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नारी राष्ट्र की निर्मात्री है - डॉ. अंबेडकर

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- मनोज कुमार गुप्ता
 
भारतीय संदर्भ में जब भी समाज में व्याप्त जाति, वर्ग एवं जेंडर के स्तर पर व्याप्त असमानताओं और उनमें सुधार संबंधी मुद्दों पर चिंतन हो रहा हो तो डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों एवं दृष्टिकोणों को शामिल किए बिना बात पूरी नहीं हो सकती। अंबेडकर ने समाज के अस्पृश्य, उपेक्षित तथा सदियों से सामाजिक शोषण से संत्रस्त दलित वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य ही नहीं किया बल्कि उनका पूरा जीवन समाज में व्याप्त रूढ़ियों और अंधविश्वास पर आधारित संकीर्णताओं और विकृतियों को दूर करने पर भी केंद्रित रहा।
 
डॉ. अंबेडकर भारत में एक ऐसे वर्गविहीन समाज की संरचना चाहते थे जिसमें जातिवाद, वर्गवाद, संप्रदायवाद तथा ऊंच-नीच का भेद न हो और प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए स्वाभिमान और सम्मानपूर्ण जीवन जी सके। उनके चिंतन का केंद्र महिलाएं भी थीं क्योंकि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत ही चिंतनीय थी। पुरुष वर्चस्व की निरंतरता को कायम रखने के लिए महिलाओं का धार्मिक और सांस्कृतिक आडंबरों के आधार पर शोषण किया जा रहा था।
 
हालांकि 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में समाज सुधार आंदोलन हुए जिनका मुख्य उद्देश्य महिलाओं से जुड़ी तमाम सामाजिक कुरीतियों को दूर करना था जैसे- बाल विवाह को रोकना, विधवा पुनर्विवाह, देवदासी प्रथा आदि मुद्दे प्रमुखता से शामिल थे।


अन्य समाज सुधारक जहां महिला शिक्षा को परिवार की उन्नति व आदर्श मातृत्व को संभालने अथवा उसके स्त्रियोचित गुणों के कारण ही उसकी महत्ता पर बल देते थे परंतु स्त्री भी मनुष्य है उसके भी अन्य मनुष्यों के समान अधिकार हैं। इसे स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। लेकिन अंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के समर्थक थे वे महिलाओं को किसी भी रूप में पुरुषों से कमतर नहीं मानते थे।
 
बंबई की महिला सभा को संबोधित करते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था 'नारी राष्ट्र की निर्मात्री है, हर नागरिक उसकी गोद में पलकर बढ़ता है, नारी को जागृत किए बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है।' 
 
डॉ. अंबेडकर महिलाओं को संवैधानिक अधिकार दिलाने के पक्षधर थे। जिससे महिलाओं को भी सामाजिक, शैक्षिक एवं राजनीतिक स्तर पर समानता का अधिकार मिल सके। इस शोध पत्र में डॉ. अंबेडकर के उन विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे महिलाओं कि स्थिति के लिए प्रयासरत एवं चिंतनशील थे। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।
 
भारतीय नारीवादी चिंतन और अंबेडकर के महिला चिंतन की वैचारिकी का केंद्र ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था और समाज में व्याप्त परंपरागत धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताएं ही थीं। जो महिलाओं को पुरुषों के आधीन बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती रही हैं।


वर्ष 1916 में अंबेडकर ने मानवविज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डेंविसर द्वारा कोलंबिया विश्वविद्यालय, यूएसए में आयोजित सेमिनार में 'कास्ट इन इंडिया : देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट' शीर्षक से पत्र पढ़ा जो जाति और जेंडर के बीच अंतरसंबंधों की समझ पर आधारित था।
 
भारतीय संदर्भ में देखा जाय तो अंबेडकर संभवतः पहले अध्येता रहे हैं, जिन्होंने जातीय संरचना में महिलाओं की स्थिति को जेंडर की दृष्टि से समझने की कोशिश की। यह वह समय था जब, यूरोप के कई देशों में प्रथम लहर का महिला आंदोलन अपनी गति पकड़ चुका था जो मुख्य रूप से महिला मताधिकार के मुद्दे पर केंद्रित था।


20वीं सदी के शुरुआती दशकों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनों में महिलाएं भी खुलकर भाग लेने लगीं थीं। राष्ट्रीय मुद्दों के साथ ही महिलाओं से संबंधित मुद्दे भी इसी दौरान उठाए जाने लगे थे और साथ ही महिलाओं ने अपने स्वायत्त संगठन भी बनाने शुरू कर दिए थे।


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