वाह! भावनाओं और तर्क के रिश्ते को खूबसूरती से परिभाषित करने वाला एक और बेहतरीन उदाहरण मिला। बहस तो वैसे बहुत पुरानी है और कुछ झक्कियों के लिए शाश्वत भी, पर कंधों पर रखे सिर में पूरी सुरक्षा के साथ विद्यमान 'मस्तिष्क' यानी 'दिमाग' को गर्दन से थोड़ा नीचे, बाईं ओर मौजूद 'दिल' की रूमानी सत्ता को सलाम करते देख एक अजीब-सा रोमांच, एक अजीब-सी खुशी होती है। यकीनन ये खुशी वो मारा! (दिल इतना छोटा है ही नहीं मेरे भाई!) वाली नहीं, पर हां आत्मविश्वास को प्रगाढ़ करने वाली स्मित मुस्कान लाने वाली जरूर है...।
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