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ममत्व से भरा चट्टानी व्यक्तित्व

हमें फॉलो करें ममत्व से भरा चट्टानी व्यक्तित्व
- अंबिका सोनी
इंदिराजी की याद आते ही मन भावुक हो जाता है। जब दुनिया में बहुत कम महिलाएँ राजनीति और समाज में आगे आ पाई थीं, मसलन गोल्डा मायर और सिरिमाओ भंडारनायके और इंदिरा गाँधी जैसे कुछ नाम ही दुनिया में सुने जाते थे, तब इंदिराजी विश्व के सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली नेताओं में थीं। वहीं दूसरी तरफ वे अपने परिवार के साथ बेहद कोमल भावनाओं वाली महिला थीं। अपने कार्यकर्ताओं के प्रति उनमें बेहद स्नेह था। मातृत्व की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी।

मुझे राजनीति में इंदिराजी ही लेकर आई थीं। 1969 में मैंने स्वयंसेवक के तौर पर कांग्रेस
  जो विपक्षी नेता संसद में उनकी आलोचना करते थे, संसद के बाहर वे सब इंदिराजी का बेहद आदर करते थे। उनमें निर्णय लेने की गजब क्षमता थी। एक बार फैसला करने के बाद वे किसी दबाव को नहीं मानती थीं और उसे पूरी तरह अमल में लाकर ही छोड़ती थीं      
में काम शुरू कर दिया था। 1970 में पटना में कांग्रेस अधिवेशन था। मैं भी वहाँ एक कोने में खड़ी थी। मंच से इंदिराजी ने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। मैं भाग कर गई। उन्होंने मुझे मंच के पीछे आने को कहा। मैं वहाँ गई तो इंदिराजी ने कहा कि मैंने सुना है कि तुम्हें कुछ लोग रोक रहे हैं। जाओ नंदिनी सत्पथी से मिल लो। बस मेरा काम बन गया। अगले लोकसभा चुनाव में इंदिराजी से हम लोगों ने नई दिल्ली सीट से मुकुल बनर्जी के लिए टिकट माँगा।

इंदिराजी मान गईं। हमने मुकुल के लिए जमकर काम किया और जिताकर भेजा। बाद में मैं अपने पति के साथ रोम वापस चली गई। उस समय मेरा बेटा ढाई-तीन साल का था। कुछ दिनों बाद इंदिराजी रोम आईं। मैं उनसे जब मिली तो उन्होंने कहा कि यहाँ क्या कर रही हो, मेरे साथ चलो। पीएन हक्सर, जो उनके सचिव थे, उनसे कहा कि इसे लेकर मेरे जहाज पर आओ। मैं अपने छोटे से बच्चे और जरूरी सामान लेकर इंदिराजी के जहाज पर आ गई। वहाँ से हम हंगरी आए और फिर भारत आ गए। यहीं से मेरा सक्रिय राजनीतिक जीवन शुरू हुआ।

इंदिराजी अपने कार्यकर्ताओं से कितना जुड़ाव महसूस करती थीं, इसकी कई घटनाएँ मुझे आज भी याद हैं। 9 अगस्त 1976 की बात है, जब युवक कांग्रेस के जिला अध्यक्षों का एक सम्मेलन दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित किया गया था। वहाँ बनाए गए युवा नगर में प्रतिनिधियों के लिए तीन जगह खाने के पांडाल लगाए गए थे। इंदिराजी बिना बताए अचानक एक-एक करके तीनों भोजन पांडालों में पहुँच गईं और वहाँ मौजूद प्रतिनिधियों के साथ उन्होंने वह सब खाना खाया जो कार्यकर्ताओं के लिए बनाया गया था।

हालाँकि निजी तौर पर वे बेहद कम खाती थीं, लेकिन उस दिन उन्होंने तीनों पांडालों में चटखारे लेकर पूरे स्वाद से सबके साथ खाना खाया। इस तरह उन्होंने एक तरफ खुद को अपने कार्यकर्ताओं के साथ जोड़ा, दूसरी तरफ इंतजाम का जायजा लिया और प्रतिनिधियों को यह अहसास कराया कि वे एक माँ की तरह हमेशा उनके साथ हैं। इस तरह उन्होंने सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों का मन सामूहिक रूप से मोह लिया। उनसे एक मुलाकात हम कार्यकर्ताओं को ऊर्जा से भर देती थी।

जब विदेशी नेता या राष्ट्राध्यक्ष उनसे मिलने आते थे, तो वे सारी तैयारी का जायजा खुद लेती थीं। यहाँ तक कि वे यह देखती थीं कि खाने की मेज पर अतिथियों के नामपट्ट कैसे लगे हैं। गुलदस्ते कैसे सजाए गए हैं। पूरी साज-सज्जा आने वाले विशिष्ट अतिथि की गरिमा और स्वभाव के अनुकूल है या नहीं। अतिथियों के स्वागत में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक की जानकारी लेकर वे अपने सुझाव देती थीं। एक घटना मुझे विशेष रूप से याद है। हंगरी के राष्ट्रपति भारत आए थे। विज्ञान भवन में उनके स्वागत का कार्यक्रम था।

