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सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल : एक नजर...

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हमें फॉलो करें सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल
विपक्षियों के विरोध के कारण अब तक ठंडे बस्ते में पड़े सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक को सरकार एक बार फिर संसद में पेश कर सकती है। विधेयक के मसौदे में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति की तरफ से सुझाए गए सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम बिल, 2011 के प्रावधानों को बड़ी संख्या में शामिल किया गया है। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जहां विधेयक को राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण बताते हुए इसका विरोध किया है, वहीं भाजपा और अन्य दलों ने इसे पक्षपातपूर्ण करार दिया है।

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गृह मंत्रालय अधिकारियों का कहना है कि विधेयक खासतौर पर मुस्लिमों की मांग से जुड़ा है। सांप्रदायिक हिंसा (निरोधक, नियंत्रण व पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, केंद्र व राज्य सरकारों और उनके अधिकारियों को सांप्रदायिक हिंसा को निष्पक्षता के साथ रोकने के लिए जिम्मेदार बनाने का दावा करता है। इस विधेयक में केंद्र द्वारा राष्ट्रीय सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय व क्षतिपूर्ति प्राधिकरण का गठन भी प्रस्तावित है। गृह मंत्रालय और विधि मंत्रालय के अधिकारियों ने भी मसौदे के कुछ प्रावधानों पर आपत्ति जताई है।

भाजपा प्रस्तावित कानून पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कह चुकी है कि यह खतरनाक और बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ है। यही नहीं विधेयक संविधान के संघीय ढांचे को भी क्षति पहुंचाने वाला है। भाजपा ने सवाल उठाया था, 'विधेयक में यह पहले ही कैसे माना जा सकता है कि हर दंगे के लिए बहुसंख्यक ही जिम्मेदार हैं।'

विधेयक में केंद्र को एकतरफा फैसला करते हुए हिंसा वाले इलाके में अर्धसैनिक बलों को तैनात करने का अधिकार देने का कई राज्यों ने विरोध किया था। इसमें हिंसा वाले राज्य के मुकदमे दूसरे राज्य में स्थानांतरित करने और गवाहों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने का भी प्रस्ताव है। माना जा रहा है कि तृणमूल कांग्रेस, सपा, बीजद, अन्नाद्रमुक और अकाली दल विधेयक का विरोध करेंगे। हालांकि, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के. रहमान खान कह चुके हैं कि इस तरह के कानून से मुजफ्फरनगर दंगों की जवाबदेही तय होने के साथ ही पीड़ितों के पुनर्वास में मदद मिलेगी।

क्या है इस बिल में : बिल का मकसद केंद्र व राज्य सरकारों और उनके अधिकारियों को सांप्रदायिक हिंसा को निष्पक्षता के साथ रोकने के लिए जिम्मेदार बनाना है। बिल में केंद्र द्वारा राष्ट्रीय सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय और क्षतिपूर्ति प्राधिकरण का गठन भी प्रस्तावित है। इसमें हिंसा वाले राज्य के मुकदमे दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने और गवाहों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने का भी प्रस्ताव है।

नौकरशाहों को भी ऐतराज : गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने विधेयक के मसौदे में कुछ क्लॉज पर आपत्ति दर्ज कराई है। इनमें सांप्रदायिक हिंसा फैलने पर नौकरशाहों की जिम्मेदारी शामिल है। अधिकारियों का कहना है कि सामान्य ड्यूटी निभाने में ये बाधा पैदा करेगा। विधेयक का प्रपोजल व्यापक तौर पर सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011 के प्रावधानों पर केन्द्रित है, जिसे सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया था।

विधेयक के प्रस्ताव के मुताबिक, धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को निशाना बनाकर की गई हिंसा को रोकने और कंट्रोल करने के लिए निष्पक्ष और भेदभावरहित ढंग से अधिकारों का इस्तेमाल करना केंद्र, राज्य सरकारों और उनके अधिकारियों की ड्यूटी का अनिवार्य हिस्सा होगा।

प्रस्तावित विधेयक के विरोध में कहा जा रहा है कि इसके तहत हिंदू और मुस्लिम दंगापीड़ितों के लिए अलग-अलग अदालतें बनाने की बात कही गई है ताकि हिंदू और मुस्लिम आरोपियों पर अलग- अलग मुकदमा चलाया जा सके। विधेयक के विरोधियों का कहना है कि यह साम्प्रदायिक दुर्भावना और ध्रुवीकरण को वैधता प्रदान करता है। दंगों की जांच करने वाले न्यायिक आयोग भी मानते हैं कि अगर सरकार और पुलिस बलों में इच्छा शक्ति हो तो किसी भी दंगे को 24 घंटों के अंदर रोका जा सकता है या फिर इस पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन दंगों को होने दिया जाता है क्योंकि कभी-कभी राजनीतिज्ञ और पुलिसकर्मी भी दंगों को भड़काते हैं। इतना ही नहीं, वे दंगों में भी शामिल होते हैं, लेकिन इन्हें कोई दंड नहीं दिया जाता है।

