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नौशाद अली : अमर संगीत देने वाले नायाब रत्न

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भारतीय सिनेमा को समृद्ध बनाने वाले संगीतकारों की कमी नहीं है लेकिन नौशाद अली के संगीत की बात ही अलग थी। नौशाद ने फिल्मों की संख्या को कभी तरजीह नहीं देते हुए केवल संगीत को ही परिष्कृत करने का काम किया।

1940 से 2006 तक उन्होंने अपना संगीत का सफर जारी रखा। उन्होंने अंतिम बार 2006 में बनी 'ताजमहल' के लिए संगीत दिया। अपने अंतिम दिनों तक वे कहते थे, 'मुझे आज भी ऐसा लगता है कि अभी तक न मेरी संगीत की तालीम पूरी हुई है और न ही मैं अच्छा संगीत दे सका।' और इसी मलाल के साथ वे 5 मई 2006 को इस दुनिया से रुखसत हो गए

नौशाद को पहली बार 'सुनहरी मकड़ी' फिल्म में हारमोनियम बजाने का अवसर मिला। यह फिल्म पूरी नहीं हो सकी लेकिन शायद यहीं से नौशाद का सुनहरा सफर शुरू हुआ। इसी बीच गीतकार दीनानाथ मधोक (डीएन) से उनकी मुलाकात हुई तो उन्होंने उनका परिचय फिल्म इंडस्ट्री के अन्य लोगों से करवाया जिससे नौशाद को छोटा-मोटा काम मिलना प्रारंभ हुआ।

1940 में बनी 'प्रेम नगर' में नौशाद को पहली बार स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन का मौका मिला। इसके बाद एक और फिल्म 'स्टेशन मास्टर' भी सफल रही। उसके बाद तो जैसे नौशाद संगीत के मोतियों की माला-सी बुनते चले गए।

यह नौशाद के संगीत का ही जादू था कि 'मुगल-ए-आजम', 'बैजू बावरा', 'अनमोल घड़ी', 'शारदा', 'आन', 'संजोग' आदि कई फिल्मों को न केवल हिट बनाया बल्कि कालजयी भी बना दिया। 'दीदार' के गीत- 'बचपन के दिन भुला न देना', 'हुए हम जिनके लिए बरबाद', 'ले जा मेरी दुआएँ ले जा परदेश जाने वाले' आदि की बदौलत इस फिल्म ने लंबे समय तक चलने का रिकॉर्ड कायम किया। इसके बाद तो नौशाद की लोकप्रियता में खासा इजाफा हुआ।

उनका संगीत नवाजा गया
'बैजू बावरा' की सफलता से नौशाद को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 1982 में फालके अवॉर्ड, 1984 में लता अलंकरण तथा 1992 में पद्‌मभूषण से उन्हें नवाजा गया।

नौशाद को सुरैया, अमीरबाई कर्नाटकी, निर्मलादेवी, उमा देवी आदि को प्रोत्साहित कर आगे लाने का श्रेय जाता है। सुरैया को पहली बार उन्होंने 'नई दुनिया' में गाने का मौका दिया। इसके बाद 'शारदा' व 'संजोग' में भी गाने गवाए। सुरैया के अलावा निर्मलादेवी से सबसे पहले 'शारदा' में तथा उमा देवी यानी टुनटुन की आवाज का इस्तेमाल 'दर्द' में 'अफसाना लिख रही हूँ' के लिए नौशाद ने किया।

नौशाद ने ही मुकेश की दर्दभरी आवाज का इस्तेमाल 'अनोखी अदा' और 'अंदाज' में किया। 'अंदाज' में नौशाद ने दिलीप कुमार के लिए मुकेश और राज कपूर के लिए मो. रफी की आवाज का उपयोग किया। 1944 में युवा प्रेम पर आधारित 'रतन' के गाने उस समय के दौर में सुपरहिट हुए थे।

नौशाद और सहगल का एक वाकया
'शाहजहाँ' में हीरो कुंदनलाल सहगल से नौशाद ने गीत गवाए। उस समय ऐसा माना जाता था कि सहगल बगैर शराब पिए गाने नहीं गा सकते। नौशाद ने सहगल से बगैर शराब पिए एक गाना गाने के लिए कहा तो सहगल ने कहा, 'बगैर पिए मैं सही नहीं गा पाऊँगा।' इसके बाद नौशाद ने सहगल से एक गाना शराब पिए हुए गवाया और उसी गाने को बाद में बगैर शराब पिए गवाया।

जब सहगल ने अपने गाए दोनों गाने सुने तब नौशाद से बोले, 'काश! मुझसे तुम पहले मिले होते!' यह गीत कौन-सा था, यह तो यकीन के साथ नहीं कह सकता लेकिन 'शाहजहाँ' के गीत 'जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे...' तथा 'गम दिए मुस्तकिल, कितना नाजुक है दिल...' कालजयी सिद्ध हुए।

'तुम महान गायक बनोगे'
'पहले आप' के निर्देशक कारदार मियाँ के पास एक बार सिफारिशी पत्र लेकर एक लड़का पहुँचा। तब उन्होंने नौशाद से कहा कि भाई, इस लड़के के लिए कोई गुंजाइश निकल सकती है क्या। नौशाद ने सहज भाव से कहा, 'फिलहाल तो कोई गुंजाइश नहीं है। हाँ, अलबत्ता इतना जरूर है कि मैं इनको कोई समूह (कोरस) में गवा सकता हूँ।' लड़के ने हाँ कर दी।

गीत के बोल थे : 'हिन्दू हैं हम हिन्दुस्तां हमारा, हिन्दू-मुस्लिम की आँखों का तारा'। इसमें सभी गायकों को लोहे के जूते पहनाए गए, क्योंकि गाते समय पैर पटक-पटककर गाना था ताकि जूतों की आवाज का इफेक्ट आ सके। उस ल़ड़के के जूते टाइट थे। गाने की समाप्ति पर लड़के ने जूते उतारे तो उसके पैरों में छाले पड़ गए थे। यह सब देख रहे नौशाद ने उस लड़के के कंधे पर हाथ रखकर कहा, 'जब जूते टाइट थे तो तुम्हें बता देना था।'

इस पर उस लड़के ने कहा, 'आपने मुझे काम दिया, यही मेरे लिए बड़ी बात है।' तब नौशाद ने कहा था, 'एक दिन तुम महान गायक बनोगो।' यह लड़का आगे चलकर मोहम्मद रफी के नाम से जाना गया!

संगीत माला के चनिंदा मनके
आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले
(राम और श्याम- 1967/ मो. रफी)

आज पुरानी राहों से कोई मुझे आवाज न दे
(आदमी- 1968/ मो. रफी)

आ जा मेरी बरबाद मोहब्बत के सहारे
( अनमोल घड़ी- 1946/ नूरजहाँ)

मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना
(बाबुल- 1950/ शमशाद बेगम, तलत महमूद)

अपनी आजादी को हम हरगिज भुला सकते नहीं
(लीडर- 1964/ मो. रफी)

बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना
(बैजू बावरा- 1952/ लता)

दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूँढ रहा है
(सन ऑफ इंडिया- 1962/ लता-रफी)

दिलरुबा मैंने तेरे प्यार में क्या क्या न किया
(दिल दिया दर्द लिया- 1966/ रफी)

दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे
(गंगा जमुना- 1961/ लता)

दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात
(कोहिनूर- 1960/ लता-रफी)

दूर कोई गाए धुन ये सुनाए
(बैजू बावरा- 1952/ शमशाद, लता, रफी)।

- निशिकांत मंडलोई


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