पुस्तक के बारे में 'अपना मोर्चा' प्रतिरोध की उस मानसिकता का बहुमूल्य दस्तावेज है, जिसे इस देश के युवा वर्ग ने पहली बार अर्जित किया था। एक चेतन अँगड़ाई इतिहास की करवट बनी थी। जब विश्वविद्यालय से छूटा हुआ भाषा का सवाल, पूरे सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे का सवाल बन गया था। और आंदोलनों की लहरें जन-मानस को भिगोने लगी थी।
पुस्तक के चुनिंदा अंश 'लेकिन अभी फैशन की होड़ में आप बहुत पीछे हैं। सारे फैशनेबल कपड़े पहनिए। सुनसान सड़क पर भी चलिए तो सैकड़ों आँखों का दबाव झेलिए मगर बताइए तो सही कि आप किधर जा रहीं हैं? क्षितिज के पार तो बहुत जा चुकी आप, अब किधर चलीं? बबुई! सच कहूँ कि मैं आपको बहुत-बहुत प्यार करता हूँ लेकिन इस तरह सजी-सँवरी फूल के गजरे की तरह लहराते कहीं देखता हूँ तो शर्म से गड़ जाता हूँ। **** आंदोलन की चर्चा के बावजूद हर तरफ शांति और सन्नाटा है। लोगों को लगता है कि मजा नहीं आ रहा है। मजे के लिए जरूरी है कि कुछ हो। 'कुछ' होने के लिए जरूरी है कि कोई कारण हो। कारण तो हवा में होता नहीं है, वह या तो सरकार के पास है या अधिकारियों के पास। गरीबी कोई कारण नहीं है क्योंकि वह आज की नहीं है। यही नहीं, गरीबी कोई उत्तेजना और गुस्सा पैदा नहीं करती। **** हमारी इस भाषा के खिलाफ खड़ी है हुकूमत की भाषा, जो मौजूदा व्यवस्था को विदेशी शासन से विरासत में मिली है। सख्ती से दमन हुकूमत की भाषा का स्वभाव है। यह भाषा अपने को व्यक्त करने के लिए जिस शब्दकोष की मदद लेती है, वह है, लाठी, बंदूक, राइफल, गोली, आँसू गैस, धोखा, प्रलोभन! हम जब भी कहते हैं कि सरकार ! हम बेकार है, हमें काम चाहिए, वह हमारे मुँह पर बंदूक की गोली रख देती है। ****
समीक्षकीय टिप्पणी हम क्यों पढ़ते हैं? ये विश्वविद्यालय क्यों हैं? भाषा केवल एक लिपि ही क्यों है, जीवन की भाषा क्यों नहीं? छात्रों, अध्यापकों, मजदूरों और किसानों के अपने अलग-अलग सवाल क्यों है? इस उपन्यास में काशीनाथ सिंह ने इन सवालों को उछाला है। जिसके कारण उनकी यह कृति एक जरूरी किताब बन गई है।
उपन्यास : अपना मोर्चा लेखक : काशीनाथ सिंह प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन पृष्ठ : 128 मूल्य : 175 रुपए