इस विधेयक में इन बातों को रोकने के लिए इसे 'कर्तव्य की उपेक्षा' और 'साम्प्रदायिक जिम्मेदारी संबंधी कर्तव्य भंग' अपराध बनाने की बात कही गई है। यह प्रावधान लोकसेवकों पर लागू होगा। इन पर सांप्रदायिक हिंसा की रोकथाम और अपने अधीनस्थों को नियंत्रित करने से रोकने में असफल होने का भी दोष लगाया जा सकता है। कर्तव्य की उपेक्षा के प्रावधान बहुत व्यापक बनाए गए हैं और इसके तहत दोषियों को दो वर्ष से लेकर पांच साल की सजा तक का प्रावधान किया गया है। लेकिन यह अपर्याप्त दंड है क्योंकि जो लोग नागरिकों के जीवन पर सत्ता का अधिकार रखते हैं उन्हें अपनी सत्ता का उपयोग न करने के लिए अधिक कड़े दंडों की जरूरत है पर इस विधेयक में पर्याप्त और समुचित प्रावधानों का प्रस्ताव नहीं है।

जहां तक 'साम्प्रदायिक जिम्मेदारी के भंग' होने के अपराध से जुड़ी बात है तो इसमें कमांडिंग ऑफिसर की जिम्मेदारी को तय करने संबंधी प्रावधानों में गंभीर खामियां हैं। अगर आप यह पता लगा भी लेते हैं कि आपके अधीनस्थों ने गंभीर अपराध किया है तो इसके लिए वरिष्ठ लोक सेवकों को दोषी ठहराना कहां तक उचित होगा? अगर दोषी अधिकारियों पर मुकदमा भी चलाया जाता है तो ऐसा कौन करेगा? इस विषय पर भी बहुत सारे प्रश्नों का जवाब नहीं मिल सका है। इस विधेयक में ऐसे लोक सेवकों के खिलाफ एक राष्ट्रीय प्राधिकरण (नेशनल अथॉरिटी) बनाने का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस प्रावधान के दोनों ही प्रकार के, नकारात्मक और सकारात्मक पहलू होंगे जिनपर ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

जब सरकारी अधिकारियों को दंडित करवाने या करने की बात आती है, आम लोग कोर्ट्‍स के दरवाजे चाहे जितने खटखटा लें, वे इन्हें दंडित नहीं करवा सकते हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जोकि पूरी तरह से स्वयंसिद्ध है। नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों से बनने वाली सरकारों का इस मामले में बदल पाना संभव नहीं लगता है। नेशनल अथॉरिटी से इस उद्देश्य की पूर्ति है, ऐसा नहीं लगता। लेकिन प्रस्तावित विधेयक में सरकार इसे एक सुपरस्टेट बना दिया जाएगा, जिसे लेकर राज्य सरकारों को आपत्ति है। राज्य सरकारें कह सकती हैं कि नेशनल अथॉरिटी (एनए) जिन लोगों को दंडित करने या कराने की बात कहती है, वे उनकी नजरों में दोषरहित हैं, ऐसे में एनए क्या करेगी? एनए कोर्ट भी जा सकती है लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि जहां दंगों को लेकर मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग पर्याप्त प्रभावी साबित नहीं हुए हैं, यह नई केन्द्रीय संस्था सफल होगी?

उल्लेखनीय है कि उपरोक्त दोनों संस्थाएं स्वायत्तशासी नहीं हैं। जब इन दोनों संस्थाओं की रिपोर्टों के निष्कर्षों का पालन ही नहीं किया जाता तो वांछित उद्देश्य कैसे हासिल हो? अब तक दंगे और साम्प्रदायिक हिंसा रोकने में केन्द्र और राज्य सरकारें नाकारा साबित हो चुकी हैं इसलिए एक गैर-सरकारी संस्था बनाने की भी मांग उठती है। न्यायिक आयोगों का भी यही हाल है। ऐसी हालत में एक और सलाहकार संस्था बनाने का क्या औचित्य है? इन सारे मामलों में इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता है कि जब दंगों के लिए वातावरण बनाया जाता है तब ये सारी संस्थाएं क्यों सोई रहती हैं?

केन्द्र और राज्य सरकारें हिंदुत्ववादी दलों और सिमी जैसे संगठनों की गतिविधियों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देती हैं और जब दंगा हो जाता है तब कथित तौर पर दोषी लोगों की धरपकड़ होती है। जब साम्प्रदायिक दुष्प्रचार अभियान चलाए जाते हैं और ऐसी गतिविधियां होती रहती हैं तब नेता, अधिकारी और पुलिस बल सोया रहता है। इस विधेयक में प्रावधान किया गया है कि जहां साम्प्रदायिक हिंसा होती है, दंगे होते हैं वहां संबंधित लोक सेवकों को इसके लिए दोषी माना जाए। लेकिन राजनीतिक दलों के नेताओं और उनकी ब्लैकमेलिंग को कौन रोकेगा? साम्प्रदायिक आधार पर काम करने वाली सरकारें? बहुत ही धीमी गति से चलने वाली न्यायपालिका?

इस नए अधिनियम के तहत विशेष अदालतें, विशेष जज और लोक अभियोजकों को उपलब्ध कराने का प्रावधान है, लेकिन क्या कथित अपराधियों को अल्पसंख्‍यकों, बहुसंख्यकों में बांट कर न्याय किया जा सकता है? हिंदू और मुस्लिम पीडि़तों में अंतर करने वाले कानून के आधार पर साम्प्रदायिकता और विभाजन का इलाज नहीं किया जा सकता है। इसके लिए वर्तमान कानून भी पर्याप्त साबित हो सकते हैं लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हम समस्या को धर्म, पंथ निरपेक्ष तरीके से देखें और इसके साथ ही इसे समानता के आधार पर बने कानून के जरिए सुलझाने का प्रयास करें। सबसे पहले जरूरी यही होगा कि इस विधेयक के प्रावधानों की पूरी निर्ममता से चीड़फाड़ की जाए ताकि इसे सही दिशा में आगे बढ़ाने में मदद मिल सके।

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