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तिब्बत का द्रुकपा संप्रदाय और हेमिस मठ

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हमें फॉलो करें तिब्बत द्रुकपा संप्रदाय
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जम्‍मू-कश्‍मीर में लेह के दक्षिण-पूर्व दिशा में शहर से 47 किमी की दूरी पर स्थित है बौधों का हेमिस मठ। शहर की सबसे बड़ी पहाड़ी पर स्थित है- हेमिस मठ, जो शहर का मुख्‍य आकर्षण है। पर्यटकों के लिए यह शहर और यहां के मठ बहुत ही शांति और सुकून देने वाले हैं।

हेमिस मठ कपुन: निर्माण 1630 ई. में सबसे पहले स्‍टेग्‍संग रास्‍पा नंवाग ग्‍यात्‍सो ने करवाया था। बाद में 1972 में राजा सेंज नामपार ग्‍वालवा ने मठ का पुन:निर्माण करवाया और एक धार्मिक स्‍कूल भी बनवाया।

द्रुकपा वार्षिक सम्मेलन 29 अगस्त से लेह-लद्दाख में

तिब्बती बौधों का यह धार्मिक स्‍कूल तिब्‍बती स्‍थापत्‍य शैली में बना हुआ है जो बौद्ध जीवन और संस्‍कृति को प्रदर्शित करता है। मठ के हर कोने में कुछ न कुछ खास है और कई तीर्थ भी हैं, लेकिन पूरे मठ का आकर्षण केंद्र ताम्बे की भगवान बुद्ध की प्रतिमा है। इसके अलावा मठ की दीवारों पर जीवन के चक्र को दर्शाते कालचक्र को भी लगाया गया है। मठ के दो मुख्‍य भाग है जिन्‍हे दुखांग और शोंगखांग कहा जाता है।

वर्तमान में इस मठ की देखरेख द्रुकपा संप्रदाय के लोग करते हैं, यह लोग बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय की वज्रयान शाखा के अनुयायी माने जाते हैं।

अगले पन्ने पर जानिए द्रुकपा संप्रदाय के बारे में...


बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिए किया गया है। इस शाखा का विकास तिब्बत में हुआ। माना जाता है कि यह संप्रदाय छठी से सातवीं सदी में फला-फूला। महायान के अंतर्गत वज्रयान और वज्रयान के अंतर्गत ही द्रुकपा संप्रदाय का विकास हुआ।

12 सदी में इस संप्रदाय की शुरुआत हुई, अर्थात आज से 800 साल पूर्व। विश्वभर में इसके अनुयाई फैले हुए हैं, लेकिन भारत में द्रुकपा संप्रदाय को फैलाने का श्रेय द्रुकपा धर्मगुरु 11वें ग्यालवांग द्रुकपा को ‍अधिक जाता है। यह पंथ भारत और नेपाल में सक्रिय है।

महायान बौद्ध धर्म सम्प्रदाय के सबसे लोकप्रिय बोधिसत्वों में से एक अवलोकितेश्वर के अनुयायी सिद्ध लिंग्चें रेपा दोरजी (1128-1188) ने द्रुकपा वंश की शुरुआत की। लिंग्चें का जन्म तिब्बत के त्सांग क्षेत्र के न्यांग टॉड जिले में लांगपो नामक गांव में हुआ।

तिब्बत में द्रुक का अर्थ ड्रैगन माना गया है।

सिद्धों की वज्रयान शाखा में ही चौरासी सिद्धों की परंपरा की शुरुआत हुई। अगले पन्ने पर पढ़ें...तिब्बत के चौरासी सिद्धों के नाम...



तिब्बत के सिद्धों की सूची : राहुल सांस्कृतयान अनुसार तिब्बत के सिद्धों की परम्परा 'सरहपा' से हुई और 'नरोपा' पर पूरी हुई मानी जाती है। सरहपा चौरासी सिद्धों में सर्व प्रथम है। इस प्रकार इसका प्रमाण अन्यत्र भी मिलता है। हालांकि इस विषय में विद्वानों में मतभेद भी हैं। इनमें से कुछ के नाम यहां प्रस्तुत है।

लूहिपा, लोल्लप, विरूपा, डोम्भीपा, शबरीपा, सरहपा, कंकालीपा, मीनपा, गोरक्षपा, चोरंगीपा, वीणापा, शांतिपा, तंतिपा, चमरिपा, खंड्‍पा, नागार्जुन, कराहपा, कर्णरिया, थगनपा, नारोपा, शलिपा, तिलोपा, छत्रपा, भद्रपा, दोखंधिपा, अजोगिपा, कालपा, घोम्भिपा, कंकणपा, कमरिपा, डेंगिपा, भदेपा, तंघेपा, कुकरिपा, कुसूलिपा, धर्मपा, महीपा, अचिंतिपा, भलहपा, नलिनपा, भुसुकपा, इंद्रभूति, मेकोपा, कुड़ालिया, कमरिपा, जालंधरपा, राहुलपा, धर्मरिया, धोकरिया, मेदिनीपा,
पंकजपा, घटापा, जोगीपा, चेलुकपा, गुंडरिया, लुचिकपा, निर्गुणपा, जयानंत, चर्पटीपा, चंपकपा, भिखनपा, भलिपा, कुमरिया, जबरिया, मणिभद्रा, मेखला, कनखलपा, कलकलपा, कंतलिया, धहुलिपा, उधलिपा, कपालपा, किलपा, सागरपा, सर्वभक्षपा, नागोबोधिपा, दारिकपा, पुतलिपा, पनहपा, कोकालिपा, अनंगपा, लक्ष्मीकरा, समुदपा और भलिपा।

इन नामों के अंत में पा जो प्रत्यय लगा है, वह संस्कृत 'पाद' शब्द का लघुरूप है।

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