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अमृता प्रीतम : शब्दों की संगिनी

31 अक्टूबर : पुण्यतिथि पर विशेष

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हमें फॉलो करें अमृता प्रीतम

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स्त्री संसार के तमाम अंधेरों-उजालों को बेबाक और अनूठी शैली से सतरंगी छटा प्रदान करने वाली रचनाकार अमृता प्रीतम ने साहित्य साधना के जरिए पंजाबी को विश्व साहित्य में स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाईं। उनकी रचना-यात्रा वर्तमान दौर का जीवंत दस्तावेज है।

अमृता प्रीतम ने अपनी लेखनी में उन विषयों को छुआ जिनकी अभिव्यक्ति में बेबाकी की जरूरत होती थी। उनकी रचनाओं में उन मूल्यों के खिलाफ बगावत झलकती थी जिन्हें वे गलत और अन्यायपूर्ण मानती थीं।

भारतीय साहित्य में अमृता का कद कितना बड़ा है, यह इसी से साबित होता है कि उन्होंने अपने रचनाकाल में 24 उपन्यास, 15 लघुकथा संग्रह और 23 कविता संकलन लिखे।

'डोगरी की अमृता प्रीतम' के नाम से जानी गईं वरिष्ठ कवियत्री पद्मा सचदेव कहती हैं, 'अमृता प्रीतम अपनी शर्तों पर जीने वाली आजाद ख्याल महिला थीं। वह बेहद रचनात्मक, खूबसूरत और शालीन थीं। उनकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। अमृता की लेखनी में अलग तरह का स्त्री विमर्श था। चाहे कविता हो, कहानी हो या उपन्यास, उन्होंने हर बार नारी के प्रति पुरुष की उदासीनता को पेश किया।'

भारत-पाकिस्तान विभाजन की पृष्ठभूमि पर रचे उनके उपन्यास ‘पिंजर’ में ‘पूरो’ नाम की हिंदू लड़की और उसे भगाकर ले जाने वाले रशीद के बीच के रिश्ते की कशमकश झलकती है।

अमृता प्रीतम की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त पुस्तक ‘कागज ते कैनवास’ की कविता ‘कुमारी’ में वह आधुनिक लड़की की कहानी बयाँ करती हैं। उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी बेखौफ नजीर पेश करती है। पद्मा कहती हैं, 'अमृताजी ने अपनी रचनाओं के जरिए उन महिलाओं को एक रास्ता दिखाया था जो तब दरवाजों के पीछे सिसका करती थीं।'

एक वाकया याद करते हुए पद्मा ने बताया, 'एक बार दिल्ली में एक घर की छत पर छोटा जमावड़ा हुआ। वहाँ एक-दो पंजाबी रचनाकार मौजूद थे। अचानक अमृता के आने की सुगबुगाहट शुरू हुई। उस मौके पर उन्होंने एक नज्म पेश की। दिलचस्प यह था कि नज्म ‘ब’ लफ्ज से शुरू होने वाले अपशब्दों जैसे ‘बदतमीज, बेलगाम, बेलिहाज, बेरहम’ पर आधारित थी। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने नज्म बेहद खूबसूरती से गढ़ी थी।’’ अमृता वाघा सीमा के दोनों ओर के पंजाब में लोकप्रिय हैं। कहा जाता है कि उनकी लोकप्रियता पंजाबी रचनाकार मोहन सिंह और शिव कुमार बटालवी से भी ज्यादा है।

पंजाबी रचनाकार डॉ. संतोख सिंह धीर कहते हैं, 'यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अमृता को उनकी रचनाएँ अनूदित करवाने का मौका मिला जो मोहन सिंह और बटालवी को उनके समय में नहीं मिल पाया। हालाँकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि कविता के मामले में अमृता काफी आगे हैं। उनकी कहानी ‘शाह की कंजरी’ और उपन्यास ‘पिंजर’ भी बेहद मशहूर है लेकिन उनकी कविताओं में ज्यादा गहराई है।

अविभाजित पंजाब के गुजराँवाला में 31 अगस्त 1919 को जन्मीं अमृता लाहौर में पली,बढ़ीं। उन पर पिता करतार सिंह हितकारी का काफी प्रभाव रहा। वह हमेशा मियाँ मीर वारिस शाह और बुल्ले शाह की मजार पर सुकून तलाशतीं। विभाजन के समय महिलाओं के साथ हुई ज्यादतियों पर उन्होंने लिखा, आज आक्खाँ वारिस शाह नूँ, कित्तों कब्राँ विच्चों बोल।’’ इसका अर्थ कुछ इस तरह है, 'आज पूछूँ वारिस शाह से, किसी कब्र में से बोल, और आज किताब-ए-इश्क का कोई अगला पन्ना खोल....

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पंजाब की एक बेटी 'हीर के संदर्भ में' - रोई तो तुमने, लिख-लिख कर खूब चीत्कार किया, आज लाखों बेटियाँ रो रही हैं, और तुझसे फरियाद कर रही हैं।' अमृता ने पत्रिका ‘नागमणि’ का संपादन किया, राज्यसभा में नामित हुईं। 1982 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली पंजाबी लेखिका रहीं। सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से नवाजा। जाने-माने चित्रकार इमरोज उनके जीवन साथी रहे।

अमृता का उपन्यास ‘पिंजर’, आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ और कविता ‘आज आखाँ वारिस शाह नूँ’ के अलावा एक और नज्म भी खासी मशहूर है जो कहती है, ‘‘मैं तुझे फिर मिलूँगी, कहाँ, किस तरह, पता नहीं, शायद तेरी कल्पनाओं में चित्र बन के उतरूँगी, जहाँ कोरे तेरे कैनवास पर, इक रहस्यमय लकीर बन के, खामोश तुझे तकती रहूँगी।'

दिल्ली में 31 अक्टूबर 2005 को उनका निधन हुआ। देश ने एक अनूठी-आकर्षक रचनाकार को खो दिया।

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