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दिल्ली गैंग रेप : दोषियों के वकील ने उगला जहर

- स्मृति आदित्य

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हमें फॉलो करें एपी सिंह
बड़ी शर्म आती है, बेहद शर्म आनी चाहिए...कि एक पिता है एपी सिंह।

दामिनी के दोषियों े वकील एपी सिंह। मुकदमा हार ए लेकिन जली रस्सी की तरह नका बयान आया और इस तरह आया कि जिसने सुना वह हैरान रह गया।

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दरअसल यह महाशय एपी सिंह एक चैनल में बहस के लिए बैठे थे। दामिनी केस पर जब एंकर द्वारा इनसे पूछा गया कि अगर दामिनी आपकी बेटी होती तो आप क्या करते। जवाब आया कि मेरी बेटी अगर शादी से पहले किसी लड़के से संबंध बनाती या उसके साथ इस तरह घुमती तो मैं उसे पेट्रोल डाल कर आग लगा देता।

सरेआम पूरी दुनिया के समक्ष यह बेशर्म बयान एपी सिंह ने दिया और हद देखिए कि अब तक वह इस बयान पर कायम है।

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जाहिर-सी बात है कि एपी सिंह को दोषियों का ही केस लड़ना था। जिस आदमी की सोच इस कदर गिरी हुई हो, जो आदमी इतनी संकीर्णता में जकड़ा है वह दामिनी तो क्या किसी स्त्री का कोई केस नहीं लड़ सकता।

आश्चर्य तो इस बात का है कि इस सोच के साथ वह खुलेआम घुम रहा है। मिल गई अपराधियों को फांसी की सजा। मगर अपराधियों के इस वकील की सोच का क्या? यह सोच बलात्कारियों से कहीं अधिक घातक है। कहीं अधिक खतरनाक है। कहीं अधिक बर्बर है।

आदमी बिना सोच के तो निर्जीव प्राणी है। यह सोच ही उसे दयावान या दरिंदा बनाती है। इंसान और हैवान के बीच का फर्क रंग-रूप, जाति-समाज से नहीं उसकी सोच से ही किया जाता है। अगर इस समाज में इस घृणित सोच के साथ आदमी फैल रहे हैं, पनप रहे हैं, बढ़ रहे हैं तो कहां है स्त्री सुरक्षित? कहां है उसके हिस्से का आकाश, कहां है उसके हिस्से की हवा, कहां है उसका अपना दामन और उसकी जिंदगी सुरक्षित।

उसके अपने घर में उसके अपने जन्मदाता, उसके पिता अपनी बेटी को अपनी जागिर समझे और उसके जीवन के अहम फैसलों में दखलअंदाजी करें, वहां कहां है आजादी नाम की चिड़‍िया?

दखलअंदाजी भी बर्दाश्त है लेकिन उसे मार डालने का हक भी बाप खुद ही हथिया ले, वहां एक बेटी बाहरी नापाक पंजों से कैसे बच सकती है?

इस गंदी सोच का ही नतीजा है खाप, इसी गंदी सोच का नतीजा है ऑनर किलिंग, इसी सोच का परिणाम का है कि इस देश में अपराधियों को किसी का खौफ नहीं। ऐसी सोच के वकीलों के भरोसे ही बलात्कारी खुलेआम सड़क पर घुम रहे हैं।

इस सोच को कहां-कहां से निकालेंगे?? माफ कीजिएगा, अगर आपको पढ़ने में यह वाक्य बुरा लगे तो पर जरूरत अब सचमुच इस बात की है कि पैट्रोल ऐसी 'जुबान' में ही लगाना चाहिए। अगर सोच और समझ के स्तर पर इस देश के कुछ पिता ऐसी 'वाणी' रख सकते हैं तो विरोध के लिए भी हमें भाषा पैट्रोल वाली ही लिखनी होगी....

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