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सूखते खेत, पिछड़ती खेती

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, रविवार, 3 जून 2007 (01:58 IST)
मध्यप्रदेश के आर्थिक सर्वेक्षण 2006-07 में यह तथ्य उजागर हुआ है कि पिछले पाँच वर्षों से हमारी कृषि विकास दर मात्र 2.5 प्रतिशत की ही रही है।

इसकी तुलना में प्रदेश की समग्र आर्थिक विकास दर 4 प्रतिशत के लगभग अंकित की गई है। पूर्णतः कृषि अर्थव्यवस्था पर आधारित प्रदेश में कृषि विकास दर का समग्र आर्थिक विकास दर से कम रहना विशिष्ट चिंता का विषय है।

वस्तुतः कृषि क्षेत्र में विकास दर कम रहने के लिए स्वयंमेव इसी क्षेत्र का अत्यधिक साधारण प्रदर्शन ही पूरी तरह जिम्मेदार है। इस साधारण प्रदर्शन के दो प्रमुख कारण गिनाए जा सकते हैं।

प्रथम- कृषि क्षेत्र को योजना बजट में निम्नतम प्राथमिकता दिया जाना तथा द्वितीय-निर्मित की गई सिंचाई क्षमता का आधे से भी कम उपयोग होना।

पिछले पाँच वर्षों की वार्षिक योजना राशि में कृषि क्षेत्र का ह‍िस्सा कम होने के साथ-साथ ही इसमें गिरावट भी दर्ज हुई है। वार्षिक योजना राशि में कृषि क्षेत्र का हिस्सा वर्ष 2002-03 के 7.47 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2006-07 में मात्र 3.98 प्रतिशत ही रह गया है।

वर्ष 2002-03 की 7,631 करोड़ रुपए की वार्षिक योजना राशि में से 563 करोड़ रुपयों की धनराशि ही कृषि क्षेत्र को प्रदान की गई थी। इसकी तुलना में वर्ष 2006-07 की 11,306 करोड़ रुपए की वार्षिक योजना राशि में केवल 451 करोड़ रुपयों की धनराशि ही कृषि क्षेत्र के लिए निर्धारित की गई।

इस प्रकार पिछले पाँच वर्षों में राज्य योजना राशि में कृषि क्षेत्र के हिस्से में लगभग 112 करोड़ रुपयों की गिरावट दर्ज की गई है। यह इस योजना हेतु स्वीकृत धनराशि में 19.90 प्रतिशत की कमी दर्शाती है। स्पष्ट है, प्रदेश के कृषि क्षेत्र में शिथिलता लाने में इस क्षेत्र की योजना राशि में निरंतर कमी किया जाना एक प्रमुख कारण दृष्टिगोचर होता है।

निर्मित हो चुकी इस स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु केंद्रीय योजना आयोग कृषि क्षेत्र में निवेश को इस गति से बढ़ावा देना चाहता है कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाकाल में यह राज्यों की कुल योजना राशि का 12 प्रश तक पहुँच जाए।

कृषि क्षेत्र में योजना राशि में आई गिरावट के विपरीत पिछले पाँच वर्षों में सिंचाई क्षेत्र के लिए योजना राशि का हिस्सा 90 प्रतिशत तक बढ़ा है यानी 2002-03 के 995 करोड़ रुपए से बढ़कर यह 2006-07 में 1,894 करोड़ रुपए हो गया है। राज्य की कुल योजना राशि में सिंचाई क्षेत्र का हिस्सा 2002-03 के 13.21 प्रतिशत से बढ़कर 2006-07 में 16.75 प्रतिशत तक पहुँच गया है यानी पाँच वर्षों में 3.54 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई है।

इस प्रकार किए गए इस निवेश से पिछले पाँच वर्षों में 3.80 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता निर्मित की गई है, परंतु दुर्भाग्यवश कृषकों के खेतों में वास्तविक सिंचाई इसके आधे से कम क्षेत्र में पहुँच पाई है।

पिछले चार वर्षों के आँकड़े बताते हैं कि औसतन 42 प्रतिशत सिंचाई क्षमता का ही खेतों में अद्यतन सिंचाई हेतु उपयोग हो सका है। इस आधार पर 3.80 लाख हैक्टेयर निर्मित सिंचाई क्षमता का मात्र 1.60 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में ही उपयोग हो पाया है।

पिछले पाँच वर्षों में 3.80 लाख हैक्टेयर सिंचाई क्षमता निर्मित करने में 7,180 करोड़ रुपयों की जो भारी धनराशि व्यय की गई है, उसमें से केवल 3,015 करोड़ रुपयों की ही वास्तविक सिंचाई किसानों के खेतों तक पहुँच पाई है। शेष 4,165 करोड़ रुपयों द्वारा निर्मित 2.20 लाख हैक्टेयर सिंचाई क्षमता वाले जलाशयों का लाभ कृषकों को नहीं मिल पाया है।

इस प्रकार हमारी प्रति हैक्टेयर सिंचाई लागत 4.48 लाख रुपयों पर पहुँच गई है, जो वास्तविक निर्मित सिंचाई क्षमता लागत (1.98 लाख रुपए प्रति हैक्टेयर) से 2.59 लाख रुपए अधिक है। एक ओर तो हम सिंचाई क्षेत्र में वांछित निवेश बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इस निवेश का पूरा-पूरा लाभ उठा पाने में अपने आपको सर्वथा असमर्थ पा रहे हैं।

वस्तुतः इससे हमारे कृषि क्षेत्र के विकास की गति मंद हो गई है, फलतः सरकार को सिंचाई क्षमता बढ़ाने के बजाय पूर्व निर्मित सिंचाई क्षमता का शत-प्रतिशत उपयोग करने पर अपना पूरा-पूरा ध्यान केंद्रित करना होगा।
(लेखक एशियाई विकास बैंक के पूर्व वित्तीय सलाहकार हैं।)

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