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कला-संगीत 2011 : अलविदा

हो सके तो लौट के आना...

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स्मृति आदित्य

हर नया साल जब आता है, गुजरे साल की स्मृतियां मस्तिष्क में छोड़ जाता है। हर आते हुए साल में हम गुजरे साल जुदा हुए उन हस्ताक्षरों को याद करते हैं जो सितारों की दुनिया के मेहमान बन गए। उन शख्सियतों को खोना हमारी पलकों को नम कर देता है और अक्सर हम उनके बारे में लिखते हुए शब्दहीन हो जाते हैं।

साल 2011 ने जिन हस्तियों को हमसे छीना है वह अपने-अपने क्षेत्र के ऐसे सुनहरे नाम थे जो हमारे बीच ना रह कर भी कृतित्व रूप में हमेशा साथ रहेंगे।

जगजीत सिंह, भीमसेन जोशी और भूपेन दा की आवाज हमारे कानों में मक्खन घोलते हुए शून्य में विलीन हो गई और बादल सरकार का अभिनय सदा के लिए मन पर गहरी छवि अंकित कर बस एक याद बन गया।

अचानक हुसैन की तुलिका का रंग स्तब्ध कर गया और हम कोरा कैनवास देखते रह गए। वेबदुनिया हर उस दिवंगत के प्रति अपनी भावांजलि प्रस्तुत करता है, जो करोड़ों मन पर अपनी कला और प्रतिभा के माध्यम से अमिट छाप छोड़ गए....

संगीत 2011: सुर जो खामोश हो गए
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भीमसेन जोशी/शास्त्रीय संगीत के महान कलाकार(14 फरवरी,1922-24 जनवरी,2011): इस पवित्र आवाज ने 14 फरवरी, 1922 को कर्नाटक में जन्म लिया था। 24 जनवरी, 2011 पुणे, महाराष्ट्र में यह आवाज खामोश हो गई। किराना घराने के सुप्रसिद्ध गायक भीमसेन जोशी सात दशकों तक शास्त्रीय गायन करते रहे। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान गायकों में उनकी गिनती होती है। उन्हें भारत का सर्वोच्च भारत रत्न सम्मान भी प्राप्त हुआ।

भीमसेन जोशने सबसे पहले 19 साल की उम्र में अपना पहला संगीत प्रदर्शन किया। उनका पहला एल्बम 20 वर्ष की आयु में निकला जिसमें कन्‍नड और हिन्दी के कुछ धार्मिक गीत थे। अपने गुरु की याद में उन्होंने वार्षिक 'सवाई गंधर्व संगीत समारोह' प्रारम्भ किया। पुणे में यह समारोह हर साल दिसंबर में होता है।

शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाइयां देने वाले पं. जोशी जी का गायन आज भी हमारे बीच है लेकिन वर्ष 2011 के आरंभ में हमने इस महान शख्सियत को खो दिया। जोशी जी पिछले दो साल से बीमार थे। पद्मश्री,पद्मभूषण और पद्मविभूषण से सम्मानित श्री जोशी का जाना साल 2011 की विराट क्षति कही जाएगी।

जगजीत सिंह : गजल के शहंशाह (8 फरवरी,1941-10अक्टूबर, 2011): मखमली आवाज के इस जादूगर का जाना साल 2011 की दर्दनाक संगीत त्रासदी कही जाएगी। कोई नहीं सोच सकता था कि गजल को असीम ऊंचाइयां देने वाले जगजीत सिंह यूं इस तरह अचानक खामोश हो जाएंगे। पत्नी चित्रा के साथ में गाए गए उनके गीत-गजल खासे लोकप्रिय रहे।

वर्ष 2003 में भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक पद्मभूषण से उन्हें नवाजा गया। अंतिम दिनों में उन्होंने धार्मिक भजन और शबद आदि भी उसी तल्लीनता से गाए। जगजीत सिंह को ब्रेन हेमरेज के कारण मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां वे कुछ समय तक कोमा में रहे।

उनके प्रशंसक यह दुआ मांग रहे थे कि गजल के शहंशाह लौट आएंगे लेकिन यह हो ना सका और 10 अक्टूबर को जगजीत सिंह का निधन हो गया। कई फिल्मों और एलबमों में जगजीत सिंह अपनी शहद जैसी आवाज छोड़ गए हैं जो बरसों-बरस तक कानों में मधुरता घोलती रहेगी।

