माना जाता है कि परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों को पृथ्वी से नष्ट कर दिया था। ऐसा माना जाना उचित नहीं है। क्षत्रियों का एक समाज है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है और वह समाज आज भी कायम है। इस समाज में एक राजा हुए सहस्रार्जुन। परशुराम ने इस राजा और इनके पुत्र और पौत्रों का ही वध किया था और माना जाता है कि उन्होंने इसके लिए 21 बार युद्ध किया था।
कौन था सहस्रार्जुन?- सहस्रार्जुन एक चंद्रवंशी राजा था। इन्हीं के पूर्वज थे महिष्मंत जिन्होंने नर्मदा के किनारे महिष्मती (आधुनिक महेश्वर) नामक नगर बसाया। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरांत कनक के 4 पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने माहिष्मती के सिंहासन को संभाला। भार्गववंशी ब्राह्मण इनके राजपुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ऋषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर संबंध थे। कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन थे। कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण उन्हें कार्तवीर्यार्जुन भी कहा गया।
कार्तवीर्यार्जुन ने अपनी आराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्तवीर्यार्जुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था जिसके कारण उन्हें सहस्रार्जुन कहा जाने लगा। सहस्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।
युद्ध का कारण- ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया।
जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्रार्जुन की भुजाएं कट गईं और वह मारा गया।
तब सहस्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि का वध कर डाला। परशुराम की मां रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गईं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया- 'मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश कर दूंगा।'
तब अहंकारी और दुष्ट हैहय- क्षत्रियों से उन्होंने 21 बार युद्ध किया था। क्षुब्ध परशुरामजी ने प्रतिशोधवश सर्वप्रथम हैहय की महिष्मती नगरी पर अधिकार कर लिया। कार्तवीर्यार्जुन के दिवंगत होने के बाद उनके 5 पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
जयध्वज के 100 पुत्र थे जिन्हें तालजंघ कहा जाता था, क्योंकि ये काफी समय तक ताल ठोंककर अवंति क्षेत्र में जमे रहे। लेकिन परशुराम के क्रोध के कारण स्थिति अधिक विषम होती देखकर इन तालजंघों ने वितीहोत्र, भोज, अवंति, तुण्डीकेरे तथा शर्यात नामक मूल स्थान को छोड़ना शुरू कर दिया। इनमें से अनेक संघर्ष करते हुए मारे गए तो बहुत से डर के मारे विभिन्न जातियों एवं वर्गों में विभक्त होकर अपने आपको सुरक्षित करते गए। अंत में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर युद्ध करने से रोक दिया।
कहा जाता है कि भारत के अधिकांश भाग और ग्राम परशुराम द्वारा बनाए गए हैं। परशुराम का कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है, अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना नहीं।
जन्म से ब्राह्मण लेकिन कर्म से क्षत्रिय- महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ॠषि ॠचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र, महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरु, शस्त्र एवं शास्त्र के धनी ॠषि परशुराम एक ब्राह्मण के रूप में जन्मे जरूर थे, लेकिन कर्म से वे एक क्षत्रिय थे और उन्होंने किसी क्षत्रिय का नहीं, बल्कि पिता के हत्यारे और एक अहंकारी व लालची राजा तथा उसके पुत्रों का वध किया था। परशुराम उसी तरह क्षत्रिय थे जिस तरह की विश्वकर्मा जन्म से क्षत्रिय होने के बावजूद कर्म से ब्राह्मण माने गए।
वैदिक काल में व्यक्ति को उसके कर्मों के आधार पर ही किसी वर्ण विशेष में शामिल किया जाता था। मनु स्मृति में भी लिखा हुआ है कि कोई भी मनुष्य जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र नहीं होता है। कोई भी व्यक्ति अपने कर्मों से ही अपने वर्ण का चयन करता है। इस मान से परशुराम क्षत्रिय थे, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में कई युद्ध लड़े थे। उनका आचरण और व्यवहार भी क्षत्रियों-सा ही रहा है। उल्लेखनीय है कि भृगु कुल में कई वंश ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या अन्य हो गए हैं। ब्रह्मा के ही पुत्रों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्रों का जन्म हुआ है।
परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की। कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
सहस्रार्जुन की समाधि- सहस्रार्जुन की समाधि एवं मंदिर इंदौर से 90 किमी दूरी पर स्थित नर्मदा नदी के किनारे महेश्वर में है। समाधि पर शिवलिंग स्थापित है। यहां अखंड 11 नंदा द्वीप मंदिर में प्रज्वलित हैं। माना जाता है कि जायसवाल समाज भी स्वयं को हैहय चंद्रवंशीय क्षत्रिय मानकर सहस्रार्जुन को अपना आराध्य मानता है। (वेबदुनिया डेस्क)