-नृपेन्द्र गुप्ता
यह साल अर्थजगत के लिए उथल-पुथलभरा रहा। आर्थिक मंदी के रूप में आई सुनामी ने अर्थजगत के दिग्गजों को हिलाकर रख दिया। आर्थिक मंदी के अलावा वित्तीय दुनिया को सबसे ज्यादा कच्चे तेल की चाल ने चौंकाया। कभी तेल में रिकॉर्ड तोड़ तेजी देखी गई तो कभी तेल के गिरते दामों ने तेल निर्यातक देशों की नींद उड़ा दी।
2008 में ट्रेडिंग का पहला ही दिन तेल जगत के लिए बड़ी खबर लाया। तेल के भाव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 100 डॉलर प्रति बैरल का स्तर पार कर गए। इस लेवल को तोड़ने के बाद तेल ने दिन-प्रतिदिन ऊँचाई के नए रिकॉर्ड बनाए।
मार्च में डॉलर के कमजोर होने से तेल 110 डॉलर प्रति बैरल का आँकड़ा पार कर गया। जून में पहली बार तेल ने 140 डॉलर प्रति बैरल का स्तर छुआ। जब तेल के दाम 140 डॉलर प्रति बैरल थे, ओपेक इसमें और वृद्धि की संभावना व्यक्त कर रहा था। इस समय लीबिया ने तेल उत्पादन में कमी करने का फैसला किया।
11 जुलाई को तेल के दाम बढ़कर 147 डॉलर तक पहुँच गए। यह अब तक का सर्वाधिक स्तर था। तेल के बढ़ते दामों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खलबली मच गई थी। महँगाई चरम पर थी, डॉलर इतना कमजोर हो चला था कि ओपेक डॉलर की जगह यूरो में सौदा करने की बात करने लगा।
जुलाई में जब तेल के दाम 147 डॉलर प्रति बैरल थे तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि तेल के दाम किस हद तक बढ़ेंगे लेकिन अचानक दाम गिरने लगे और इस हद तक गिरे कि चार साल के रिकॉर्ड निचले स्तर (35.4 डॉलर प्रति बैरल) तक आ गए। छह महीने से भी कम समय में कच्चे तेल की कीमतों ने नई ऊँचाई के साथ-साथ नया गर्त भी देखा।
तेल की यह तेजी आर्थिक मंदी की आहट के साथ ही थम गई। जितनी तेजी से भाव बढ़े थे उससे भी तेज गति से तेल ने फिसलना शुरू किया। सितंबर में तेल गिरकर 100 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया। नवंबर तक इसने ओपेक के चेहरे पर चिंता की लकीर खींच दी। यह सर्वोच्च स्तर से दो-तिहाई गिरकर 50 डॉलर तक आ गया था।
तेल के दामों में गिरावट यहीं थम जाती तो बेहतर था, पर दिसंबर अभी तेल जगत को और भी बुरे दिन देखने थे। तेल के दाम घटकर चार साल के निम्नतम स्तर 35 डॉलर प्रति बैरल पर आ गए। तेल में तेजी-मंदी के खेल से तेल आयातक देश और निर्यातक देश दोनों को ही भारी नुकसान हुआ। विश्वभर की तेल कंपनियाँ घाटे के डर से बड़ा सौदा करने में डरती रहीं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई इस उठापटक का असर भारत पर भी देखने को मिला। जिस तेजी से वहाँ तेल के दाम घट-बढ़ रहे थे, भारत में भी साँसें ऊपर-नीचे हो रही थीं। कच्चे तेल के दाम चरम पर पहुँचने के बाद भारत में महँगाई दर बहुत तेजी से बढ़ी। पेट्रो पदार्थों के दाम बढ़ने से आम जनता में घबराहट के भाव देखे गए।
जब दुनिया में तेल के दाम गिर रहे थे तब भी हमारे यहाँ रुपए की गिरावट को ढाल बनाकर सरकार ने तेल के दाम कम नहीं किए। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, पेट्रोलियम मंत्री सभी केवल बयानबाजी कर आम जनता को तेल के दाम कम न करने के लिए गिरावट के नित नए कारण गिनाते रहे। अंतत: जब तेल के दाम 50 डॉलर प्रति बैरल हो गए तो सरकार को तेल के दाम कम करना पड़े।
तेल के दाम दम होते ही महँगाई से लड़ रही सरकार ने इसे आसानी से काबू कर लिया। मुद्रास्फीति की दर दिसंबर में घटकर 6.84 फीसदी तक पहुँच गई। इस साल लोगों को तेल ने वाकई अपनी धार बता दी। तेल का अर्थ समझने में हर आदमी को पसीना आया। ओपेक का तो लगभग पूरा साल ही तेल के दामों को नियंत्रित करने के प्रयास में ही बीत गया। उम्मीद है अगले साल तेल के दाम स्थिर रहेंगे। तेल आयातक और निर्यातक दोनों चैन की साँस ले सकेंगे।