संगीत के कई सम्मान-अवॉर्ड उनके नाम दर्ज हैं। जगजीत सिंह नहीं रहे मगर हिंदी, उर्दू, पंजाबी, भोजपुरी सहित कई जबानों में उनकी महकती आवाज आज भी मौजूद है। देश-विदेश में उनके चाहने वालों ने उनके लिए फैन्स क्लब खोल रखे हैं।

भूपेन हजारिका : असम का अलौकिक स्वर (8 सितंबर, 1926- 5 नवंबर 2011) : ' ओ गंगा तू बहती है क्यों' इस गीत का गहन-गंभीर स्वर जब कानों में पड़ता है तो मानव ह्रदय की समस्त संवेदनाएं गंगा नदी के प्रति झंकृत हो जाती है। ऐसे विलक्षण सुर के धनी भूपेन दा को हमने साल 2011 के 5 नवंबर को खो दिया। भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम की यह बहुमुखी प्रतिभा ना सिर्फ गायक के तौर पर चमकी बल्कि भूपेन दा गीतकार, संगीतकार और लेखक भी थे।

इसके अलावा वे असमिया भाषा के कवि, फिल्म निर्माता, और असमिया संस्कृति-संगीत के कुशल जानकार भी रहे। वे अपने गीत खुद लिखते थे, संगीतबद्ध करते थे और गाते थे। उन्हें दक्षिण एशिया के श्रेष्ठ जीवित सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता था। उन्होंने कविता लेखन, पत्रकारिता, गायन, फिल्म निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में काम किया।

पद्मभूषण सम्मान प्राप्त भूपेन हजारिका का फिल्मी गायन भी अविस्मरणीय है। 'दिल हुम हूम करे' और फिल्म 'गांधी टू हिटलर' का भजन 'वैष्णव जन' दिलों में गूंजता है तो इस अद्भुत कलाकार के प्रति हम स्वत: ही नत मस्तक हो जाते हैं। वर्ष 2011 की यह अपूरणीय क्षति कही जाएगी।

दान सिंह (संगीतकार) : जून 2011 में मशहूर संगीतकार दान सिंह का जयपुर में निधन हो गया। वह 78 वर्ष के थे। दान सिंह काफी समय से बीमार चल रहे थे। कई लोकप्रिय फिल्मों में उनके संगीत ने जादू बिखेरा था। 'वो तेरे प्‍यार का गम' , 'जिक्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की बात होती है' जैसे सदाबहार गीतों का संगीत उनके ही नाम दर्ज है।

लक्ष्‍मीकांत-प्‍यारेलाल, शिवकुमार तथा हरिप्रसाद चौरसिया जैसी हस्तियों ने बतौर सहायक उनके साथ काम किया था। संगीत के क्षेत्र में दान सिंह के योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। फिल्मोद्योग में आज भी कई अवॉर्ड प्राप्त गाने ऐसे हैं जिनकी वास्तविक धुन दान सिंह की बनाई है लेकिन उसका श्रेय किसी और को मिल गया। फिल्म इंडस्ट्री के इसी छल-कपट से निराश होकर उन्होंने मुंबई छोड़ दी और जयपुर आकर रहने लगे और आखिरी सांस तक यहीं रहे।

मकबूल साबरी (कव्वाली गायक) : पाकिस्तान के सुविख्यात कव्वाली गायक मकबूल साबरी का दिल का दौरा पड़ने से दक्षिण अफ्रीका में 21 सितंबर 2011 को निधन हो गया। वह 69 वर्ष के थे। मकबूल कव्वाली गायकों के समूह साबरी ब्रदर्स के सदस्य थे। उन्होंने अपने पिता उस्ताद इनायत सेन साबरी से कव्वाली और उत्तर भारतीय शास्त्रीय गायकी का हुनर सीखा।

मकबूल का जन्म भारत के पंजाब में 12 अक्टूबर 1941 को हुआ था लेकिन 1947 में भारत विभाजन के बाद उनका परिवार कराची में जाकर बस गया था। मकबूल साबरी का पहला एलबम 'मेरा कोई नहीं' 1958 में जारी हुआ था।

महमूद धौलपुरी (हारमोनियम वादक) : हारमोनियम वादक महमूद धौलपुरी का 25 मई 2011 को नई दिल्ली में निधन हो गया। वह 57 वर्ष के थे। महमूद धौलपुरी पद्मश्री से सम्मानित होने वाले देश के पहले हारमोनियम संगीतकार थे। उन्हें वर्ष 2006 में पद्मश्री पुरस्कार प्रदान किया गया था। धौलपुरी दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में कार्यरत थे। वह आकाशवाणी और दूरदर्शन के उच्च श्रेणी के कलाकार थे।

