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गहरे प्यार से रोमांचित होता खूबसूरत मस्तिष्क

फिल्म 'अ ब्यूटीफुल माइंड' के बहाने....

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जयदीप कर्णिक

वाह! भावनाओं और तर्क के रिश्ते को खूबसूरती से परिभाषित करने वाला एक और बेहतरीन उदाहरण मिला। बहस तो वैसे बहुत पुरानी है और कुछ झक्कियों के लिए शाश्वत भी, पर कंधों पर रखे सिर में पूरी सुरक्षा के साथ विद्यमान 'मस्तिष्क' यानी 'दिमाग' को गर्दन से थोड़ा नीचे, बाईं ओर मौजूद 'दिल' की रूमानी सत्ता को सलाम करते देख एक अजीब-सा रोमांच, एक अजीब-सी खुशी होती है। यकीनन ये खुशी वो मारा! (दिल इतना छोटा है ही नहीं मेरे भाई!) वाली नहीं, पर हां आत्मविश्वास को प्रगाढ़ करने वाली स्मित मुस्कान लाने वाली जरूर है...।



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'अ ब्यूटीफुल माइंड' फिल्म देखी और मजा आ गया। इंसानी भावनाओं, गुणों और दुनियादारी के अंतरसंबंधों की दास्तान बयान करती यह फिल्म दिल को हौले से छू लेती है। गणित में असाधारण बुद्धिमत्ता के कारण प्रसिद्ध हुए नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. जॉन फॉर्ब्स नैश, जूनियर की जीवनी पर बनी यह फिल्म वाकई प्रभावी है। जिस खूबसूरती से एक मेधावी मस्तिष्क की सत्यकथा को‍ फिल्म में पिरोकर पेश किया गया है, वह काबिल-ए-तारीफ है।

फिल्म बताती है कि मस्तिष्क एक स्वतंत्र इकाई नहीं है, वह शरीर का एक अहम हिस्सा जरूर है, पर भावनाओं के दुलार और हृदय की पुकार के बगैर वह व्यक्ति को 'व्यक्तित्व' तक नहीं ले जा सकता। इसीलिए तो नोबेल पुरस्कार से नवाजे जाने पर उसके प्रत्युत्तर में प्रोफेसर जॉन नैश द्वारा दिए गए भाषण का एक-एक शब्द महानता, बुद्धिमत्ता और भावनाओं के अंतरसंबंधों को परिभाषित करता है।

वे अपनी पत्नी के प्यार को याद करते हैं और धन्यवाद देते हैं। इसी वक्तव्य की ये पंक्तियां तो अमर हैं- 'फॉर ऑल माय लाइफ, आय हैव वर्क्ड विथ लॉजिक एंड मैथ्स। ड्यूरिंग ऑल दीज ईयर्स, व्हाइल वर्किंग विथ लॉजिक माय माइंड एक्सपिरियंस्ड एवरीथिंग फ्रॉम फिजिकल टू मेटाफिजिकल एंड बैक। दिस मेड मी थिंक, आफ्टरऑल हू डिसाइड्‍स लॉजिक एंड रिजन इन दिस वर्ल्ड? एंड टुडे आय वुड लाइक टू से दैट द ग्रेटेस्ट डिस्कवरी ऑफ माय करियर, इन फैक्ट माय लाइफ इज़ दैट ओनली इन द मिस्ट्रियस इक्वेशंस ऑफ लव, यू फाइंड लॉजिक।'

इसे हिन्दी में समझें तो कुछ यूं होगा- 'अपने पूरे जीवनभर मैं तर्क और गणित को लेकर कार्य करता रहा। इन तमाम वर्षों में तर्क के साथ कार्य करते वक्त मेरे मस्तिष्क को सभी तरह के अनुभव हुए लौकिक, अलौकिक और पुन: इसी दुनिया में वापसी के। मैं यह सोचने पर मजबूर हुआ कि आखिर सही और गलत तर्क का निर्धारण कैसे होता है? कौन है जो इस दुनिया के लिए तर्क और कारणों को निर्धारित करता है। आज मैं यह कहना चाहता हूं‍ कि मेरे करियर की, या कहूं कि मेरे जीवन की सबसे बड़ी खोज यही है कि प्यार के रहस्यमयी समीकरणों के बीच ही आप तर्क को पा सकते हैं।'


