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भारतीय रंगमंच को नया मिजाज देने वाले तेंडुलकर

(19 मई को पुण्यतिथि पर विशेष)

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आधुनिक दौर के प्रमुख भारतीय नाट्य लेखकों में विजय तेंडुलकर एक ऐसा नाम था जिन्होंने शांतता अदालत चालू आहे, घासीराम कोतवाल और सखाराम बाइंडर जैसे नाटकों के जरिये हिंसाग्रस्त समाज की नंगी सचाइयों को पेश कर भारतीय रंगमंच को नया मिजाज दिया।

कहानीकार, पत्रकार, पटकथा, लेखक, नाट्य लेखक, अनुवादक के तौर पर तमाम विधाओं में लिखने वाले मराठी के इस रचनाकार ने अपने पात्रों को हमेशा जिंदगी से उठाना पसंद किया। उनकी रचनाओं में समाज के विरोधाभासों और विसंगतियों को सशक्त ढंग से उठाया जाता है।

महाराष्ट्र के कोल्हापुर में छह जनवरी 1928 को जन्मे विजय धोंडोपंत तेंडुलकर को घर के वातावरण से लेखन की चसक लगी। उन्होंने महज छह साल की उम्र में एक कहानी लिखी और 11 साल की उम्र में एक नाटक का लेखन कर स्वयं उसका मंचन एवं निर्देशन किया। उनका लिखा पहला चर्चित नाटक श्रीमंत था जिसमें एक गर्भवती महिला की पीड़ा को पेश किया गया है।

मराठी रंगमंच में 1950 और 1960 के दशक में जो नये दौर की बयार बही समीक्षकों के अनुसार उनमें तेंडुलकर के नाटकों की बड़ी भूमिका है। उस दौर में श्रीराम लागू मोहन अगाशे और सुलभा देशपांडे जैसे फनकारों ने तेंदुलकर के नाटकों के जरिये मराठी रंगमंच को नई संवेदना प्रदान की।

नाट्य निर्देशक अरविन्द गौड़ के अनुसार आधुनिक भारतीय नाटक लेखकों में बादल सरकार गिरीश कर्नाड, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती के साथ साथ विजय तेंदुलकर भी अंग्रिम पंक्ति में शामिल किए जाते हैं। उन्होंने कहा कि तेंडुलकर की समकालीन समाज की ज्वलंत समस्याओं पर गहरी पकड़ थी। उन्होंने मराठी रंगमंच को अपने नाटकों के जरिये एक नया व्याकरण दिया।

गौड़ ने कहा कि मोहन राकेश की तरह तेंदुलकर के नाटकों में भी स्त्री पुरूष के संबंधों को बारीकी से विश्लेषित किया गया है। भारतीय समाज में महिला की त्रासदी को उन्होंने कमला जैसे अपने नाटकों में बखूबी पेश किया। उन्होंने समाज के पतन को व्यापक कैनवास पर पेश किया लिहाजा उनके नाटकों का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुआ।

तेंडुलकर के मशहूर नाटक घासीराम कोतवाल का निर्देशन कर चुके गौड़ ने बातचीत में कहा कि यह नाटक हालाँकि एक काल विशेष पर आधारित है लेकिन इसकी समसामायिकता कभी खत्म नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि यह नाटक राजनीतिक हिंसा सहित मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य पर बखूबी उपुयक्त बैठता है। उन्होंने कहा कि तेंडुलकर ने पारिवारिक सामाजिक राजनीतिक सहित हिंसा के विभिन्न स्वरूपों को बखूबी समझा था।

तेंडुलकर ने 1961 में 'गिद्ध' नाटक लिखा जो पारिवारिक हिंसा पर आधारित था। इस नाटक के जरिये उन्होंने अपनी एक नई शैली विकसित की। इसके बाद उनका एक अन्य प्रसिद्ध नाटक शांतता अदालत चालू आहे आया जिस पर बाद में सत्यदेव दुबे ने फिल्म भी बनाई। इसके बाद 1972 में उनका सखाराम बाइंडर नाटक आया जो समाज में पुरूषों के आधिपत्य विषय पर आधारित था।

तेंडुलकर ने 1972 में ही एक अन्य नाटक घासीराम कोतवाल लिखा। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह नाटक दरअसल राजनीतिक हिंसा को केन्द्र में रखकर लिखा गया है जो आज के युग की सचाई है। यह नाटक आपात काल के दौरान काफी लोकप्रिय हुआ और आज भी हिन्दी सहित विभिन्न भाषाओं के रंगमंच पर मंचित होता रहता है।

तेंडुलकर ने निशांत, आक्रोश, मंथन और अर्द्धसत्य जैसी समानांतर दौर की फिल्मों के लिए पटकथा लिखी और इनका विषय कमोबेश तेंदुलकर के प्रिय विषय हिंसा के इर्दगिर्द केन्द्रित था। उन्होंने हिन्दी की 11 और मराठी की आठ फिल्मों के लिए पटकथा लिखी। उन्होंने कई उपन्यास, कहानियाँ लिखीं तथा अन्य लेखकों की कृतियों का मराठी में अनुवाद किया।

तेंडुलकर को संगीत नाटक अकादमी अवार्ड तथा इसी की फैलोशिप से नवाजा गया। उनके साहित्यिक योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें मंथन फिल्म के लिए श्रेष्ठ पटकथा का राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड मिला। इसके अलावा उन्हें आक्रोश और अर्द्धसत्य के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

सामाजिक सरोकारों से जुड़े तेंडुलकर ने हमेशा समाज की विसंगतियों के खिलाफ आवाज उठाई। गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए दंगों का जिन प्रमुख हस्तियों ने मुखर विरोध किया उनमें तेंडुलकर भी शामिल थे। मराठी के साथ साथ पूरे भारतीय रंगमंच को अपने नाटकों के जरिये एक नया मिजाज देने वाले इस नाट्य लेखक का निधन 19 मई 2008 को पुणे में हुआ।

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