तब आज की तरह हर चीज बाजार से रेडीमेड नहीं आती थी। उनके स्वागत में सजावट का कुछ
  1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने जब उन्हें दुर्गा कहा था तो इसका कोई धार्मिक मतलब नहीं था, बल्कि वे नारी शक्ति, मातृ शक्ति, वीरता, धैर्य और साहस की प्रतीक बन गई थीं      
सामान मैं अपने घर से लेकर गई थी और बड़ी मेहनत से हम लोगों ने पूरी तैयारी की थी। कार्यक्रम खत्म होने के बाद जब इंदिराजी जाने लगीं तो हम लोग उन्हें विदा करने के लिए पोर्टिको में खड़े थे। मैं संकोच से दूर खड़ी थी। अचानक गाड़ी का शीशा खोलकर उन्होंने मुझे हाथ हिलाकर अपने पास बुलाया। मुझे लगा कि शायद कुछ गलती हो गई है, लेकिन उन्होंने बड़े दुलार से कहा कि मुझे पता है कि यह तुमने किया है। मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव था।

ऐसा ही एक सुखद अनुभव मुझे तब हुआ जब इंदिराजी विदेश जा रहीं थीं। हवाई अड्डे पर कई बड़े नेता और मंत्री उन्हें गुलाब का एक-एक फूल देकर विदाई दे रहे थे। इंदिराजी सबसे मिलती हुई मेरे पास आईं और अपने हाथ के सारे गुलाब उन्होंने हँसते हुए मुझे पकड़ा दिए। यह था इंदिराजी का तरीका अपने कार्यकर्ता को यह विश्वास दिलाने का कि वे उसे पहचानती हैं और उसके साथ चट्टान की तरह खड़ी हैं। कार्यकर्ताओं के लिए तो वे माँ जैसी थीं।

जो विपक्षी नेता संसद में उनकी आलोचना करते थे, संसद के बाहर वे सब इंदिराजी का बेहद आदर करते थे। उनमें निर्णय लेने की गजब क्षमता थी। एक बार फैसला करने के बाद वे किसी दबाव को नहीं मानती थीं और उसे पूरी तरह अमल में लाकर ही छोड़ती थीं। उनमें एक तरफ अगर ममता और प्यार हिलोरे लेता था तो दूसरी तरफ उनका दबदबा भी बरकरार रहता था। कोई उनकी बात को नजरअंदाज नहीं कर सकता था।

1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने जब उन्हें दुर्गा कहा था तो इसका कोई धार्मिक मतलब नहीं था, बल्कि वे नारी शक्ति, मातृ शक्ति, वीरता, धैर्य और साहस की प्रतीक बन गई थीं। यह कोई छोटी बात नहीं है कि विपक्ष के नेता ने उनकी इन क्षमताओं को पहचाना और बेझिझक उसे सार्वजनिक रूप से बयान भी किया।

गुटनिरपेक्ष देशों में तो इंदिराजी की इतनी लोकप्रियता थी कि एक बार केन्या में गुटनिरपेक्ष देशों का सम्मेलन होने वाला था। लेकिन इंदिराजी ने सम्मेलन में जाने में असमर्थता जताई। तब सम्मेलन टलने की नौबत आ गई और इंदिराजी को केन्या जाना पड़ा। तब आज की तरह टीवी, इंटरनेट, अखबार, रेडियो का इस कदर प्रसार नहीं था। लेकिन तब भी अपने जमाने के दुनिया के दूसरे नेताओं की तुलना में उन्हें संसार के हर देश में लोग जानते थे। अपने पति के साथ विदेशों में रहते हुए मैंने महसूस किया कि दूसरे देशों में भी इंदिराजी किस हद तक लोकप्रिय थीं। देश में भी आम लोग उन्हें इंदिरा अम्मा कहते थे।

उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण की शुरुआत की। पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स खत्म किए। तब जनता ने उनको परिवर्तन का प्रतीक और दूसरे पुराने नेताओं को यथास्थिति वादी माना। जब इंदिराजी ने कहा कि बैंक अब सिर्फ टाटा-बिड़ला को ही लोन नहीं देंगे बल्कि गरीबों के बच्चों को भी अपने व्यवसाय के लिए लोन मिलेगा, किसानों को कर्ज मिलेगा तब लोगों को लगा कि यह एक ऐसी आवाज है जो उनके हक में उठी है और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया।
(लेखिका केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री है)

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