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जिम्मेदार नेतृत्व की दरकार

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हमें फॉलो करें मुंबई आतंकवाद समाज देश संस्कृति धर्म निरपेक्षता सांप्रदायिक दंगे हनीफ फेलिक्स
- विश्वनाथ सचदे
उस दिन जब सेना के जवानों ने नरीमन भवन को आतंकियों से मुक्त कराया तो उन गलियों में हजारों लोग वंदमातरम और भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। नारे लगाने वालों में हनीफ भी था, फेलिक्स भी और विजय भी। इससे पहले जब मुंबई के सीएसटी स्टेशन पर आतंकियों ने गोलियाँ बरसाई थीं, तब मरने वालों में भी हनीफ था, कोई फेलिक्स और कोई विजय। ये दोनों दृश्य उस साझा संस्कृति को साकार करते हैं, जो हमारे भारत को आकार देती है।

बावजूद इस तथ्य के कि स्वतंत्र भारत में पिछले साठ सालों में जितने सांप्रदायिक दंगे
  एलिक्स और विजय या हमीद उन सबके नाम हैं, जिन्होंने मुंबई पर हुए आतंकी हमले को विफल बनाकर भारत और भारतीयता को जिंदा रखा। शायद पूरा सच यह भी नहीं है। पूरा सच यह है कि आतंकवाद के खिलाफ मुंबई की ये घटनाएँ उस भारत को सार्थक सिद्ध कर रही हैं      
हुए हैं, उतने आजादी मिलने के पहले के साठ सालों में नहीं हुए थे। यह भी एक तथ्य है कि इन साठ सालों में सांप्रदायिक सौहार्द्र के अनगिनत उदाहरण सामने आए हैं। ये उदाहरण जहाँ साथ जीने के हमारे संकल्प को साकार करते हैं, वहीं इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि धर्म-निरपेक्षता और एक ईश्वर की परिकल्पना हमारे सोच और हमारी संस्कृति का आधार है।

यह सच है कि कभी राजनीति ने और कभी अपरिपक्व सोच ने हमारे सेक्युलरिज्म को कलंकित किया है, लेकिन मुंबई में आतंकी हमले के विफल होने के बाद जिस तरह हमीद, फेलिक्स और विनोद ने शहीदों की याद में मिलकर दीए जलाए थे, राष्ट्र की जय के नारे लगाए थे, वह उन पापों को धोने का सार्थक प्रयास था, जो हम जाने-अनजाने करते रहते हैं।

मुंबई में हुए आतंकी हमले के एक महीने बाद 26 दिसंबर को, एक बार फिर सारे शहर ने अपने शहीदों को याद किया था और उन भारतीयों को कंधे पर बिठाया था, जिन्होंने जान पर खेलकर उस आपदा के शिकार हुए लोगों की मदद की थी। इस प्रक्रिया में बहुत सारे गुमनाम नायकों के नाम सामने आए, जिनके लिए विपत्ति में फँसा हर व्यक्ति भारतवासी था और जिन्हें लगता था कि धर्म के आधार पर आदमी को बाँटने की कोशिश आदमीयत के खिलाफ है।

ऐसे ही नायकों में से एक विजय सुर्वे था। उस दिन विजय ने इस बात को गलत सिद्ध कर दिया था कि हर शिवसैनिक मुसलमान-विरोधी होता है। हाँ, विजय शिवसेना की कोलाबा शाखा का प्रमुख है व जब कोलाबा के नरीमन हाउस पर आतंकवादियों ने हमला किया तो विजय और उसके साथियों ने नरीमन भवन के आसपास की इमारतों से लोगों को निकालकर सुरक्षित जगहों पर पहुँचाया था।

तब विजय के साथियों ने यह नहीं सोचा था कि फँसा हुआ व्यक्ति हिन्दू है या मुसलमान या पारसी या ईसाई। वे सिर्फ यह जानते थे कि आतंकी हैवान हैं व उनका शिकार बनने वाले इंसान।

विजय के साथ लोगों की मदद करने वालों में हनीफ शेख भी था, जिसने आतंकवादियों की गोलियों के बीच से नरीमन हाउस के पास वाले मकान मर्चेंट हाउस में फँसे सिंधी और गुजराती परिवारों को बाहर निकाला था। हनीफ का अभिवादन करते हुए विजय सुर्वे ने एक सार्वजनिक सभा में कहा था, 'हनीफ, तुझ पर हमें फख्र है। पाकिस्तान वालों, यहाँ आकर देखो, यह है हिन्दुस्तान यहाँ हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई और पारसी सब एक हैं और सब आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर लड़ रहे हैं'।

