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प्रारंभ और अंत के बीच

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, रविवार, 10 जून 2007 (00:55 IST)
पृथ्वी पर जीवन कैसे प्रारंभ हुआ इस प्रश्न का समाधान अभी नहीं किया जा सका है।

चूँकि अरबों-खरबों वर्षों पहले पृथ्वी और फिर इस पर जीवन की उत्पत्ति का प्रश्न अनुत्तरित है, इसलिए यह मत विभाजन अब भी बना हुआ है कि क्या पृथ्वी पर जीवन का प्रारंभ यंत्रवत प्रक्रिया के माध्यम से हुआ या वह किसी अलौकिक चमत्कारिक घटना का परिणाम था।

इस तलाश में असंख्य विज्ञानियों ने जीवन की आहुति दी है। लेकिन अमेरिका के जीव विज्ञानी स्टेनले लॉयड मिलर ने इस खोज को एक नई और निश्चित दिशा दी। इसकी विस्तार से चर्चा आगे की पंक्तियों में होगी।

पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभ को लेकर दो प्रमुख विचारधाराएँ विज्ञान और धर्म की हैं। बाइबल में उल्लेखित तथ्य वर्षों तक अकाट्य बने रहे हैं। अब भी उन तथ्यों के समर्थक हैं लेकिन विज्ञान की प्रगति ने धर्म आधारित इस व्याख्या को भी विश्लेषण में जाने के लिए मजबूर किया। विज्ञान ने जीवन के प्रारंभ को क्रम विकास की यंत्रवत प्रक्रिया के ही इस या उस स्वरूप में स्वीकार किया जबकि धर्म एक अचानक घटित अलौकिक घटना को जीवन की उत्पत्ति का श्रेय देता रहा।

जीवन के सफर को विज्ञान की नजर से समझने में अपना जीवन खपा देने वाले मिलर का निधन अभी बीस मई को सतहत्तर वर्ष की आयु में हुआ। करीब चौपन वर्ष पहले मिलर ने एक बहुत ही आसान प्रयोग के तहत हाइड्रोजन, मीथेन, अमोनिया तथा जलवाष्प का मिश्रण तैयार कर उसे जीवाणुरहित गैस कंटेनर से गुजरने का मौका दिया।

इसी बीच इन गैसों को विद्युत ऊर्जा दी गई। उनकी यह कल्पना जीवन के प्रारंभ के वक्त मौजूद वातावरण पर आधारित थी। जलवाष्प को प्रारंभिक काल के महासागरों के स्थान पर उपयोग किया गया था। नतीजा चमत्कारिक निकला था। मिश्रण द्रव्य भूरे रंग का हो गया तथा उसमें अमीनो एसिड पाए गए जो प्रोटीन के मूल निर्माण तत्व होते हैं और प्रोटीन जीवन का प्रमुख तत्व है। आगे चलकर न्यूक्लिक एसिड भी इसी तरह पाया गया। यह सिद्ध हुआ है कि प्राणी में आनुवांशिक सूचनाएँ एकत्र कर उनके रूपांतरण का काम यही एसिड करता है। सच है, मिलर ने जीवन के प्रारंभ की तलाश को एक निश्चित दिशा दे दी थी। इस महान जीव विज्ञानी का यह योगदान विज्ञान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहेगा।

अब तक की खोज के आधार पर विज्ञान मानता है कि पृथ्वी पर प्रारंभिक काल में मौजूद महासागरों में अमीनो एसिड रासायनिक क्रियाओं से सबसे पहले बना था। जबकि महान दार्शनिक एरिस्टोटल का मानना था कि गैर-प्राण वस्तुओं जैसे मिट्टी आदि के रासायनिक संसर्ग से मेंढक, साँप, कीट जैसे प्राणियों का निरंतर जन्म होता रहता है (क्या मिट्टी में घोंघा भी इसी तरह बनता है?)। धर्म के बाद जीवन के प्रारंभ को खोज रहे विज्ञान को अब भी वह निश्चित ठिकाना नहीं मिला है जहाँ से प्राण का जन्म होता है।

1859 में चार्ल्स डार्विन के क्रम विकास के सिद्धांत ने पहली बार एक विज्ञान सम्मत और तर्कसंगत आधार प्रस्तुत किया था। अभी इसी सिद्धांत को जीवन विकास का वैज्ञानिक आधार माना जाता है। डार्विन की मान्यता थी कि प्रारंभिक स्वरूपों से ही ऊँची तथा जटिल प्राणी किस्में पनपी हैं। सुधार की यह पद्धति मूलतः चरणबद्ध, धीमी है और प्राकृतिक परिवर्तनों के माध्यम से आगे बढ़ती है।

दरअसल 17वीं और 18वीं सदी में जीवन की उत्पत्ति की धार्मिक व्याख्या को चुनौती मिली और उसका निराकरण डार्विन के सिद्धांत की स्थापना से हुआ। लेकिन मूल प्रश्न को लेकर धर्म तथा विज्ञान के बीच रस्साकशी अब भी जारी है।

अब दो महत्वपूर्ण तथ्य शेष रह जाते हैं। एक, लगभग एक हजार वर्षों तक स्वीकार किया जाता रहा यह सिद्धांत क्या सच है कि जीवन विकास एक सहज, नैसर्गिक प्रजनन है जैसा प्राचीनकाल में मान्य था? दूसरा तथ्य दिलचस्प है। यह माना जाता है कि पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभिक काल में स्वास्थ्य की चिंता (या जिज्ञासा कहें?) से प्राणी जगत के अध्ययन की आवश्यकता जन्मी थी। यह व्याख्या तर्कसंगत भी दिखती है।

यहाँ एक ताजा खबर का उल्लेख प्रासंगिक होगा। कुछ रिपोर्टों के अनुसार मानव गतिविधियों (विनाशकारी) के कारण पृथ्वी पर प्रत्येक घंटे में प्राणी पर वनस्पति जगत की तीन किस्में लुप्त होती जा रही हैं। स्वास्थ्य की चिंता से प्रारंभ प्राणी जगत के अध्ययन के संदर्भ में यह खबर गौरतलब है। अभी जीवन का निश्चित प्रारंभ खोजा जाना शेष है और इधर जीवन के खत्म होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। बेहतर और सुधरी किस्म को जगह देने के लिए पुरानी किस्म का घटना प्राकृतिक है (डार्विन) लेकिन किस्मों का तेजी से लुप्त होना अलग और चिंताजनक बात है।

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