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उलटी गिनती शुरू, सूरज की ओर उड़ान भरेगा भारत का आदित्य एल1

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श्रीहरिकोटा (आंध्र प्रदेश) , शनिवार, 2 सितम्बर 2023 (00:51 IST)
Aditya L1 Launching news: चंद्रमा पर उतरने के कुछ दिन बाद भारत शनिवार को अपने पहले सूर्य मिशन ‘आदित्य एल1’ को अंजाम देगा। यह प्रक्षेपण इसरो के विश्वसनीय रॉकेट पीएसएलवी के माध्यम से किया जाएगा। सूर्य के अध्ययन के लिए ‘आदित्य एल1’ को धरती से 15 लाख किलोमीटर दूर ‘लैग्रेंजियन-1’ बिंदु तक पहुंचने में 125 दिन लगेंगे।
 
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने कहा कि शनिवार को पीएसएलवी सी57 रॉकेट के जरिए किए जाने वाले ‘आदित्य एल1’ के प्रक्षेपण के लिए शुक्रवार को 23.10 घंटे की उलटी गिनती शुरू हो गई। सूर्य मिशन से संबंधित उपग्रह को शनिवार को पूर्वाह्न 11.50 बजे श्रीहरिकोटा स्थित अंतरिक्ष केंद्र के दूसरे लॉन्च पैड से प्रक्षेपित किया जाएगा।
 
इस मिशन को ऐसे समय भेजा जा रहा है जब भारत ने गत 23 अगस्त को चंद्रयान-3 के साथ चांद के दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र पर सफलतापूर्वक ‘सॉफ्ट लैंडिंग’ कर इतिहास रच दिया था।
 
125 दिन के सफर : इसरो के अध्यक्ष एस सोमनाथ के मुताबिक सूर्य मिशन को सटीक त्रिज्या तक पहुंचने में 125 दिन लगेंगे। ‘आदित्य एल1’ को सूर्य परिमंडल के दूरस्थ अवलोकन और ‘एल1’ पॉइंट सौर हवा का वास्तविक अवलोकन करने के उद्देश्य से डिजाइन किया गया है। इसरो के अनुसार, सूर्य और पृथ्वी के बीच 5 लैग्रेंजियन बिंदु हैं और प्रभामंडल कक्षा में ‘एल1’ बिंदु से उपग्रह सूर्य को बिना किसी बाधा/बिना किसी ग्रहण के लगातार देखकर अध्ययन से जुड़ी जानकारियां प्रदान करेगा। 
 
इसरो ने कहा कि इससे सौर गतिविधियों को लगातार देखने का अधिक लाभ मिलेगा। इस जटिल मिशन के बारे में इसरो ने कहा है कि सूर्य सबसे निकटतम तारा है और इसलिए अन्य की तुलना में इसका अधिक विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है। इसरो ने कहा कि सूर्य का अध्ययन करके आकाशगंगा के साथ-साथ अन्य आकाशगंगाओं के तारों के बारे में भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। 
 
सूर्य पर कई विस्फोटक घटनाएं होती रहती हैं जिससे यह सौर मंडल में भारी मात्रा में ऊर्जा छोड़ता है। यदि ऐसी विस्फोटक सौर घटनाएं पृथ्वी की ओर निर्देशित होती हैं, तो यह पृथ्वी के निकट अंतरिक्ष वातावरण में विभिन्न प्रकार की गड़बड़ी पैदा कर सकती हैं।
 
इसरो के अनुसार, इस तरह की घटनाओं से अंतरिक्ष यान और संचार प्रणालियों में गड़बड़ी हो सकती है, इसलिए इस तरह की घटनाओं की पूर्व चेतावनी पहले से ही सुधारात्मक उपाय करने के लिए महत्वपूर्ण है।
 
अंतरिक्ष वैज्ञानिक ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) के अधिक शक्तिशाली संस्करण 'एक्सएल' का उपयोग कर रहे हैं जो शनिवार को सात उपकरणों के साथ अंतरिक्ष यान को ले जाएगा। इसी तरह के पीएसएलवी-एक्सएल संस्करण का इस्तेमाल 2008 में चंद्रयान-1 मिशन और 2013 में मंगल ग्रह से संबंधित मार्स ऑर्बिटर मिशन (मॉम) में किया गया था।
 