मतलब इवन इन लॉजिक, देअर इज लव- यानी तर्क के मूल में भी प्यार समाहित है। तर्क के दम पर दुनिया संचालित होने का दावा करने वाले गौर से सुन लें!

ये उस व्यक्ति के शब्द हैं जिसने पूरा जीवन तर्क के साथ (गणित की उधेड़बुन) में बिताया... हर छपे शब्द में, पत्र-पत्रिकाओं में तर्क ढूंढने वाले, आंकड़ों को जोड़-घटाकर निष्कर्ष निकालने वाले और अर्थशास्‍त्र के अपने समीकरण के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले गणितज्ञ को भी यही समझ में आया कि 'दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है।' और हमें निदा साहब के इस शेर को पूरा करना पड़ता है- 'सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला।'

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फिल्म 'अ ब्यूटीफुल माइंड' उम्दा बन पड़ी है। फिल्म को चार ऑस्कर पुरस्कार भी मिले हैं (यह भी मालूम हुआ कि ऑस्कर पाने वाली हर फिल्म संपट से बाहर हो, ऐसा जरूरी नहीं!)। इसे श्रेष्ठ फिल्म, श्रेष्ठ निर्देशक (रॉन हॉवर्ड), श्रेष्ठ सह अभिनेत्री (जेनिफर कोनेली) और श्रेष्ठ रूपांतरित पटकथा (अकीवा गोल्ड्समैन) के पुरस्कार मिले हैं। फिल्म सिल्विया नासर द्वारा लिखित प्रो. जॉन नैश की जीवनी पर आधारित है।

प्रो. जॉन नैश (जूनियर) की भूमिका निभाई है हॉलीवुड के प्रख्यात ‍अभिनेता रसेल क्रो ने। रसेल क्रो ने जिस शिद्दत से इस किरदार को निभाया है वह पूरी फिल्म को आवश्यक जीवंतता प्रदान करता है। इस अभिनय के लिए रसेल क्रो भी श्रेष्ठ ‍अभिनेता के ऑस्कर की दौड़ में थे। पुरस्कार उन्हें भले न मिला हो, दर्शक का दिल वे जरूर जीत लेते हैं। अभिनेत्री जेनिफर कोनेली के भावप्रवण अभिनय ने फिल्म को सार्थकता प्रदान की है।

वे एक आदर्श जीवनसंगिनी के रूप में उभरती है। वो ही तो हैं जो इस मस्तिष्क की खूबसूरती को पहचानती हैं, उसे झक्की कहकर पल्ला झाड़ने की बजाए उसे प्यार का वो स्पर्श देती हैं, जो उस मस्तिष्क की पूर्णता के लिए जरूरी है। पूर्णता तो प्यार और भावनाओं के आगोश में ही है- उसके बगैर तो बस शुष्क भटकाव है।

अगले पेज पर : क्या है फिल्म की कहानी


फिल्म की कहानी शुरू होती है सन् 1948 में जॉन नैश के प्रिंसटन विश्वविद्यालय (अमेरिका) में स्नातक विद्यार्थी के रूप में प्रवेश के साथ। कक्षा में जाकर सामान्य रूप से पढ़ना उसे नहीं रुचता। होस्टल के अपने कमरे में और पुस्तकालय में स्‍थित खिड़कियों के शाशे ही उसकी अभ्यास पुस्तिका हैं। गणित के ‍अपने तर्क, आकलन और समीकरणों को वो खिड़की के पारदर्शी शीशों और कागजों पर बेतरतीब उतारता रहता है।