पंडित उमा शंकर मिश्रा (सितार वादक) : सुप्रसिद्ध सितार वादक पंडित उमा शंकर मिश्रा का 22 सितंबर 2011 दो सप्ताह की बीमारी के बाद निधन हो गया। वह 80 वर्ष के थे। पंडित उमा शंकर निमोनिया और उससे जुड़ी अन्य समस्याओं से पीड़ित थे।

बालेश्वर यादव( लोकगायक ) : 9 जनवरी 2011 को लखनऊ में मशहूर लोकगायक बालेश्वर यादव का निधन हो गया। सन 1942 में आजमगढ़/मऊ क्षेत्र के मधुबन कस्बे के पास चरईपार गांव में जन्मे, बालेश्वर यादव भोजपुरी के मशहूर बिरहा और लोकगायक थे। वे जन-जन के लोकप्रिय गायक थे। भोजपुरी के उत्थान और प्रचार-प्रसार में बालेश्वर यादव का महत्वपूर्ण योगदान रहा। बालेश्वर यादव के गाए भोजपुरी गीतों ने सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद, मॉरीशस, फिजी, हॉलैंड इत्यादि देशों में ख्याति हासिल की।

कला 2011 : सूना हुआ कैनवास
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मकबूल फिदा हुसैन ( मशहूर चित्रकार) : 9 जून 2011 देश-विदेश में मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन का लंदन में निधन हो गया। वह 96 वर्ष के थे। लंदन के रॉयल ब्रॉम्टन अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। हुसैन और विवाद का नाता ताउम्र बना रहा। उनके बनाए हिंदू देवी-देवता के आपत्तिजनक चित्रों से हिन्दू समाज उनसे खासा नाराज रहा।

यही वजह है कि हुसैन को भारत छोड़ना ज्यादा रास आया। उन्होंने 2010 में कतर की नागरिकता ग्रहण कर ली। हुसैन का जन्म 17 सितंबर 1915 में महाराष्ट्र के पंढरपुर में हुआ था। आरंभिक शिक्षा इंदौर में हुई। 1935 में मुंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला लिया। उन्होंने अपने करियर की शुरूआत फिल्मों के पोस्टर बनाकर की। फिल्म जगत से उनका रिश्ता गहराता ही गया। 1990 के दशक में अभिनेत्री माधुरी दीक्षित की खूबसूरती से प्रेरित होकर ‘गजगामिनी’ पेंटिंग बनाई थी।

इस पेंटिंग की वजह से हुसैन बेहद चर्चित हुए थे। उन्हें माधुरी फिदा हुसैन भी कहा जाने लगा। बाद में उन्होंने इसी नाम से एक फिल्म भी बनाई थी। उन्होंने अपनी पहली फिल्म 1967 में बनाई थी। इस फिल्म का नाम था ‘थ्रू द आइज ऑफ पेंटर’। हुसैन भारत के सबसे महंगे चित्रकार माने जाते थे। उनकी एक तस्वीर 20 लाख डॉलर में बिकी।

हुसैन को सन 1955 में पद्मश्री, 1973 में पद्मभूषण और 1991 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। ‘फोर्ब्स’ पत्रिका ने उन्हें ‘भारत का पिकासो’ कहा था। 1986 में वे राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किए गए थे। साल 2011 की यह अपूरणीय क्षति है क्योंकि हुसैन जैसा दूसरा कलाकार मिलना नामुमकिन है।

जहांगीर सबावाला ( चित्रकार) : कला जगत ने मशहूर पेंटर जहांगीर सबावाला को इसी साल 2 सितंबर 2011 में खोया। सबावाला की पेंटिंग्स में लैंडस्केप और समुद्री जीवन की शांत झलक मिलती थी जिसे वह पेस्टल और कोमल रंगों से जाहिर करते थे। मुंबई में वर्ष 1922 में जन्मे सबावाला ने 1944 में जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स से स्नातक की उपाधि ली।

इसके बाद वह लंदन के हीथर्ले स्कूल ऑफ आर्ट में अध्ययन के लिए गए। वर्ष 2005 में मुंबई के ताजमहल होटल में उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी थी सबावाला को 1977 में पद्मश्री सम्मान मिला था। भारतीय परिवेश, रंग और सोच से उन्होंने कला की अनूठी भाषा रची।

