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ठर्रे के देसी माहोल में 'अंगरेजी' का मजा

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को खां, आम आदमी पार्टी का असर पिरदेश में इत्ती तेजी से ओर इत्ता नशीला होगा ये तो कोई ने नई सोचा था। अपनी एमपी की सरकार ने इसी नेक नीयत के साथ 'आम आदमी' के मन का फेसला करा हे। सरकार ने पीने वालों की कसक को भांप के सूबे की सभी देसी शराब के ठेकों पे विदेशी भी पूरी ठसक के साथ बिकवाने की ठान ली हे।

मतलब ये के गांव वालों को खाली इसी वास्ते शहर नई आना पड़ेगा। गांव की जरुरत गांव में ई पूरी हो जाएगी। सरकारी भंडार भी भरपूर रेगा। यानी सबकी बल्ले-बल्ले। गांवो में चोपाल मारकिट तो पेले ई खुल गए थे, अब ठर्रे के माहोल में अंगरेजी का डिस्को होगा। इसे केते हें फेसले की बाजीगरी। न दिल तोड़ा, न वादा टूटा।

मियां, इस मुल्क पीने वालों से लोगों की न जाने क्यों क्या दुश्मनी हे। उनके हक में होने वाला हर फेसला जनता के खिलाफ करार दिया जाता हे। दारु तो आम आदमी ने आम आदमी के वास्ते ई बनाई हे। अमीरों के पास तो जन्नात की सेर करने के लिए दोलत हे, साधन हे। एक पव्वे में दुनिया की सेर तो दारु ई कराती हे ना।

मगर इस हमदर्दी से कोई नई सोचता। लोग तो जो ठेके खुले हें, उन्हे भी बंद कराने पे तुले हें। अब पीने वाले जाएं तो जाएं कहां। कई जगह तो ओरतों को आगे कर देते हें कि ठेके बंद करवाओ। अरे, सरकार बनवाने में हमारा वोट भी लगा हे ओर ये वोट भी होश में डला हुआ हे। शराब इस काम में हमेशा मददगार साबित हुई हे। देर से ई सही, सरकार को ये समझ तो आ गया हे।

खां, पियक्कड़ बिरादरी में खुशी इस बात पे हे के ताजा फेसले से गांव ओर शहर की दूरियां घटेंगी। दारु दिलों को मिलाती हे। देसी-विदेशी के मेल से गांव से शहरों की ओर पलायन रुकेगा। वरना मजूरी मिलने के बाद विदेशी की खातिर शहर आना पड़ता था। अब वो देसी ढाई सो ठेकों पे गांव में ई मिल जाएगी। आने-जाने का खर्चा बचेगा।

दिलजले इसको पिछले दरवाजे से करा फेसला बता रिए हें। अपन तो सामने वाले दरवाजे से घुस के दड़े-गम पिएंगे। थोड़ा एरिये का लोचा हे। 10 कोस के इलाके में दूसरी दारु की दुकान नई होना चाहिए। अभी मिट्टी का तेल लेने वास्ते भी तो इत्ता चलना ई पड़ता हे। अंगरेजी के लिए इत्ती पेदल परेड तो करनी पड़ेगी।

लोग कुछ कहें, ये हकीकत मे आम आदमी की सियासत का सुरुराना आगाज हे। ये देसी-विदेशी का मस्तीभरा मेल भी हे। यानी माहोल भी देसी रिया ओर अंगरेजी भी पिलवा दी। नया ठेका भी नई दिया ओर पुरानी पे ठाठ से नई बिकवा दी। नई दुकान खुलवानी नई पड़ी ओर पुरानी पे नया माल टकाटक।

अचरज तो इस बात का हे के सरकारी खजाना भरने का इत्ता ईजी फंडा केजरीवाल के दिमाग में क्यों नई आया? सुना हे के कुछ मंतरियों ने केबिनेट में इस फेसले की मुखालिफत इस बिना पे करी के इससे पब्लिक में गलत संदेश जाएगा।

संदेश जो भी जाएगा, लेकिन सरकारी ठेकों पे मिलावट का अंदेशा कम हो जाएगा। अरे, जब पूरी दुनिया स्मार्ट हो रई हेगी तो गांव वालों को भी अंगरेजी चढ़ाने से रोकने के 'बीमारु' सोच का क्या मतलब हे?

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