Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

आत्मनिर्भरता की दिशा में एक सार्थक कदम : लक्ष्मी तरु

Advertiesment
हमें फॉलो करें आत्मनिर्भरता लक्ष्मी तरु
- मनीषा पाण्डे

NDND
गाँधी के आर्थिक दर्शन के जो कुछ बहुत बुनियादी पहलू थे, जिस पर बौद्धिक विमर्शों में ही सारा वक्त जाया हुआ और जिसे कभी लागू नहीं किया जा सका, उसमें से एक था, स्वायत्त अर्थव्यवस्था का सिद्धांत। सूत कातना, नमक बनाना और मशीनों का विरोध इसी आत्मनिर्भरता की दिशा में उठाए गए कुछ कदम थे। अपनी आवश्यकताओं के लिए विदेशी आयात पर निर्भर न होकर हर कुछ खुद उत्पादित करना और इस तरह स्वतंत्र आत्मनिर्भर अस्मिता का निर्माण ही इस दर्शन का लक्ष्य था।

त़ड़का तक विदेशी तेल स
आज यह स्वायत्त अस्मिता ही नहीं है। हम अपनी तमाम आवश्यकताओं के लिए विदेशी आयात पर निर्भर हैं और देश कर्ज के बोझ से दबा हुआ है। पेट्रोलियम पदार्थों से लेकर खाद्य सामग्री तक का एक ब़ड़ा हिस्सा विदेशों से आयात किया जाता है। वास्तव में हमारा देश आज खाद्य पदार्थों के अभाव और बिजली की गति से ब़ढ़ते दामों के संकट से जूझ रहा है। आँक़ड़े बताते हैं कि देश में खाद्य तेलों की कुल खपत का आधा ही हम उत्पादित कर पा रहे हैं। बाकी का 50 प्रतिशत यानी कि सालाना लगभग 15,000 करो़ड़ रुपए का खाद्य तेल विदेशों से आयात किया जाता है।

इस संकट की भयावहता आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर जी को भी उद्वेलित कर रही थी। उन्होंने इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने का निर्णय लिया है। कृषि उत्पादन और विधियों को विकसित करने के लिए उन्होंने श्री श्री इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य सस्ती और लाभदायक कृषि विधियों की खोज करना था, जिससे भारत में कृषि और किसानों की दशा में सुधार हो सकें। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है लक्ष्मी तरु की खेती। इससे हमारा देश खाद्य तेलों के उत्पादन की दिशा में आत्मनिर्भर हो सके।

वर्ष 2005 में भारत ने कुल 1,25,000 करो़ड़ रुपए बायोडीजल पदार्थों के आयात पर खर्च किए, जिसमें से 1,10,000 करो़ड़ रुपए पेट्रोलियम और 15,000 करो़ड़ रुपए खाद्य तेलों पर खर्च किए गए थे। यह राशि वर्ष 2006-2007 की कुल 563991 करो़ड़ की व्यय राशि का 2.12% है। इन सबके बावजूद हमारा देश खाद्य तेलों के गहरे संकट से जूझ रहा है। ऐसे समय यह एक ब़ड़ा कदम है। अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हम किस तरह से आत्मनिर्भरता के इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। यह लक्ष्य पूरा होगा, लक्ष्मी तरु वाटिका की संकल्पना के साथ। रविशंकरजी ने आर्ट ऑफ लिविंग के तहत ब़ड़े पैमाने पर ऐसे वृक्ष लगाने की योजना बनाई है, जिसके बीजों से तेल निकाला जा सकेगा। वृक्ष धरती को उर्वर बनाएँगे, वातावरण शुद्ध करेंगे और इससे खाद्य तेलों का भी ब़ड़े पैमाने पर उत्पादन होगा। यह वृक्ष अनुर्वर धरती पर भी उगाए जा सकेंगे।