रंगमंच 2011 : रोशनी चली गई
गुरशरण सिंह (थिएटर कलाकार) : पंजाबी के लब्ध प्रतिष्ठित नाट्य लेखक और थिएटर कलाकार गुरशरण सिंह का लंबी बीमारी के बाद 27 सितंबर 2011 को चंडीगढ़ में निधन हो गया। वह 82 वर्ष के थे। पेशे से इंजीनियर गुरशरण सिंह का जन्म 1929 में हुआ था। उन्होंने भाखड़ा नांगल बांध के निर्माण के दौरान बतौर अभियंता कार्य किया था।

यह स्थल उनके जीवन का नया मोड़ साबित हुआ और यहां पर उन्होंने कामगारों के अधिकारों के लिए नाटक लिखे। पंजाबी नाट्य लेखक और नुक्कड़ नाटक निर्देशक गुरशरण सिंह को लोग 'गुरशरण पाजी' के नाम से बुलाते थे। उनका रचा गया चरित्र 'भाई मन्ना सिंह' बेहद लोकप्रिय हुआ था।

बादल सरकार ( रंगकर्मी) : 15 जुलाई 1925 को जन्मे बादल सरकार भारतीय रंगमंच की महान विभूति थे। बादल पेशे से इंजीनियर थे। वे टाउन प्लानिंग के प्रशिक्षण के लिए सितंबर 1957 से सितंबर 1959 तक लंदन में रहे। विदेश में अकेले रहने का उनका यह अनुभव एक साथ कड़वा और मीठा था, जिसका बयान उन्होंने अपनी डायरी में किया, जो वर्ष 2006 में 'प्रबासेर हिजिबिजि' नाम से बांग्ला में प्रकाशित हुई। इसी डायरी का अनुवाद रंगकर्मी प्रतिभा अग्रवाल ने 'प्रवासी की कलम से' नाम से किया। यह उनके संघर्षमय जीवन के एक कालखंड का अत्यंत मार्मिक और प्रामाणिक दस्तावेज है। इसमें उनके पत्रों का भी संग्रह किया गया है।

इससे उनके व्यक्तित्व के साथ-साथ उनके संवेदनशील रंगकर्मी की संरचना को भी समझा जा सकता है। अशोक भौमिक द्वारा लिखित किताब 'बादल सरकार व्यक्ति और रंगमंच' में उनका अनूठा व्यक्तित्व सामने आता है। भारतीय रंगमंच के विकास में बादल सरकार का ‍विशेष योगदान था। 13 मई 2011 को नाट्यकर्मी बादल सरकार ने हमसे बिदाई ली। तीसरा रंगमंच के संस्थापक और भारतीय ग्रामीण पारंपरिक रंगमंच के पुरोधा बादल सरकार थिएटर जगत की बड़ी क्षति मानी जाएगी।

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सत्यदेव दुबे ( रंगमंच के पितामह) : मशहूर रंगमंच निर्देशक, अभिनेता और पटकथा लेखक सत्यदेव दुबे का 25 दिसंबर 2011 को मुंबई में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। वे 75 वर्ष के थे। यह हिन्दी रंगमंच के लिए साल की सबसे दुखद खबर कही जाएगी। बादल सरकार के बाद सत्यदेव दुबे का साया उठ जाना वाकई स्तब्ध कर देने वाला है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में जन्मे सत्यदेव ने मुंबई को अपनी कर्मभूमि बनाया और हिन्दी रंगमंच को लोकप्रिय बनाने के लिए आखिरी वक्त तक काम करते रहे।

पद्मभूषण से सम्मानित सत्यदेव दुबे को इसी साल सितंबर में पृथ्वी थिएटर प्रांगण में हालत बिगड़ने के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था और तब से वे कोमा में ही थे। उनके परिजन के मुताबिक दुबेजी का 25 दिसंबर की सुबह करीब 11.30 बजे मस्तिष्काघात से निधन हो गया।

क्रिकेटर बनने का सपना लेकर बिलासपुर से मुंबई आने वाले दुबेजी ने बाद में इब्राहिम अल्काजी के थिएटर ग्रुप को अपना ठिकाना बनाया। अल्काजी के दिल्ली जाने के बाद उन्होंने पूरी तरह से रंगमंच को ही अपनी कर्मभूमि बनाया और मराठी व हिन्दी नाटकों को पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

अंकुर, निशांत, भूमिका, जुनून, कलयुग, आक्रोश, विजेता फिल्मों में उन्होंने स्क्रीनप्ले व डायलॉग लिखे। उन्हें बेस्ट स्क्रीन प्ले व डायलॉग के लिए फिल्म फेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म "भूमिका" की पटकथा और संवाद लिखने के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला।

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