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कंघियां गंजों को बेचने ओर अड़े घोड़े दोड़ाने की चुनोती

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को खां, सियासतदां ये कर तो पेले से रिए थे, बोल अब रिए हें। दिल से दिल की बात करनी हो तो हिंदी के जुमले ई काम आते हें। लिहाजा अंगरेजी पालने में झपकियां लेने भी खांटी हिंदी में बतियाने की कोशिश कर रिए हें। मामला गंजों को कंघी बेचने ओर बाराती घोड़ों का रेस में भागने का हे। कांग्रेस में तो ये काम बरसों से बेखटके चल रिया था। दूसरी पार्टियों में देर से शुरु हुआ। मगर कोई के समझ में पेली दफा आई हे। अब कंघियां उलझन में हे के कोन की खोपड़ी पे चलें ओर घोड़े उस दोड़ का इंतजार कर रिए हें, जिसमें नेता के आगे नाचने का मोका मिले।

मियां, जिसने भी 'गंजे को कंघी बेचने' का मुहावरा गढ़ा होगा, उसे आजाद हिंदुस्तान की सियासत का पेले से बखूबी अंदाजा रिया होगा। यहां हर पार्टी इसी हिकमत के साथ चुनाव मेदान में उतरती हे। तरह-तरह के वादे करे जाते हें। झटकेबाजियां होती हें। बेबस पब्लिक अपने सर पर इस उम्मीद में हाथ फेरती रेती हे के परेशानियों से गंजी हो चुकी उसकी खोपड़ी पे कोई तो आके बाल उगाएगा। लेकिन बाल उगाना तो दूर, नेता लोग उसी पे कंघी फेरने के मूड में रेते हें। बीजेपी जेसी पार्टियां मंदिर बनाने की कंघी लेके हर चुनाव में जज्बात की चांद पर उसे फेरने में लग जाती हें।

खां, सियासत के बाराती घोड़ों का तो ओर अजब हाल हे। कांगरेस में इनकी पो बारा हे। मेडम को नाती होने से लेके बाबा की मुंह दिखाई तक में ये घोड़े ठुमकने शर्त बदते रेते हें। अगला घोड़ी चढ़ने से इंकार करे तो भी ये घोड़ी नाचने से नई अघाती। चुनोती कोई सी भी हो, चाल वो ई रेती हे। बात चुनावी रेस में दोड़ने की हो तो भी ये अपने आका आगे ई मटकती रेती हें। चमचे तालियां कूटने लगते हें। हवा बनती हे के घोड़ी का पब्लिक में खूब जलवा हे। आला नेता भी मुगालते में रेते हें। मगर घोड़ी किधर अड़ी, ये नतीजे आने के बाद पता चलता हे।

घोड़ी हो या कंघी। आम आदमी को सुकून इस बात का हे के जब कुछ लोग हर मसले का हल सड़क पे उतर के ढूंढ़ने में लगे हें, तब संजीदा लोग देसी जुमलों में मसलों को समझ ओर सुलझाने की कोशिश भी कर रिए हें। वरना दिक्कत ये थी के जो हिंदी में दिक्कतों को समझ रिए थे, उन्हे अंगरेजी में साल्व नई कर पा रिए थे ओर जो अंगरेजी में पिराब्लम असेस कर रिए थे, उनका हिंदी में कोई हल सूझ नई रिया था।

अब उन्हे ये तो पल्ले पड़ने लगा हे के गंजेपन ओर कंघी के बीच किस तरह का रिश्ता हे। घोड़े, बारात ओर रेस का तिरकोण क्या हे? याद रहे के गंजा कंघी सामने वाले के काढ़े हुए बाल देख के ई खरीदता हे। अपनी चिकनी चांद को वो जानकर भी नजर अंदाज करता हे। वोई हाल घोड़ों का हे। सत्ता के तबेले का चना खा-खा के उनकी टांगे दोड़ना भूल गई हें। वोटों के बाजार में असली चुनोती ये ई हे के ये कंघी थोक में केसे बिके ओर अड़े हुए घोड़े दुलकी केसे चलें।
बतोलेबाज

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