webdunia
NDND
इससे गरीब किसानों को भी आत्मनिर्भर होने में मदद मिलेगी। यह कोशिश हमारी अर्थव्यवस्था, किसानों की स्थिति और पर्यावरण, सभी को प्रभावित करेगी। इससे बायो ऊर्जा का भी निर्माण किया जाएगा। रविशंकर की इस संकल्पना में इन वृक्षों को लक्ष्मी तरु कहा गया है। इसका वास्तविक नाम सिमरोबा है, जो एक किस्म का तेल वृक्ष होता है। वृक्षों की यह प्रजाति मुख्यतः सेंट्रल अमेरिका के जंगलों में पाई जाती है। 1960 में अमरावती, महाराष्ट्र के नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्स ने सर्वप्रथम इससे परिचित करवाया। बाद में बंगलोर के कृषि विद्यालय से लेकर विभिन्न विश्वविद्यालयों में इस वृक्ष पर तमाम शोध किए गए। अब व्यापक स्तर पर लक्ष्मी तरु वाटिकाएँ बनाई जाएँगी।

इन वृक्षों से जो बीज उत्पन्न होगा, उससे तेल और फिर बायो ऊर्जा का निर्माण किया जाएगा। प्रत्येक विकसित वृक्ष 15 से 35 किलोग्राम तक फलियाँ देगा, जिससे कॉलेस्ट्रॉल रहित खाद्य तेल बनेगा। इस तेल का इस्तेमाल बायो ईंधन के रूप में भी होगा। पे़ड़ की छालों से दवाइयाँ और लक़ड़ी से खिलौनों-फर्नीचर इत्यादि का निर्माण किया जाएगा।

सिमरोबा की खेत
हमारे देश में अभी बहुत ब़ड़े पैमाने पर सिमरोबा की खेती नहीं की जा रही है। यही कारण है कि रविशंकर जी ने इस दिशा में सोचा और यह कदम उठाया है। भारत में अभी आँध्र प्रदेश में 200 हैक्टेयर, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक में 100 हैक्टेयर जमीन पर सिमरोबा की खेती की जा रही है। सुनियोजित तरीके से और ब़ड़े पैमाने पर सिमरोबा की खेती हमें न सिर्फ खाद्य तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाएगी, बल्कि इससे जैव ईंधन से लेकर पर्यावरण की शुद्धता तक के तमाम उद्देश्य पूरे हो सकेंगे।

आर्थिक दृष्टि से भी सिमरोबा का उत्पादन बहुत महँगा नहीं है। इसे आसानी से उगाया जा सकता है। श्री रविशंकर का यह प्रयास आत्मनिर्भरता के उसी दर्शन का विस्तार है। दरअसल इस कठिन समय में ऐसे रचनात्मक कदम ही कुछ अर्थपूर्ण परिणामों तक पहुँचा सकते हैं। यह एक अच्छी शुरुआत और इससे आत्मनिर्भर स्वायत्त अर्थव्यवस्था के निर्माण की जमीन बन सकेगी, ऐसी उम्मीद की जाना चाहिए।

हर पेड़ से 5 किलो ते
लक्ष्मी तरु आकार में बहुत बड़े नहीं होते और एक वृक्ष को बड़ा होने में 6 से 8 वर्ष का समय लगता है और वयस्क होने के बाद यह वृक्ष 4-5 वर्षों तक उत्पादन सक्षम होता है। दिसंबर के महीने में इनमें फूल आने की शुरुआत होती है और फरवरी मार्च-अप्रैल तक ये फूल वयस्क हो जाते हैं। इस वृक्ष के प्रत्येक बीज का 60 से 75 प्रतिशत हिस्सा तेल होता है, जिसे शोधन विधियों से निकाला जाता है। प्रत्येक वृक्ष में 15 से 30 किलोग्राम तक बीज होते हैं, जिनसे 3 से 5 किलो तेल प्राप्त किया जा सकता है। सेंट्रल अमेरिका में बेकरी उत्पादों में मुख्यतः इस तेल का इस्तेमाल किया जाता है। यह तेल स्वादिष्ट और स्वास्थ्य के लिहाज से भी पौष्टिक एवं उपयोगी होता है। यह वृक्ष पर्यावरण को शुद्ध करता है और अनुपजाऊ धरती पर भी इसे उगाया जा सकता है।


Share this Story:

Follow Webdunia Hindi