कुल सात उपकरण : अंतरिक्ष यान में लगे कुल सात उपकरणों में से चार सीधे सूर्य को देखेंगे, जबकि शेष तीन ‘एल1’ बिंदु पर कणों और क्षेत्रों का वास्तविक अध्ययन करेंगे। शुरू में, ‘आदित्य-एल1’ अंतरिक्ष यान को पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित किया जाएगा। इसे अधिक दीर्घवृत्ताकार बनाया जाएगा और बाद में इसमें लगी प्रणोदन प्रणाली का उपयोग करके अंतरिक्ष यान को लैग्रेंज बिंदु ‘एल1’ की ओर प्रक्षेपित किया जाएगा। जैसे ही अंतरिक्ष यान ‘एल1’ की ओर बढ़ेगा, यह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकल जाएगा।
 
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलने के बाद, इसका क्रूज़ चरण शुरू हो जाएगा और बाद में, अंतरिक्ष यान को एल1 के चारों ओर एक बड़ी प्रभामंडल कक्षा में स्थापित किया जाएगा। इसे इच्छित एल1 बिंदु तक पहुंचने में लगभग चार महीने लगेंगे।
 
उम्मीद है कि आदित्य-एल1 के उपकरण सूर्य के परिमंडल की गर्मी, सूर्य की सतह पर सौर भूकंप या कोरोनल मास इजेक्शन (सीएमई), सूर्य के धधकने संबंधी गतिविधियों और उनकी विशेषताओं, गतिशीलता और अंतरिक्ष मौसम की समस्याओं को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करेंगे।
 
प्रतिदिन 1440 तस्वीरें भेजेगा : ‘आदित्य-एल1’ का प्राथमिक उपकरण ‘विजिबल एमिशन लाइन कोरोनाग्राफ’ (वीईएलसी) इच्छित कक्षा तक पहुंचने पर विश्लेषण के लिए जमीनी केंद्र को प्रतिदिन 1,440 तस्वीरें भेजेगा।
 
वीईएलसी उपकरण ‘आदित्य-एल1’ का 'सबसे बड़ा और तकनीकी रूप से सबसे चुनौतीपूर्ण' पेलोड है, जिसे बेंगलुरु के पास होसकोटे में भारतीय ताराभौतिकी संस्थान (आईआईए) के क्रेस्ट (विज्ञान प्रौद्योगिकी अनुसंधान और शिक्षा केंद्र) परिसर में इसरो के सहयोग से एकीकृत किया गया था। इसका परीक्षण और क्रम निश्चित करने का कार्य भी इसी परिसर में किया गया।
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आदित्य एल1 की परियोजना वैज्ञानिक और वीईएलसी की संचालन प्रबंधक डॉ. मुथु प्रियाल ने कहा कि तस्वीर चैनल से प्रति मिनट एक तस्वीर आएगी। यानी 24 घंटे में लगभग 1,440 तस्वीर हमें जमीनी स्टेशन पर प्राप्त होंगी। इस मिशन को अंजाम देने में यहां इसरो की एक प्रमुख शाखा द्वारा विकसित तरल प्रणोदन प्रणाली अहम भूमिका निभाएगी।
 
तरल प्रणोदन प्रणाली केंद्र (एलपीएससी) 1987 में अपनी स्थापना के बाद से इसरो के सभी अंतरिक्ष अभियानों में सफलता का एक सिद्ध केंद्र रहा है। तरल और क्रायोजेनिक प्रणोदन प्रणालियां भारत की अंतरिक्ष महत्वाकांक्षाओं की रीढ़ रही हैं, जो पीएसएलवी और जीएसएलवी रॉकेट दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
 
इसके अलावा, एलपीएससी द्वारा विकसित ‘लिक्विड अपोजी मोटर’ भारत की प्रमुख अंतरिक्ष उपलब्धियों में उपग्रह/अंतरिक्ष यान प्रणोदन में महत्वपूर्ण रही है, चाहे वह तीनों चंद्रयान मिशन हों या 2014 का मंगल मिशन।
 