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उसके अधिकांश सहपाठी उसे झक्की समझकर उससे कन्नी काटते हैं। लेकिन उसे तो बस अपना कुछ मौलिक करने की धुन सवार है। बस उसका होस्टल के कमरे में साथ रहने वाला सहपाठी चार्ल्स हर्मन (पॉल बेटनी) ही है, जो उसकी तीक्ष्‍ण बुद्धि को समझता है। कुछ असफलताओं और बाधाओं के बाद भी आखिर जॉन नैश अर्थशास्त्र के एक सिद्धांत के लिए सफल परिकल्पना गढ़कर गणित जगत का चर्चित सितारा बन जाता है।

इसी के चलते उसे मि‍शीगन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रतिष्ठित पद पर नौकरी मिलती है। यहीं उसकी मुलाकात एलिशिया (जेनिफर कोनेली) से होती है, जो उसकी कक्षा की एक छात्रा है। वह जॉन नैश की तरफ आकर्षित होती है और पाती है कि वह अलग और बढ़िया व्यक्ति है। इसी दौरान वह पेंटागन के लिए सलाहकार के रूप में कार्य करता है, जटिल कूट संदेशों को पढ़ता है, वह सीआईए एजेंट विल‍ियम पार्चर (एड हैरिस) से मिलता है, जो उसे रूसी जासूसों को पकड़ने का एक अतिमहत्वपूर्ण और गोपनीय कार्य सौंपता है- या ऐसा उसे आभास होता है या हमेशा गणित के बारे में सोचने वाला उसका दिमाग ऐसा गढ़ लेता है।

धीरे-धीरे जॉन नैश का यह 'खूबसूरत मस्तिष्क' सनक और झक्कीपन से मनोविकार तक पहुंच जाता है। वह स्किजोफ्रेनिया का शिकार हो जाता है। उसकी पत्नी एलिशिया उसे मनो‍चिकित्सक के पास ले जाकर उपचार करवाती है। उसके जीवन का यह दौर पर्दे पर देखना भी वाकई पीड़ादायक है।

नैश को बस अब अपना खूबसूरत मस्तिष्क वापस चा‍हिए और वह इसके लिए कड़ा संघर्ष करता है। उसकी हमसफर उसे सहारा देती है, प्यार देती है, मदद करती है। जिंदगी से हार न मानने की जि‍जीविषा और स्वयं को पुन: पाने के जीवट को बेहतरीन रूप में प्रस्तुत किया गया है। समय के साथ प्रो. जॉन नैश अपने आपको फिर पा लेते हैं। हालांकि उनका भ्रमजाल पूरी तरह खत्म नहीं हो पाता, पर वे उसके साथ जीना सीख लेते हैं। फिल्म के कुछ दृश्य तो खासतौर पर बहुत अच्‍छे हैं।


नोबेल पुरस्कार समारोह में प्रो. जॉन नैश का भाषण, उनके और एलिशिया के संवाद-दृश्य और वह दृश्य जिसमें एक रेस्तरां में बैठे प्रो. जॉन नैश के सम्मान में वहां इर्द-गिर्द मौजूद अन्य लोग अपनी-अपनी कलम निकालकर उनकी टेबल पर आदरपूर्वक रख देते हैं। उन्हें यूं सम्मान और मान्यता पाते देखना बहुत अच्‍छा लगता है।

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फिल्म अच्छी है और उसे उसी रूप में सराहा भी गया- पता नहीं भारत में इंसानी रिश्तों या सामाजिक सरोकारों पर बनने वाली फिल्में अर्द्धसत्य, थोड़ा-सा रूमानी हो जाएं, मैं आजाद हूं या लाल सलाम बनकर हाशिए पर क्यों चली जाती हैं?