एकजुट होकर उन लड़ने वालों में लियोपोल्ड रेस्तराँ को पास की दुकान में काम करने वाला फेलिक्स एम्ब्रोस भी था। जिस रात आतंकियों ने हमला किया, उस रात फेलिक्स ने सड़क पर पड़े घायलों को अस्पताल पहुँचाने के लिए कम से कम आठ चक्कर काटे थे। जिन घायलों को उसने अस्पताल पहुँचाया, उनमें से एक अनामिका भी थी, जिसका कहना है कि एलिक्स भाई उसे अस्पताल न पहुँचाते तो आज मैं जिंदा न होती।

सच बात तो यह है कि एलिक्स और विजय या हमीद उन सबके नाम हैं, जिन्होंने मुंबई पर हुए आतंकी हमले को विफल बनाकर भारत और भारतीयता को जिंदा रखा। शायद पूरा सच यह भी नहीं है। पूरा सच यह है कि आतंकवाद के खिलाफ मुंबई की ये घटनाएँ उस भारत को सार्थक सिद्ध कर रही हैं, जिसे हमने अपने संविधान में, 'हम भारत के लोग' कहा है। हम भारत के लोग एकता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आदर्शों में विश्वास करते हैं।

26 जनवरी 1950 को हमने उन गणतांत्रिक मूल्यों को अपने लिए स्वीकारा था, जो मनुष्यता को परिभाषित करते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के नाम पर बाँटने के नापाक इरादों और कोशिशों को हमने उतनी बार विफल किया है, जितनी बार ये कोशिशें हुई हैं। चाहे ये कोशिशें देश के भीतर से हों या बाहर से, इनका उद्देश्य भारत को कमजोर बनाना है। भारत को कमजोर बनाने का मतलब है, उन मूल्यों और आदर्शों को अर्थहीन सिद्ध करना, जो मनुष्यता को अर्थ देते हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता।

हम ऐसा होने नहीं देंगे। आतंकी हमलों के बाद जिस तरह मुंबई में और भारत के
  देश को एक नया नेतृत्व चाहिए, जो रवि, फेलिक्स, हनीफ के सोच के अनुरूप भी हो और उसे दिशा तथा बल दे सके। जो राष्ट्रीय एकता की बात करे, मनुष्यता की बात करे, मानवीय सपनों को साकार करने का संकल्प बन सके      
कई-कई नगरों में, आतंकवाद के विरोध में एक स्वतः स्फूर्त ज्वार उठा है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है और प्रमाण भी, कि भारत का मानस मनुष्यता विरोधी विचारों को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं कर सकता। वह एकजुट होकर इसका विरोध करेगा, इसे विफल बनाएगा। रवि या फेलिक्स या हनीफ इसी मानसिकता का प्रतीक हैं।

आवश्यकता इस सकारात्मक मानसिकता को धूप, पानी देकर पल्लवित करने की है। आतंकवाद के इस हमले के बाद देश में नेतृत्व के प्रति भी एक गुस्सा स्पष्ट रूप से सामने आया है। यह एक विडंबना ही है कि जहाँ देश का युवामानस भारत माता की जय का नारा लगाकर भारत की संपूर्णता और उसकी ताकत को प्रदर्शित कर रहा है, वहीं हमारा नेतृत्व संकुचित स्वार्थों में सिमटा नजर आ रहा है। इस बीच नेतृत्व के खिलाफ जो गुस्सा दिखा है, नेतृत्व के लिए वह एक सबक होना चाहिए।

देश को एक जिम्मेदार नेतृत्व की आवश्यकता है, जो सीमित सोच से उबरकर राजनीतिक हितों की बजाय राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दे, जो विवेक और सार्थक सोच को प्रतिबिंबित करता हो, लेकिन हमारा नेतृत्व, चाहे वह राजनीतिक हो या सामाजिक या बौद्धिक एक स्वार्थी संकुचितता और विवेकहीनता का ही परिचालक सिद्ध हो रहा है। आज देश का युवामानस इस विवेकहीनता के खिलाफ उठ रहा है।

इस गुस्से, उद्रेक को एक सकारात्मक दिशा मिले, यह जरूरी है। वर्तमान नेतृत्व इस कसौटी पर खरा सिद्ध हो सकेगा, ऐसा नहीं लगता है। देश को एक नया नेतृत्व चाहिए, जो रवि, फेलिक्स, हनीफ के सोच के अनुरूप भी हो और उसे दिशा तथा बल दे सके। जो राष्ट्रीय एकता की बात करे, मनुष्यता की बात करे, मानवीय सपनों को साकार करने का संकल्प बन सके।
(लेखक नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं)

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