एलपीएससी के उपनिदेशक डॉ. एके अशरफ ने कहा कि अब हम ‘आदित्य एल1’ मिशन-आदित्य अंतरिक्ष यान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसमें एलएएम (लिक्विड अपोजी मोटर) नामक एक बहुत ही दिलचस्प, अत्यंत उपयोगी थ्रस्टर है, जो 440 न्यूटन का ‘थ्रस्ट’ प्रदान करता है। उन्होंने कहा कि आदित्य अंतरिक्ष यान को पृथ्वी से लगभग 15 लाख किलोमीटर दूर स्थित ‘लैग्रेंजियन’ कक्षा में स्थापित करने में एलएएम काफी सहायक होगी।
 
जब प्रक्षेपण यान की भूमिका समाप्त हो जाएगी तो एलएएम आदित्य अंतरिक्ष यान के प्रणोदन का कार्यभार संभाल लेगी। एलपीएससी द्वारा विकसित एलएएम अत्यधिक विश्वसनीय है, और इसका 2014 में मंगल ग्रह के अध्ययन से संबंधित ‘मार्स ऑर्बिटर मिशन’ (मॉम) के दौरान 300 दिन तक निष्क्रिय रहने के बाद सक्रिय होने का प्रभावशाली रिकॉर्ड है।
 
क्यों जरूरी है सूर्य की निगरानी : इस बीच, सूर्य के अध्ययन की आवश्यकता के बारे में भारतीय ताराभौतिकी संस्थान (आईआईए) के प्रोफेसर एवं प्रभारी वैज्ञानिक डॉ. आर रमेश ने कहा कि सौर भूकंपों का अध्ययन करने के लिए 24 घंटे के आधार पर सूर्य की निगरानी आवश्यक है जो पृथ्वी के भू-चुंबकीय क्षेत्रों को प्रभावित कर सकती है। उन्होंने कहा कि जिस तरह पृथ्वी पर भूकंप आते हैं, उसी तरह सूर्य की सतह पर सौर भूकंप भी होते हैं जिन्हें ‘कोरोनल मास इजेक्शन’ (सीएमई) कहा जाता है।
 
उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया में लाखों-करोड़ों टन सौर सामग्री अंतरग्रहीय अंतरिक्ष में बिखर जाती है। उन्होंने कहा कि इन सीएमई की रफ्तार लगभग 3000 किमी प्रति सेकंड होती है। डॉ. रमेश ने उल्लेख किया कि कुछ सीएमई पृथ्वी की ओर भी आ सकते हैं। सबसे तेज़ सीएमई लगभग 15 घंटे में पृथ्वी के निकट पहुंच सकता है। उन्होंने कहा कि ये सीएमई पृथ्वी तक आते हैं।
 
उदाहरण के लिए, 1989 में, जब सौर वायुमंडल में भारी हलचल हुई तो कनाडा में क्यूबेक क्षेत्र लगभग 72 घंटों तक बिजली के बिना रहा था। वहीं 2017 में सीएमई की वजह से स्विट्जरलैंड का ज्यूरिख हवाई अड्डा करीब 14 से 15 घंटे तक प्रभावित रहा था।
 
डॉ. रमेश ने कहा कि एक बार जब सीएमई पृथ्वी पर पहुंच जाते हैं, जो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों वाले एक बड़े चुंबक की तरह है, तो वे चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के साथ यात्रा कर सकते हैं और फिर वे पृथ्वी के भू-चुंबकीय क्षेत्र को बदल सकते हैं। उन्होंने कहा कि एक बार जब भू-चुंबकीय क्षेत्र प्रभावित हो जाता है, तो इससे उच्च वोल्टेज वाले ट्रांसफॉर्मर प्रभावित हो सकते हैं। उन्होंने रेखांकित किया कि इसलिए, सूर्य की लगातार निगरानी के लिए अवलोकन केंद्र स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है, जो लैग्रेंजियन (एल1) बिंदु से संभव है। (भाषा/वेबदुनिया) 
 

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