खैर, तो अंतिम लक्ष्य क्या है? पैसा, प्रसिद्धि, बंगला, गाड़ी? जैसे विश्व सुंदरियों को रटवा दिया गया है वैसे ही हमारे मुंह से बरबस निकल पड़ेगा- नहीं 'प्यार'। ‍तो फिर ये भागा-दौड़ी क्यों? केवल उत्तर रट लेने से काम नहीं चलेगा- उसे समझना और जीना जरूरी है। दरअसल, अंतिम लक्ष्‍य (वैसे लक्ष्य कहना ही गलत होगा, ये अनंत यात्रा जो है...) है आत्मा की संतुष्टि।

बुद्धि, आत्मा की संतुष्टि में मददगार तो हो सकती है, पर सर्वेसर्वा नहीं। बुद्धि की अपनी जरूरत और उद्देश्य हैं। नोबेल पुरस्कार बुद्धि का मान बढ़ाकर उसे संतुष्ट कर सकता है, पर रूह की प्यास बुझाने के लिए तो प्यार चाहिए। नोबेल या ऑस्कर पुरस्कार नहीं भी मिला तो जी सकते हैं, पर प्यार और भावनाओं के बगैर नहीं।

इसीलिए तो तमाम दौलत और शोहरत पाने के बाद भी माधुरी दीक्षित कहती हैं कि उन्हें श्रीराम नेने इसलिए पसंद आए कि वे तो उस माधुरी दीक्षित को पहचानते ही नहीं थे, जो भारतीय सिनेमा में शोहरत के शिखर पर बैठी थी। उन्होंने उस माधुरी से प्यार किया जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, एक इंसान के रूप में, एक महिला के रूप में।

अपनी मौत के इतने बरसों बाद भी चर्चा में बनी रहने वालीं मर्लिन मुनरो का तो पूरा जीवन ही सच्चे प्यार की अनंत प्यास और तड़प की दास्तान है। उन्होंने कहा था- 'प्यार और अपना कार्य यही दो चीजें हैं, जो प्राय: हमारे साथ होती हैं। इसके अलावा सचमुच कोई और चीज मायने नहीं रखती। मेरा मानना है कि एक के बिना दूसरी अच्छी नहीं हो सकती'। यानी जो कार्य आप कर रहे हैं, उससे आपको प्यार होना चाहिए तभी उसमें आप सर्वश्रेष्ठ कर पाएंगे।

बात की शुरुआत में एक बात रखी थी कि खोपड़ी में विराजमान मस्तिष्क और सीने में धड़कते दिल के बीच जंग तो खैर चलती ही रहती है। कहीं पढ़ा था और एक मित्र ने भी चर्चा के दौरान फरमाया था- 'मस्तिष्क को सबसे ऊपर रखा ही इसलिए है कि वह सर्वोपरि है, सबकुछ सोच-समझकर करना जरूरी है। जो दिल-दिल, और उसकी भावनाएं तुम करते हो उसे तो रखा ही मस्तिष्क के नीचे गया है।' वाह भइए! शरीर विज्ञान के आधार पर क्या तर्क लाए! पर तुम सिर्फ तर्क लाए, इसीलिए मार खा गए! दिल जानता है कि जो बड़ा होता है, विनम्र होता है, वह झुकना पसंद करता है। तुम ऊपर बैठ जाओ, हमारी तो हार में भी जीत है। जब सोच-समझकर किए हुए कार्य भी असफल होंगे और 'समझ' में कुछ नहीं आएगा तो दिल की शरण में आओगे। याद रखिए- 'इवन इन लॉजिक देअर इस लव।' अच्छी फिल्में, जीवन के अच्छे प्रसंग, हमें इस हल्के स्पर्श और महत्व से आल्हादित करते रहें तो मं‍जिल की परवाह अपने आप खत्म हो जाएगी। कबीर भी कह गए कि जो डूब जाता है वो तैर जाता है।

नरेश सक्सेना कहते हैं- 'पुल पार करने से, पुल पार होता है नदी पार नहीं होती।'

... और गालिब कह गए-


परतवे खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम।
मैं भी हूं इक इनायत की नज़र होने तक।

समाप्त


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