों ने सुनिश्चित किए हैं। समय को बाँधा नहीं जा सकता इसलिए उसका अनुमापन किया गया। इस सबके बीच जो घटित होना नियति में लिखा है, वह घटित हुआ। इसमें वर्ष का क्या दोष? होनी तो होकर रहती है। ययाति (उपन्यास) में विष्णु सखाराम खांडेकर ने लिखा है कि जिन्दगी होती ही ऐसी है जितनी जी उतनी तकलीफदेह, जितनी जी रहे हैं उतनी उलझनपूर्ण और जितनी जीना शेष है उतनी रहस्यपूर्ण।
नया वर्ष आता है हमसे कहने कि हम झाँकें अपने भीतर पूरी गहराई से, पूरी शिद्दत से और देखें कि क्या रह गया है हमारे अंदर जो अधूरा है, अपूर्ण है, अवरुद्ध है।
हम न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने देश के लिए भी सोचें कि बीते साल में सुरक्षा, संकल्प और साहस की दृष्टि से हम कहाँ, किन-किन जगहों पर कमजोर रह गए हैं। नए साल में लड़ें हम अपनी ही कमजोरियों से। संकट और चुनौतियाँ हमारी आशा और विश्वास से बढ़कर नहीं है। इनके आकार बड़े हो सकते हैं, लेकिन गहराई तो विश्वास एवं आशा में ही होती है। जीत हमेशा गहराई की होती है। नूतन वर्ष में गहरे शुभ संकल्पों के साथ राष्ट्रकल्याण का सतरंगी इन्द्रधनुष रचें, यही कामना है!