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थैली से जुड़ा हमारा पर्यावरण

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- मोना गौतम

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कुछ दिनों पहले मैंने टीवी पर पॉलीथिन की समस्या पर एक छोटी-सी फिल्म देखी। इसमें मैंने देखा कि किस तरह समंदर के तट पर एक मरा हुआ कछुआ मिला। इस दृश्य ने मुझे फिल्म देखने के लिए रोक लिया, क्योंकि मुझे कछुए अच्छे लगते हैं। मैंने देखा कि डॉक्टर कछुए की मौत का कारण पता लगा रहे हैं। जल्द ही कारण उनके हाथ में था। कछुए के पेट से निकली पॉलीथिन की थैली ही उसकी मौत की वजह थी।

इस फिल्म को देखकर मुझे समझ आया कि हमारे द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली पॉलीथिन थैलियाँ किस तरह जल में रहने वाले जीवों के लिए मौत का कारण बन रही हैं। फिल्म में आगे बताया गया कि बड़ी व्हेल मछली हो या छोटी मछलियाँ पॉलीथिन के कारण सभी मारी जा रही हैं। फिल्म में भारत के भी कुछ दृश्य थे जिनमें हर कूड़े के ढेर पर पॉलीथिन का कचरा दिखाया गया था और गौमाता उनमें मुँह मार रही थी।

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भारत में लोग अब सब्जियों का कचरा भी पॉलीथिन में बंद करके फेंकते हैं जिसे खाने के चक्कर में पॉलीथिन भी गाय के पेट में चली जाती है और फिर लगातार पेट में पॉलीथिन के इकट्ठा होने से गाय की जिंदगी खतरे में पड़ जाती है। गौमाता को पूजने वाले देश में गायें इस तरह पॉ‍लीथिन का कचरा खाकर मारी जा रही हैं यह सोचकर मुझे दुख हुआ।

फिल्म में दूसरे देशों में पॉलीथिन प्रदूषण का जिक्र भी था। इसमें बताया गया कि २००२ में जब ऑस्ट्रेलिया दिवस मनाया गया था तो इस दौरान इस देश में स्वच्छता अभियान चलाया गया था। तब पूरे ऑस्ट्रेलिया से करीब ५ लाख पॉलीथिन थैलियों का कचरा इकट्ठा किया गया था। सोचिए हर साल इतनी मात्रा में पन्नी की थैलियों का कचरा पर्यावरण का कितना नुकसान करता है।

इसके बाद ऑस्ट्रेलिया में पॉलीथिन थैलियों पर प्रतिबंध लगाने की बात भी उठी, पर इसे जनता के विवेक पर छोड़ दिया गया। ऑस्ट्रेलिया छोटा देश है, पर साउथ अफ्रीका जैसे देश में हर साल करीब ८ अरब पॉलीथिन थैलियाँ उपयोग में लाई जाती हैं और उपयोग के बाद ये कचरे में जाती हैं। सिंगापुर, थाईलैंड और आयरलैंड जैसे देशों में पॉलीथिन बैग का उपयोग कम करने के लिए इनके उपयोग पर भारी टैक्स लगाया गया है। लोग इन देशों में पॉलीथिन की थैलियों का बार-बार उपयोग करते हैं। फिल्म बनाने वाले का कहना था कि टैक्स लगाने से ज्यादा जरूरी है लोगों की सोच कि वे इन थैलियों का उपयोग करके दूसरों के जीवन को कितना मुश्किल में डाल रहे हैं।

फिल्म में यह बताने वाले अनेक दृश्य थे कि किस तरह कचरे में फेंक दी गई पॉलीथिन मिट्टी और जलस्रोतों को प्रदूषित करती है। फिल्म से मैंने जाना कि एक प्लास्टिक बैग को मिट्टी में मिलने में २० से १००० साल तक लगते हैं। यह बहुत लंबा समय है और इतने समय तक एक बहुत छोटी प्लास्टिक की थैली कचरे के रूप में यहाँ-वहाँ प्रदूषण फैलाती रहती है। वह मिट्‍टी की उपजाऊ क्षमता को भी कम करती है। आपने भारत के हर बड़े शहर में पन्नी बीनने वाले बच्चे देखे होंगे। ये बच्चे कचरे के ढेर से पॉलीथिन निकालकर उसे रिसाइकलिंग सेंटर तक पहुँचाते हैं पर क्या हमें ही यह काम नहीं करना चाहिए?

घर में सब्जी, फल, धूल-मिट्‍टी और इस तरह का कचरा अलग फेंकना चाहिए, क्योंकि यह जल्दी ही मिट्‍टी में घुल-मिल जाता है जबकि पॉलिथीन जैसा कचरा जो सड़ने में बहुत लंबा समय लगाता है, अलग करके एक जगह रखना चाहिए जहाँ से वह कबाड़ी वाले के जरिए रिसाइकल होने के लिए पहुँच सके। इस तरह या पॉलिथिन थैलियों का उपयोग बंद करके और एक ही थैली का बार-बार उपयोग करके भी हम पर्यावरण की बेहतरी के लिए कुछ कर सकते हैं।

इस फिल्म को देखते हुए मुझे अपने दादाजी की याद भी आई, जो बाजार जाते हुए हमेशा एक कपड़े की थैली अपने साथ ले जाते थे और सब्जी-भाजी से किराने तक का सामान उसी में लाते थे। वे हमेशा एक कपड़े की थैली अपने साथ रखते थे। अब मुझे पता चला कि दादाजी की उस थैली के पीछे पर्यावरण को अच्छा बनाए रखने की बड़ी सीख छुपी थी।

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