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पप्पू कांट डांस साला : फिल्म समीक्षा

ये फिल्म नहीं कविता है

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बैनर : आर. विज़न इंडिया प्रा. लि.
निर्माता : रविन्द्र सिंह, समीर नायर
निर्देशक : सौरभ शुक्ला
संगीत : मल्हार पाटेकर
कलाकार : विनय पाठक, नेहा धूपिया, रजत कपूर

सौरभ शुक्ला ने फिल्म नहीं बनाई कविता लिखी है। "पप्पू कांट डांस साला"... नाम ज़रूर गड़बड़ है और नाम से जिस तरह की फिल्म का अक्स मन में उभरता है, वैसी ये बिलकुल नहीं है, पर है जबरदस्त। शुरुआत के कुछ दृश्यों में विनय पाठक डराते हैं। लगता है कि फिल्म में फिर उनके बासी भोलेपन को लेकर हास्य रचा गया होगा, पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, विनय पाठक का असर उस पर से दूर होता चला जाता है और नेहा धूपिया छा जाती हैं।

नेहा धूपिया ने इस फिल्म में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। इस जैसा रोल उनके लिए कभी लिखा ही नहीं गया। आगे लिखा जाएगा इसमें संदेह है, क्योंकि हमारी फिल्मों का आधार नायक होता है नायिका नहीं।

मगर इस फिल्म में नायिका ही फिल्म का सेंटर पॉइंट है। पूरी फिल्म नायिका के आसपास घूमती है और नायिका है फिल्मों में हीरो के आसपास नाचने वाली एक लड़की, जो कोल्हापुर से आई है। माता-पिता की मर्जी के खिलाफ। ये लड़की बिंदास है, अक्खड़ है, चालाक है। यानी बिलकुल वैसी है, जैसी किसी बड़े शहर में अकेली रहने वाली लड़की को होना चाहिए।

मगर कैरेक्टर की चुनौती यह है कि इसके साथ ही ये लड़की एक औरत का दिल भी अपने अंदर रखती है। भावुक होती है, रोती है, कोई उसकी देखरेख करे तो खुश होती है, छोड़ जाए तो उदास हो जाती है। इस कैरेक्टर की तमाम बारीकियाँ नेहा धूपिया ने शानदार तरीके से उजागर की हैं। उनके बाद अगर किसी का अभिनय शानदार है तो रजत कपूर का। बहुत कम बोले हैं, पर जब-जब वे पर्दे पर आए हैं फिल्म और ज्यादा सजीव हो उठी है। उनका गेटअप भी बहुत बढ़िया है।

फिल्म में शाहाना धीमापन है। मगर ये धीमापन खलता नहीं सुकून देता है। फिल्म है दो लोगों के बीच बदलते रिश्ते की। नायक और नायिका एक दूसरे के दुश्मन हैं। मगर बहुत ही हौले-हौले उनके रिश्ते में बदलाव आता है। पहले वे एक दूसरे की मौजूदगी सहन करते हैं, फिर दोस्त होते हैं और फिर एक-दूसरे की दिल से इज्जत करने लगते हैं। पति-पत्नी की तरह एक-दूसरे का खयाल भी रखने लगते हैं।

कुछ दृश्य काबिले जिक्र हैं। नायक नायिका के लिए सेनेटरी नेपकिन खरीद कर लाता है और नायिका को ये अच्छा लगता है। रजत कपूर नायिका के घर कॉफी पीने आते हैं और केक को थोड़ा-थोड़ा-सा खाते हुए कुछ बातचीत करते हैं। ये सीन भी क्लासिकल मूवीज़ की याद दिलाता है। यहाँ फिर सौरभ शुक्ला और उनकी कहानी का जिक्र ज़रूरी है। आधी कहानी तो सौरभ की आपबीती है।

मुंबई में एक पीएनटी कॉलोनी है, जहाँ सिर्फ केंद्र सरकार की नौकरी करने वाले ही रह सकते हैं। मगर सरकारी कर्मचारी रहते कहीं और हैं और यहाँ के फ्लैटों को सस्ते दामों पर किराए से उठा देते हैं। लिहाजा स्ट्रगलर यहाँ खूब रहते हैं। यहाँ अक्सर विजिलेंस वालों के छापे भी पड़ते हैं और किराए पर उठाए गए फ्लैटों की तालाबंदी भी हो जाती है। फिल्म की कहानी में इस बात का खासा दखल है।

इत्तेफाक से नायिका का फ्लैट छिन जाता है और वो समझती है कि उसका फ्लैट नायक की शिकायत पर छीना गया है। लिहाजा वो नायक के फ्लैट में जबरन घुस जाती है। नायक को भी कहीं और ठौर नहीं है, सो साथ ही में रहते हैं।

फिल्म को देखते हुए कई बार लगा कि हम कोई क्लासिकल ऑस्कर अवॉर्ड विनिंग मूवी देख रहे हैं। फिल्म का संगीत दिल को छूने वाला है। न सिर्फ आइटम सांग शानदार है, बल्कि सभी गाने बढ़िया हैं। संगीत दिया है मल्हार ने। असली नाम है प्रसाद साष्ठे। प्रीतम की तमाम जानदार धुनों के पीछे यही बंदा रहा है। अब पहली बार खुद पूरी फिल्म में म्यूज़िक दिया है।

पहले इंदौर में रहने वाले आशुतोष देशमुख इस फिल्म के एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं। फिल्म की शूटिंग हुई है मुंबई, बनारस और सतारा में। फिल्मांकन भी बहुत ताज़गी भरा है। बनारस हो या मुंबई, लगता है पहली बार आप इन दृश्यों को देख रहे हैं। इस फिल्म के ज़रिए सौरभ शुक्ला ने फिल्म इंडस्ट्री के सभी छोटे-बड़े कामगार और कलाकारों को ट्रिब्यूट भी दिया है।

इस फिल्म को देखने के बाद फिल्म मेकिंग से जुड़े हर व्यक्ति के प्रति आपका सम्मान बढ़ जाता है। इस हफ्ते ये फिल्म न सिर्फ देखी जा सकती है, बल्कि देखी ही जाना चाहिए। हाँ कुछ कमियाँ भी हैं। नायक-नायिका के बीच प्यार का पनपना थोड़े से और ताकतवर ढंग से स्थापित किया गया होता तो बेहतर रहता।

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